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साम्प्रदायिक तनाव नहीं रुकेगा तो विकास कैसे हो पाएगा: मनमोहन सिंह

मौजूदा संकट को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरा विश्वास है कि यह पवित्र कर्तव्य है कि भारत की जनता को सच बताया जाए। और सच यह है कि मौजूदा संकट गहरा और चिंताजनक है। जिस भारत को हम जानते हैं और जिस पर हमें गर्व है वह हमारे हाथों से तेज़ी से फिसलता जा रहा है। जानबूझकर भड़काए गए साम्प्रदायिक तनाव, आर्थिक कुप्रबंधन और बाहरी स्वास्थ्य संकट भारत की प्रगति व वैश्विक मंच पर उसकी हैसियत को कम करता जा रहे हैं। 
मनमोहन सिंह

बड़े भारी मन से मैं यह लिख रहा हूँ।

सामाजिक शत्रुता, आर्थिक मंदी और वैश्विक स्वास्थ्य संकट भारत के लिए एक बड़े ख़तरे की घंटी है। सामाजिक अराजकता और आर्थिक बर्बादी हमने ख़ुद अपने आप को दिए हैं जबकि कोरोना वायरस का खौफ़ बाहरी कारणों से है। मुझे इस बात की चिंता है कि ये तीनों संभावित ख़तरे न सिर्फ़ भारत की आत्मा को तहस-नहस कर देंगे, बल्कि दुनिया के नक्शे पर भारत की आर्थिक और लोकतांत्रिक प्रसिद्धि को भी कम करेंगे।

पिछले कुछ हफ़्तों से दिल्ली चरम हिंसा का शिकार हो रही है। अकारण हमने क़रीब 50 भारतीयों को खो दिया है और सैकड़ों घायल हैं। समाज के अराजक तबक़े, जिनमें से राजनीतिक जमात भी शामिल है, ने साम्प्रदायिक तनाव और धार्मिक उन्माद को भड़काया है। विश्वविद्यालयों में, सार्वजनिक स्थानों पर और घरों में साम्प्रदायिक हिंसा हो रही हैं और जो सहसा ही भारतीय इतिहास के कुछ काले अध्याय की याद दिलाते हैं। जिन संस्थाओं पर क़ानून-व्यवस्था को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी है वे अपने नागरिकों को सुरक्षा करने के अपने धर्म को छोड़ बैठे हैं। न्यायिक संस्थाएँ और लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले मीडिया ने भी हमें निराश किया है।

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किसी तरह का लगाम नहीं होने की वजह से सामाजिक तनाव की आग पूरे देश में तेज़ी से फैलती जा रही है और यह हमारे राष्ट्र की आत्मा को जलाकर राख कर सकती है। जिन लोगों ने आग लगाई है सिर्फ़ वही लोग इस आग को बुझा सकते हैं।

देश के अंदर मौजूदा हिंसा को सही ठहराने के लिए अतीत में हुई हिंसा का उदाहरण देना बेकार है। और न ही आज के संदर्भ में इसका कोई अर्थ है। किसी भी तरीक़े की कट्टरवादी हिंसा महात्मा गाँधी के भारत पर एक बदनुमा दाग़ है। कुछ साल पहले तक भारत को दुनिया में एक ऐसे मुल्क के तौर पर जाना जाता था जहाँ उदारवादी, लोकतांत्रिक तरीक़े से भारतीय अर्थव्यवस्था प्रगति कर रही थी। जबकि आज उसकी पहचान एक ऐसे देश की हो गई है जो बहुसंख्यकवादी राज्य में तब्दील हो चुका है और उसकी अर्थव्यवस्था बदहाल हो गई है। ऐसा कुछ सालों में ही हुआ है।

ऐसे वक़्त में जबकि अर्थव्यवस्था असफल हो रही है, सामाजिक तनाव और अस्थिरता आर्थिक मंदी पर बुरा असर डालेंगे। अब यह बात मान ली गई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत निजी क्षेत्रों में नये निवेश के नहीं आने की वजह से हुई है। निवेशक, उद्योगपति और उद्यमी नये प्रोजेक्ट लेने से हिचकिचा रहे हैं और ख़तरा उठाने की उनकी क्षमती भी ख़त्म हो गई है। सामाजिक अस्थिरता और साम्प्रदायिक तनाव ने उनके डर को और ख़तरा उठाने की उनकी अक्षमता को और बढ़ा दिया है। आज सामाजिक सौहार्द और आर्थिक विकास की सबसे बड़ी ज़रूरत है। और यही आज ख़तरे में है।

हम कितना ही टैक्स की दरों में बदलाव करें, कॉरपोरेट जगत पर सहूलियतों की कितनी ही बरसात कर लें लेकिन भारतीय और विदेशी उद्योगपति तब तक निवेश नहीं करेंगे जब तक इस बात का ख़तरा बरकरार रहेगा कि कहीं किसी पड़ोस में अचानक हिंसा फूट पड़ेगी।

निवेश की कमी का मतलब है- रोज़गार और आय में कमी। इसका सीधा असर खपत और माँग पर पड़ता है। अर्थव्यवस्था में माँग की कमी का सीधा और विपरीत असर निजी निवेश पर पड़ता है। यही वह दुष्चक्र है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था फँस गई है।

स्वयं को दिए गए इन घावों पर कोरोना वायरस का संकट भी जुड़ गया है जिसकी शुरुआत चीन में हुई थी। अभी यह साफ़ नहीं है कि वैश्विक स्वास्थ्य संकट किस हद तक दुनिया में फैलेगा और क्या असर डालेगा। लेकिन यह बात साफ़ है कि हमें इससे लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना होगा। किसी भी राष्ट्र के लिए स्वास्थ्य संकट से बड़ा कोई दूसरा ख़तरा नहीं हो सकता। हम सब लोगों को मिलकर इस ख़तरे का सामना करना होगा। हमने अभी तक इतना बड़ा स्वास्थ्य संकट नहीं झेला है, इसलिए फौरन इस संकट से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

भारत के लिए सीख

पूरी दुनिया में इस संकट से निपटने के लिए तैयारियाँ हो रही हैं। चीन ने अपने बड़े शहरों और सार्वजनिक स्थानों को एक तरीक़े से काट दिया है। इटली ने स्कूल बंद कर दिए हैं। अमेरिका ने कोरोना वायरस से प्रभावित लोगों को अलग-थलग करने का काम शुरू कर दिया है। साथ ही इस रोग का निदान पाने के लिए शोध कार्य भी शुरू कर दिए हैं। दूसरे देश भी इस समस्या से निपटने में जुट गए हैं। भारत को भी शीघ्र इस दिशा में जुटना चाहिए और एक ऐसी टीम बनानी चाहिए जो सिर्फ़ इस मसले के हल में जुटे। हम दूसरे देशों से भी कुछ नये उपाए और निदान सीख सकते हैं। 

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कोरोना वायरस का असर

यह वायरस हमारी भौगोलिक सीमा में कितने बड़े स्तर पर असर डालता है यह साफ़ नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि कोरोना वायरस का हमारी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा। वर्ल्ड बैंक और ऑर्गेनाइजेशन फ़ॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन डवलपमेंट जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में ज़बरदस्त मंदी के संकेत दे दिए हैं। इस तरह की रिपोर्ट सामने आ रही है कि चीन की अर्थव्यवस्था सिकुड़ सकती है। अगर ऐसा होता है तो 1970 में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के बाद यह पहला मौक़ा होगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन की भागीदारी लगभग 20 फ़ीसदी के आसपास है। जबकि भारत के विदेशी व्यापार का 10वाँ हिस्सा चीन के साथ है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में की गई ये भविष्यवाणियाँ बेहद चिंताजनक है। निसंदेह इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। भारत में कुल औपचारिक रोज़गार का तीन-चौथाई हिस्सा लघु और मध्यम श्रेणी के उद्योगों से आता है और यह हिस्सा वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। ऐसे में कोरोना वायरस की वजह से भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर आधे से एक फ़ीसदी तक का असर पड़ सकता है, यदि अर्थव्यवस्था के बाक़ी इंडिकेटरों में ज़्यादा फर्क नहीं पड़े। ग़ौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर पहले से ही नाज़ुक हालत में है और यह बाहरी झटका ज़्यादा नुक़सानदेह साबित होगा।

मेरी राय में सरकार को फौरन तीन क़दम उठाने चाहिए। 

  • पहला, सरकार को अपनी पूरी ताक़त और ऊर्जा कोरोना वायरस के संकट से निपटने में लगा देनी चाहिए।
  • दूसरा, फौरन नागरिकता क़ानून को वापस लेना चाहिए, विषाक्त सामाजिक वातावरण को ख़त्म करना चाहिए और राष्ट्रीय एकता की भावना से आगे बढ़ना चाहिए।
  • तीसरा, भारतीय अर्थव्यवस्था में खपत और माँग को बढ़ाने के लिए वित्तीय मदद दी जानी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में नयी जान आ सके।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपने उठाए गए क़दमों से देश को यह भरोसा दिलाना चाहिए कि वह मौजूदा संकट से पूरी तरह से वाकिफ हैं और इस संकट से निपटने के लिए पूरी तरीक़े से तैयार हैं।

उन्हें फौरन कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए एक विस्तृत योजना देश के सामने रखनी चाहिए।

गहरे संकट का समय एक बड़ा अवसर भी हो सकता है। मुझे 1991 की याद आती है जब भारत और विश्व गहरे आर्थिक संकट से रूबरू थे। भारत भुगतान संतुलन के संकट में फँसा था और दुनिया खाड़ी युद्ध के बाद तेल के दामों में बढ़ोतरी की वजह से आयी वैश्विक मंदी से जूझ रहा था। लेकिन हमने इस संकट को अवसर में बदल दिया और बड़े आर्थिक सुधार कर देश की अर्थव्यवस्था में नयी जान फूँक दी। इसी तरह से कोरोना वायरस का रोग और सुस्त पड़ती चीन की अर्थव्यवस्था भारत के लिए नये अवसर के द्वार खोल सकते हैं अगर भारत दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों का आगाज करता है। अगर वह ऐसा करने में सक्षम हुआ तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में वह एक बड़ा किरदार निभा सकता है और लाखों-करोड़ों भारतीयों की ज़िंदगी में सुधार ला सकता है। यह हासिल करने के लिए हमें सबसे पहले विभाजनकारी विचारधारा, तुच्छ राजनीति और सांस्थानिक गरिमा की अवमानना से ऊपर उठना होगा।

विचार से ख़ास

मौजूदा संकट को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरा विश्वास है कि यह पवित्र कर्तव्य है कि भारत की जनता को सच बताया जाए। और सच यह है कि मौजूदा संकट गहरा और चिंताजनक है। जिस भारत को हम जानते हैं और जिस पर हमें गर्व है वह हमारे हाथों से तेज़ी से फिसलता जा रहा है। जानबूझकर भड़काए गए साम्प्रदायिक तनाव, आर्थिक कुप्रबंधन और बाहरी स्वास्थ्य संकट भारत की प्रगति व वैश्विक मंच पर उसकी हैसियत को कम करता जा रहे हैं। 

एक राष्ट्र के तौर पर मौजूदा ख़तरे की गंभीरता से दो-चार होने का यही वक़्त है और पूरी ताक़त के साथ हमें इसका सामना करना चाहिए।

साभार: द हिंदू
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मनमोहन सिंह

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