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किसान आन्दोलन पर दुनिया में इतनी बेचैनी क्यों है? 

खेती, किसानी, पशुपालन और इससे जुड़े लोगों के जीवन वाले सवालों पर आज के हमारे किसान आन्दोलन जैसा या जितना बड़ा आन्दोलन कहीं नहीं हुआ है। और यह भी पूरी अर्थव्यवस्था में खेती- किसानी के सवाल पर न होकर सरकार द्वारा हड़बड़ी में बनाए ऐसे तीन खेती क़ानूनों को लेकर खड़ा हुआ है जो किसान और पशुपालकों को कॉरपोरेट सेक्टर और बाज़ार का दास बना देंगे और अभी की ढीली-ढाली सुरक्षा छतरी को तार- तार कर देंगे।
अरविंद मोहन

दिल्ली आने वाली मुख्य सड़कों के बार्डर पर महीनों से बैठे किसानों का दुख- दर्द महसूस करने की जगह उन्हें नासमझ, बहका हुआ, देशद्रोही, खालिस्तान समर्थक, मौज मजे के लिए पिकनिक मनाने वाले जैसे तमगों से नवाजने की कोशिश के बाद सरकार जिस तरह से दमन की तैयारी कर रही है, वह अब दुनिया भर को चुभने के साथ ख़ुद उसे भी परेशान करने लगा है।

इसलिए वह गायिका रियाना (रिहाना) समेत कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियों के किसान समर्थन को अंतरराष्ट्रीय साज़िश का रंग देने की कोशिश से पीछे नहीं हट रही है। पर आम नागरिकों के विरोध के अधिकार का मजाक उड़ाने और शासन तथा आम किसान के बीच आठ-आठ लेयर की बाधा खड़ी करके वह एक अपूर्व काम कर रही है। 

अभी तक दिल्ली की ऐसी किलेबन्दी कभी नहीं हुई थी, पता नहीं सोवियत शासन के दौर में कभी मास्को को भी आम लोगों से इस तरह दूर रखा गया हो। सरकार यही सन्देश दे रही है कि किसान नागरिक अधिकारों से विहीन नागरिक बनते जा रहे हैं। उनके बारे में बिना चर्चा कानून बनाने से लेकर उनको इस स्थिति में लाने तक यही चल रहा है। 

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विदेशी समर्थन का मतलब?

ऐसे में इस खास स्थिति को लेकर अपने देश के भी काफ़ी ग़ैर- राजनैतिक लोगों और ख़ुद किसानों में समर्थन बढ़ना भी भरोसा जगाने वाला पहलू है। और विदेशी समर्थन भी मतलब का लगता है। उसमें कुछ बयानों और गतिविधियों के पीछे भारत विरोधी तत्व हो सकते हैं, लेकिन दुनिया भर की दिलचस्पी और सहानुभूति को सिर्फ इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता। 

पता नहीं मोदी सरकार को अन्दाजा है या नहीं कि मौजूदा किसान आन्दोलन कितना खास है।

खास होने के चलते आज भारत के किसानों और विपक्ष समेत सारे मुल्क का ध्यान तो उस पर लगा ही ही, दुनिया का ध्यान भी उस पर है। असल में भूमंडलीकरण के बाद की अर्थव्यवस्था में खेती, किसानी और किसानों का सवाल ज़्यादा ही महत्व का हो गया है।

अतीत में किसानों का उग्र विरोध

उरुग्वे दौर की बातचीत तथा डंकल प्रस्ताव वाले दौर तक यूरोप और लैटिन अमेरिका के किसानों का भी उग्र विरोध दिख रहा था। लेकिन वह सिर्फ खेती और पशुपालन से सब्सिडी हटाने या कम करने जैसे सवालों पर ही केन्द्रित था, जिसका समाधान विश्व व्यापार संगठन बनाने के क्रम में काफी हद तक लिया गया। थोड़ा मसला बीज पर पारम्परिक अधिकारों और पेटेंट का था, वह दब सा गया। 

खेती, किसानी, पशुपालन और इससे जुड़े लोगों के जीवन वाले सवालों पर आज के हमारे किसान आन्दोलन जैसा या जितना बड़ा आन्दोलन कहीं नहीं हुआ है। और यह भी पूरी अर्थव्यस्था में खेती- किसानी के सवाल पर न होकर सरकार द्वारा हड़बड़ी में बनाए ऐसे तीन खेती क़ानूनों को लेकर खड़ा हुआ है जो किसान और पशुपालकों को कॉरपोरेट सेक्टर और बाज़ार का दास बना देंगे और अभी की ढीली- ढाली सुरक्षा छतरी को तार- तार कर देंगे। 

असल में विश्व व्यापार संगठन ही नहीं, ब्रेटनवुड संस्थाओं से निकले आर्थिक दर्शन में किसानों और पशुपालकों की कोई चिंता नहीं दिखती और यह पश्चिमी विकास के मॉडल (जिसे गांधी 'शैतानी सभ्यता' कहा करते थे) का एक स्वाभाविक विकास है।

किसानों की चिंता किसे?

इसमें सिर्फ इस बात की चिंता है कि दुनिया में खेती और पशुपालन पर जो पौने चार अरब लोग निर्भर हैं उस काम को मात्र 75 करोड़ लोग कर सकते हैं। और जब ऐसा हो जाएगा तब बाकी के तीन अरब लोग कहाँ जाएंगे, इसकी चिंता आज के अर्थशास्त्रियों ने ही नहीं तथाकथित ग्लोबल नेताओं ने भी छोड़ दी है। वे महामारियों और अकाल से मरेंगे या समुद्र में डुबाए जाएंगे या दिल्ली के बार्डर पर हलाल किए जाएंगे, इसकी परवाह किसी को नहीं है। 

असल में भूमंडलीकरण खेती- किसानी पशुपालन से जुड़े उन चार मॉडलों का ही विस्तार या नया मॉडल है जो पिछले तीन सौ साल से दुनिया में दिखे हैं। पर हम जानते हैं कि न तो दुनिया तीन सौ साल पुरानी है न खेती और पशुपालन का धन्धा। और विकास के इन चारों मॉडलों का आधार खेती और किसानी का नाश करके ही खड़ा हुआ है।

farmers protest against farm laws disturbs world - Satya Hindi

खेती-किसानी के मॉडल

यूरोप का विकास पशुपालकों और खेतिहरों के सरप्लस को हड़पकर और झटककर हुआ है। यही मॉडल अमेरिका का भी रहा। पर जब सोवियत क्रांति हुई तो यूरोप के अन्य देशों की तुलना में ज़्यादा खेती और किसानी वाला देश होने के चलते यह प्रयोग हुआ कि छोटे सोवियत-सहकारी इकाइयाँ बनाकर काम किया जाए। पर हमने देखा कि स्टालिन के राज में किस तरह करोड़ों किसानों का क़त्लेआम करके विकास का वह मॉडल खड़ा किया गया। 

चीनी समाज तो हमारी तरह का था और वहाँ की कम्युनिष्ट क्रांति काफी समय तक खेती- किसानी के बारे में रूस से अलग नज़रिया रखती थी। लेकिन अंतत: उसने भी गाँवों और खेती को दबाया और कम्युनिष्ट शासन होने से आज तक विरोध भी नही हो पाया। 

चौथा मॉडल जापान का है जो मोटी सब्सिडी देकर खेती पशुपालन को चलाने और दूसरी चीजों पर विकास करने का है। और सब्सिडी देकर खेती- किसानी चलवाने का उसका प्रयोग दुनिया भर में कम ज्यादा चल रहा है। विश्व व्यापार संगठन उस पर भी रोक चाहता था लेकिन समय और सब्सिडी की सीमा के साथ उसे चलने दे रहा है।

इस लिहाज़ से हमारा यह किसान आन्दोलन बहुत बुनियादी चरित्र का, और बड़ा है। दुनिया के किसी और देश में आज न इतनी आबादी खेती और पशुपालन पर निर्भर है और न वहाँ लोकतांत्रिक शासन है, जिसमें विरोध करने की सुविधा हो।

क्या कर रही है सरकार?

अब भले मोदी सरकार शासन और शासितों के बीच खाई खोद रही हो और किसी बहाने किसानों पर जुर्म थोपने का रास्ता तलाश रही हो, किसानों का आंदोलन अभी तक मोटे रूप से शांतिपूर्ण और नेताओं के नियंत्रण में है। 

किसानों को भी तीन क़ानूनों के रास्ते में आने वाले ख़तरों के साथ सरकार की मंशा का साफ़ पता है। साथ ही उन्हें अपनी ताक़त और लोकतंत्र की ताक़त का भी एहसास है। और अभी तक मिले दुख-दर्द के आगे भविष्य की मुश्किलों का अन्दाजा भी है, इसलिए वे पूरे प्राण- प्रण से लगे हैं।

और दुनिया में विविधता, टिकाऊ आर्थिक तथा विकेन्द्रित विकास के लिये खेती और किसानी से लगाव रखने वालों की सहानुभूति भी उनके साथ है। ऐसे में अगर रियाना और ग्रेटा थनबर्ग ही नहीं कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी समेत दुनिया भर से जो समर्थन आ रहा है, उसे सिर्फ़ षडयंत्र मानना बन्द करके किसानों की मांगों पर जल्दी और गम्भीरता से विचार होना चाहिए।

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