टूटती वर्जनाओं का त्योहार
होली प्रेम की वह रसधारा है, जिसमें समाज भींगता है। ऐसा उत्सव है, जो हमारे भीतर के कलुष को धोता है। होली में राग, रंग, हँसी, ठिठोली, लय, चुहल, आनंद और मस्ती है।इस त्योहार से सामाजिक विषमताएँ टूटती हैं, वर्जनाओं से मुक्ति का अहसास होता है, जहाँ न कोई बड़ा है, न छोटा; न स्त्री न पुरुष; न बैरी, न शत्रु। इस पर्व में व्यक्ति और समाज राग और द्वेष भुलाकर एकाकार होते हैं।
बनारस की होली
मैं बनारसी हूँ। बनारस प्रतिपल उत्सव में जीता है। बेफ्रिकी उसका स्थायी स्वभाव है। इसलिए उत्सव प्रियता मेरी रगों में दौड़ती है। नीत्शे कह गए हैं, 'बीमार परम्पराएँ उदास समाज बनाती हैं'। सो होलियाना मस्ती को बनारसियों ने अपना जीवन दर्शन मान लिया। इसलिए बनारसी पूरे साल होली की मस्ती में रहता है। यही उमंग उसका जीवन सूत्र है।दुनिया भर में होली को मनाते हैं पर बनारस में होली को पहनते है, ओढ़ते हैं, बिछाते हैं। उसे जीते हैं। फागुन भी आनंद के रामानन्द की तलाश में कबीर बनकर बनारस के घाट की सीढ़ियों पर लेट जाता है।
श्मशान में होली!
रंगभरी एकादशी से बाबा विश्वनाथ होली खेलना शुरु करते हैं। और दूसरे रोज़ वह महाश्मशान पर भूत-पिशाच, दृश्य-अदृश्य लोगों के साथ होली खेलते हैं। अमरत्व के उद्घोष के साथ। तभी तो ‘होली खेलत नंदलाल बिरज में’ कृष्ण रंगीले वृन्दावन में गोपिकाओं के साथ होली खेलते हैं। रघुवीरा अवध में साथियों के साथ होली के उमंग में हैं ‘होली खेले रघुवीरा अवध में।’शिव मसाने (श्मशान) में होली खेलते हैं। भूत-पिशाच के साथ चिता भस्म वाली तभी तो यहां गाते हैं, ‘खेले मसाने में होली दिगम्बर खेले मसाने में होली, भूत पिशाच बटोरी दिगम्बर, खेले मसाने में होली’ काशी राग की नहीं विराग की नगरी है।
मदनोत्सव
इस देश में पर्वों के महत्त्व को समझने का मतलब ऋतु परिवर्तन के महत्त्व को समझना है। बसंत के स्वभाव और प्रकृति के हिसाब से उसका असली त्योहार होली ही है। हमारे ऋतुचक्र में शरद और बसंत यही दो उत्सवप्रिय ऋतुएं हैं। बसंत में चुहल है, राग है, रंग है, मस्ती है। शरद में गांभीर्य है। परिपक्वता है। बसंत अल्हड़ है।होली यानी ‘वसंतोत्सव’ में काम की पूजा होती है, जबकि शरद में राम की पूजा होती है। बसंत बेपरदा है। सबके लिए खुला है। लूट सके तो लूट। कवि पद्माकर कहते हैं-
'कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में, क्यारिन में, कलिन में, कलीन किलकंत है। बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में, बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है।'
काम का पुत्र बसंत
बसंत में ऊष्मा है, तरंग है, उद्दीपन है, संकोच नहीं है। तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं। बसंत काम का पुत्र है, सखा भी। इसे ऋतुओं का राजा मानते हैं। इसलिए गीता में कृष्ण कहते हैं-‘ऋतूनां कुसुमाकर’ अर्थात् ऋतुओं में मैं बसंत हूं।प्रकृति की होली
बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की। होली समाज की उदासी दूर करती है। होली पुराने साल की विदाई और नए साल के आने का भी उत्सव है। यह मलिनताओं के दहन का दिन है। अपनी झूठी शान, अहंकार और श्रेष्ठता बोध को समाज के सामने प्रवाहित करने का मौका है। तमस को जलाने का अनुष्ठान है। वैमनस्य को खाक करने का अवसर है।मेरे पड़ोसी ज्यादातर यादव और मुसलमान थे, पर होली के होलियारे में संप्रदाय कभी आड़े नहीं आता था। सब साथ-साथ इस हुड़दंग में शामिल होते। अनवर भाई भी वैसे ही फाग खेलते जैसे पंडित अमरनाथ।
राग और रंग
हमारे साहित्य और संगीत होली वर्णन से पटे पड़े हैं। उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस पर साहित्य में सर्वाधिक लिखा गया है। पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’ रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का जिक्र है। राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं।तो ब्रज भाषा के ताक़तवर कवि पद्माकर कहते है-
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी॥
नवाबों की होली
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया, जिसमें अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बाँटने का विधान है। मनु का जन्म भी इसी रोज़ हुआ था। अकबर और जोधाबाई तथा शाहजहाँ और नूरजहाँ के बीच भी होली खेलने का वृत्तांत मिलता है। यह सिलसिला अवध के नबावों तक चला। वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे।टेसू की जगह गोबर की होली
बौद्ध साहित्य के मुताबिक एक दफा श्रावस्ती में होली का ऐसा हुड़दंग था कि गौतम बुद्ध सात रोज़ तक शहर में न जा बाहर ही बैठे रहे। परंपरागत होली टेसू के उबले पानी से होती थी। सुगंध से भरे लाल और पीले रंग बनते थे। अब इसकी जगह गोबर और कीचड़ ने ले ली है।हम कहाँ से चले थे, कहाँ पहुँच गए? सिर चकरानेवाले कैमिकल से बने गुलाल, चमड़ी जलानेवाले रंग, आंख फोड़नेवाले पेंट, इनसे बनी है आज की होली।
अस्सी की होली
बनारस में अस्सी पर होने वाला कवि सम्मेलन तो बनारसी होली की पहचान बन गया था। इसमें राजनेताओं की मौजूदगी में उन्हें डंडा करती कविताएं पढ़ी जाती थीं। इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौज वाले सम्मेलनों ने ले ली है। जहाँ सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है। हालांकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लांघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं।होली सिर्फ उच्द्दृंखलता का उत्सव नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देती है। यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का त्योहार है।
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