कौन थी राधा?
कौन थी राधा? कृष्ण के बाहर थी, या भीतर थी? राधा भी तो कृष्ण की सबसे प्रिय गोपी थी। फिर कृष्ण को चुपके से दबोचने वाली गोपियाँ कौन थीं? कौन थीं वे जो कृष्ण से होली पर बरजोरी कर अपने हिस्से का रास रचा लेती थीं? साल भर मक्खन खिलाने का बदला होली के दिन लेती थीं। होली की मादकता ऐसी कि, हर छूट ले लो। चाहे ईश्वर हो या मनुष्य। लोकगीतो में भी इसी तरह की छूट की कल्पना की गई है- ‘भर फागुन बुढ़वा देवर लागे…’राधा समूह से अलग हैं। उनका पौराणिक आख्यानों में भी जिक्र कम है। सिर्फ ‘पद्म पुराण’ और ‘ब्रम्ह वैवर्त पुराण’ में बरसाने की ‘लाडलीजी’ का जिक्र मिलता है।
होली के रंग कहाँ से उड़े?
राधा पुराणों से ज्यादा लोक मानस में बसा करती हैं। बड़े उपनिषदो में तो राधा-कृष्ण की होली के प्रसंग तो नहीं ही हैं, छोटे-छोटे उपनिषदो में भी जिक्र नहीं है। उनमें फाल्गुन तक का वर्णन नहीं है। फिर ये होली के रंग कहां से उड़े या उड़ाए गए?मिथक है राधा?
साहित्य तो मिथक और इतिहास दोनों रचता है। दोनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ सकता है या कुछ नया गढ़ सकता है। कालांतर में उसकी गढ़ी गई छवियाँ इतनी रूढ़ हो जाती हैं, इतनी लोकप्रिय कि समय भी उसे अपने सत्य की तरह स्वीकार लेता है।भक्त कवियों ने होली को लेकर इतने मधुर भाव से सोचा कि सचमुच की राधा कृष्ण से होली खेलन आई। अब अगर बृज में होली खेलेंगे नंदलाल तो उनके साथ उनकी राधा तो अनिवार्य हैं न!
राधा के बहाने श्रृंगार
रीतिकालीन और भक्तिकालीन कवियों का सबसे प्रिय विषय होली और फाल्गुन रहे हैं। इसके बहाने राधा-कृष्ण की जोड़ी की काव्यात्मक स्थापना हुई। यहाँ ध्यान दिलाना ज़रूरी कि पद्माकर की कविता में कृष्ण और गोपियों के बीच ज़बरदस्त होली का प्रसंग है।फाग के अभीरन में
‘गहि गोविंदै लै गई,
भीतर गोरी भाई करी मन की,
पदमाकर ऊपर नाई,
अबीर की झोरी छीन,
पितांबर कम्मर ते सु बिदा दई,
मीड़ कपालन रोरी नैन नचाय, कही मुसकाय,
लला फिरी अइयों खेलन होरी।
यहाँ राधा नहीं, सामान्य गोपी की शरारत का जिक्र है, जो कृष्ण को ज़बरन पकड़ कर अंदर ले जाती है, उनके संग अपने मन की करती है, उनके ऊपर अबीर की झोली उझिल देती है, पीतांबर छीन कर उन्हे विदा कर देती हैं।
रसखान की राधा
रसखान लिखते हैं- ‘फागुन लाग्यो जब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है,नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है’ एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है कि जबसे फाल्गुन आया है, ब्रजमंडल में धूम मची है, सुबह शाम कृष्ण आनंद मग्न होकर रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि, इस माह में कौन-सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा, संकोच और मान का त्याग नहीं किया है।कृष्ण की पुकार है, होली का बहाना है, बनी ठनी गोपियाँ पुकार सुन कर निकल पड़ी हैं और होली के बहाने कृष्ण को रिझाने की , उनसे मनमानी करने की पूरी छूट मिल गई है उन्हें।
उनके पद का अंश है-
‘हरि संग खेलति सब फाग
इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर को अनुराग
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढ़ी, सुनि माधो के बैन’
यहाँ भी राधा का जिक्र नहीं है।
मतिराम के यहाँ भी गोपियों के होली खेलने का जिक्र है। होली पर कृष्ण ने अबीर फेंका, एक गोपी की आँख में पड़ा-
‘कधि गो अबीर पै अहिरन तो कढ़ैय नहीं…’
फाल्गुन है, गोप और गोपियाँ हैं, रंग है, अबीर है, रंगीन धूल हैं, मादक और शोख हवाएं हैं, शरारतें हैं, छोड़-छाड़ है, चुहल है, रास है, हास है, परिहास है,
राधा कहाँ है? राधा एकल है, गोपियाँ समूह हैं। होली सामूहिक रास का त्योहार है। त्योहारों की एकल पद्धति पर सामूहिकता की जीत है। इसीलिए सबसे अलग और ख़ास है। समूह में गान बसा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि
‘राधिका तो कन्हाई को सुमिरन को बहानो है’
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