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सरकार ने तैयारी की होती तो इतने बुरे हाल नहीं होते! 

सारे देश में कोरोना से मौत पर कोहराम मचा हुआ है। महामारी काबू में नहीं आ रही है। लोग कीड़े- मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहे और श्मशानों में चिताएँ उपलब्ध नही हैं। मौतों के असली आँकड़े छिपाए जा रहे हैं।

डॉक्टर कोरोना के नकली टीके बेचते पकड़े जा रहे हैं और मेडिकल कॉलेज के लॉकर से इंजेक्शन चोरी हो रहे हैं। तिपहिया वाहनों में ऑक्सीजन सिलिंडर लगाए मरीज़ भटक रहे हैं। जब मंत्रियों से लेकर राज्यपालों को एक- एक बिस्तर के लिए जुगाड़ या सिफ़ारिशों का सहारा लेना पड़ रहा हो तो स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।

यह ठीक है कि ऐसी हालत पहले कभी नहीं बनी, इसलिए सरकारी तंत्र तैयार नहीं था। मगर बड़ी से बड़ी तैयारियों के लिए भी एक साल बहुत होता है।
अगर मध्य प्रदेश में सरकार गिराने के लिए ताक़त झोंकी जा सकती है, पाँच प्रदेशों में चुनाव कराए जा सकते हैं और हरिद्वार में कुंभ का आयोजन हो सकता है तो कोरोना से लड़ने के लिए वह संकल्प और ज़िद क्यों नहीं दिखाई दी?

संवैधानिक प्रावधान

रैलियों में भारी भीड़ देखकर गदगद होते राजनेताओं का ध्यान इस पर नहीं गया कि जिन मतदाताओं को वहाँ लाया गया है, वे संक्रामक महामारी से सुरक्षित हैं या नहीं। यदि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव आवश्यक हैं तो संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा भी चुनी हुई सरकारों का क़ानूनी धर्म है।

हर जन प्रतिनिधि संविधान की शपथ लेकर ही पद संभालता है। लेकिन समूचे कोरोना काल में इस शपथ को हमने तार तार बिखरते देखा है।

केंद्र से लेकर प्रदेशों की सरकारें दबी ज़बान से मान रही हैं कि इस मामले में सिस्टम की नाक़ामी उजागर हुई है। यह सिस्टम छह- सात महीनों में कैसे धराशायी हुआ, इसका विश्लेषण करके समाधान करने पर अभी भी हुक़ूमतों का ध्यान नहीं है।

जीने का अधिकार 

क्या यह किसी को ध्यान दिलाने की ज़रूरत है कि हमारा संविधान भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ इस तरह लापरवाही करने की अनुमति किसी सरकार को नहीं देता। अनुच्छेद 21 सीधे सीधे हिन्दुस्तानी नागरिकों के जीवन का दायित्व सरकार पर डालता है।

इसमें हर व्यक्ति की स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करना सरकार का काम माना गया है। असल में यह अनुच्छेद मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के उस घोषणा पत्र को स्वीकार करते हुए जोड़ा गया था, जो 10 दिसंबर 1948 को जारी किया गया था।

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अनुच्छेद 47

यही नहीं, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी अनुच्छेद 47 का हवाले से कहा गया है कि लोगों के स्वास्थ्य सुधार को राज्य प्राथमिक कर्तव्य मानेगा।

पर हम देखते हैं कि शनैः शनैः राज्य ग्रामीण और अंदरूनी इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर बनाने से मुँह मोड़ते जा रहे हैं। केंद्र और राज्य स्तर पर चुनिंदा शहरों में एम्स या मेडिकल कॉलेज खोलकर दायित्व निभाया जा रहा है।

जिस तरह निजी क्षेत्र ने चिकित्सा में पाँव पसारे हैं, उससे सेवा का यह क्षेत्र एक बड़ी मंडी बनकर रह गया है। न्यायपालिका ने समय समय पर ज़िम्मेदारी निभाते हुए राज्यों और केंद्र को संवैधानिक बोध कराया है। पर उसका परिणाम कुछ ख़ास नहीं निकला। 

सुप्रीमकोर्ट ने 1984,1987 और 1992 के कुछ फ़ैसलों में यह कहा था कि स्वास्थ्य और चिकित्सा मौलिक अधिकार ही है। इसी प्रकार 1996 और 1997 में पंजाब और बंगाल के दो मामलों में इस सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि स्वास्थ्य सुविधाएं देना सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है।

मौलिक अधिकार

कोरोना काल में भी अनेक राज्यों के उच्च न्यायालय इस बात को पुरज़ोर समर्थन देते रहे हैं कि चुनी हुई सरकारें अपने नागरिकों के इस मौलिक अधिकार से बच नहीं सकतीं। पिछले बरस तेलंगाना हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि मेडिकल इमरजेंसी की नाम पर अवाम के मौलिक अधिकारों को कुचलने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।

अदालत ने इलाज़ के दायरे में प्राइवेट अस्पतालों को भी शामिल किया था। इस क्रम में बिहार उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को कोरोना से निपटने के लिए कोई कार्य योजना नहीं बनाने पर फटकार लगाईं थी। उसने कहा था कि यदि यह पाया गया कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें हुईं हैं तो न्यायालय अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करेगा।

हाई कोर्ट के एक आला अफ़सर की ऑक्सीजन की कमी से मौत की ख़बर पर उच्च न्यायालय ने अपना ग़ुस्सा प्रकट किया था। इस कड़ी में कुछ अन्य उच्च न्यायालयों ने भी राज्य सरकारों को आड़े हाथों लिया है।

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न्याय की गारंटी

क़रीब बारह वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वास्थ्य विधेयक के तीसरे अध्याय में मरीज़ों के लिए न्याय की गारंटी दी गई थी। उसके बाद 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक चार्टर स्वीकार किया था। इसमें मरीज़ों के लिए 17 अधिकार शामिल किए गए और कहा गया था कि अपने स्वास्थ्य और चिकित्सा का सारा रिकॉर्ड मरीज़ को देने के लिए अस्पताल बाध्य हैं। आपात स्थिति हो तो बिना पैसे के इलाज़ पाने का अधिकार भी पीड़ित को है। 

इतना ही नहीं, इस चार्टर के मुताबिक़ एक डॉक्टर के बाद दूसरे डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए भी बीमार को छूट दी गई है।

साथ ही यह भी कहा गया कि अस्पताल भुगतान या बिल की प्रक्रिया में देरी के चलते किसी बीमार को रोक नहीं सकता और न ही शव को देने से इनकार कर सकता है।

लेकिन विनम्रतापूर्वक मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि कोरोना काल में इस चार्टर की धज्जियाँ बार बार उड़ाई गईं।

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राजेश बादल

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