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क्या है इसलामी ख़िलाफ़त जिसकी स्थापना के लिए बना है इसलामिक स्टेट खुरासान?

आज की दुनिया में, जहाँ देशों की सर्वमान्य भौगोलिक सीमाएँ हैं, किसी देश का किसी अन्य देश पर क़ब्ज़ा कर लेना संभव ही नहीं है, तो ऐसे में पूरी दुनिया की बात तो छोड़िए, पूरी मुसलिम बिरादरी की बात भी छोड़िए, कुछ मुसलिम देशों को मिला कर आईएसआईएस मॉडल की किसी इसलामिक ख़िलाफ़त के अधीन लाना अब असंभव है।
प्रमोद मल्लिक

जिस इसलामिक स्टेट ख़ुरासान ने काबुल हवाई अड्डे पर आत्मघाती हमला कर लगभग पौने दो सौ लोगों को मौत के घाट उतार दिया, उसका असली उद्देश्य खुद को अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं से बाहर निकाल कर मध्य एशिया और भारत में इसलामी ख़िलाफ़त स्थापित करना है।

यह उसी आईएसआईएस (इसलामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ ऐंड सीरिया) का ही एक हिस्सा है, जो पूरी दुनिया में सुन्नत और शरीअत की चरमपंथी व्याख्या पर आधारित इसलामिक साम्राज्य स्थापित करने का इरादा लेकर चला था। इसलामिक स्टेट ख़ुरासान (आईएस-के) की योजना पहले अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, उसके बाद मध्य एशिया के देशों ताज़िकिस्तान, कज़ाख़स्तान, किर्गीस्तान, उज़बेकिस्तान व तुर्कमेनिस्तान में इसलामिक ख़िलाफ़त कायम करने की है।

मध्य एशिया के बाद इसलामिक स्टेट खुरासान के निशाने पर भारत जैसा विशाल देश है, जहाँ अभी भी बहुलतावाद और धर्मनिरपेक्षता बरक़रार है।

भारत में इसलामिक ख़िलाफ़त

भारत में इसलामिक ख़िलाफ़त की स्थापना भले ही एक असंभव कल्पना लगे, लेकिन काबुल में ही जिस तरह तुर्कमेनिस्तान के दूतावास पर हमले की कोशिश करनेवाले आईएस-के आतंकवादियों में 14 भारतीयों के भी शामिल होने की बात सामने आई, वह वाकई बड़ी चिंता की बात है। ये सभी भारतीय केरल के बताए जाते हैं।

इसलामिक स्टेट से किसी भारतीय के जुड़ने की यह पहली खबर नहीं है। केरल के ममल्लापुरम, कासरगोड और कन्नूर ज़िलों से पढ़े-लिखे लोगों के कई दल आईएसआईएस में शामिल होने के लिए इराक़, सीरिया और वहां से अफ़ग़ानिस्तान गए।

ख़ास ख़बरें

इतना ही नहीं, 2019 में श्रीलंका में ईस्टर के दिन चर्चों व होटलों पर हुए हमलों में भी केरल से गए इसलामिक स्टेट आतंकवादियों के नाम सामने आए थे।

इसलिए न तो इसलामिक स्टेट ख़ुरासान को हल्के में लिया जाना चाहिए, न ही भारत में ख़िलाफ़त की स्थापना की कल्पना को हंस कर उड़ा देना ठीक होगा।

ख़िलाफ़त क्या है?

लेकिन, सबसे पहले तो बात यह है कि यह ख़िलाफ़त क्या है।

ख़िलाफ़त अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है इसलामी क़ानून से चलने वाला राज्य, जिसका प्रमुख एक ख़लीफ़ा हो। 

ख़लीफ़ा ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो इसलाम की स्थापना करने वाले पैगंबर मुहम्मद का राजनीतिक व धार्मिक उत्तराधिकारी और उम्माह यानी पूरे मुसलिम जगत का नेता हो। उसे कुशल राजनेता के साथ ही इसलाम की अच्छी समझ भी होनी चाहिए। 

मध्य युग की ख़िलाफ़तें

मध्य युग में तीन बड़ी इसलामी ख़िलाफ़तें हुईं।
  1. अल ख़िलाफ़त-उल-राशिद, जिसे राशिदुन ख़िलाफ़त (632 से 661) के नाम से भी जाना जाता है। 
  2. अल ख़िलाफ़त-उल- उमव्विया या उम्मयद ख़िलाफ़त (661 से 750)। 
  3. अल ख़िलाफ़त-उल-अब्बासिया या अब्बासिद ख़िलाफ़त (750 से 1517) का दौर चला। 

राशिदुन ख़िलाफ़त

पैगंबर मुहम्मद का 632 में निधन होने के तुरन्त बाद राशिदुन ख़िलाफ़त की नींव पड़ी। इसमें चार ख़लीफ़ा हुए, जिन्हें अल ख़ुलफ़ा-उर-राशिदुन कहा जाता है, यानी जिन्हें 'सही मार्गदर्शन' मिला हो। इन्हें ही इसलाम के चार ख़लीफ़ा के रूप में जाना जाता है।

इनमें सबसे पहले ख़लीफ़ा अबू बक़र थे। उनके बाद दूसरे ख़लीफ़ा उमर इब्न अल ख़त्ताब हुए, तीसरे ख़लीफ़ा उसमान इब्न अफ़्फ़ान और चौथे ख़लीफ़ा अली इब्न अबी तालिब थे।

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सिसानिया के सिक्के पर लिखा हुआ 'बिस्मिल्लाह'।iraniantours.com

यह पूरा दौर तमाम तरह के राजनीतिक झंझावातों, आंतरिक संघर्षों, युद्धों, विद्रोह और गृह युद्ध का दौर रहा। तीसरे ख़लीफ़ा उसमान को तो बग़ावत का सामना भी करना पड़ा, जिसमें उनकी हत्या हो गई।

चौथे ख़लीफ़ा अली पैग़म्बर मुहम्मद के रिश्ते में भाई भी थे और दामाद भी। उनके समर्थक उन्हें ही पैग़म्बर मुहम्मद का असली उत्तराधिकारी मानते थे और इस हिसाब से उन्हें लगता था कि अली को ही पहला ख़लीफ़ा बनाया जाना चाहिए था।

विवाद के चलते उस समय के इसलामी समाज में अली समर्थकों का एक अलग धड़ा उभरा और यही विभाजन आगे चल कर शिया-सुन्नी के रूप में सामने आया। अली समर्थक वर्ग शिया कहलाया।

उम्मयद ख़िलाफ़त

अली की हत्या के कुछ महीनों बाद माविया प्रथम ने 661 में अपनी ख़िलाफ़त का एलान कर दिया। इसे ही दूसरी ख़िलाफ़त यानी उमव्विया या उम्मयद ख़िलाफ़त के नाम से जाना जाता है, जिसका दौर 750 तक चला। 

उमव्विया ख़िलाफ़त के दौर में बहुत-से युद्धों में जीत के फलस्वरूप इसलाम का प्रसार अरब जगत के बाहर एशिया, यूरोप, अफ़्रीक़ा के कई इलाक़ों से ले कर सिंध तक हुआ। 

उमव्विया ख़िलाफ़त के मुहम्मद बिन क़ासिम ने 711 में सिंध के राजा दाहिर को अरोर के युद्ध में पराजित किया। यह जगह आज के पाकिस्तान स्थित नवाबशाह में है।

इसलाम का प्रसार

लेकिन ग़ैर-अरब इलाक़ों में इसलाम के विस्तार ने एक नई राजनीतिक समस्या को जन्म दिया। उमव्विया ख़िलाफ़त के दौरान जिन इलाक़ों में इसलाम फैला, उनमें काकेशस (यानी आज आर्मेनिया, अज़रबैजान, समेत दक्षिण रूस के कुछ इलाक़े), ट्रांसऑक्सियाना ( मौजूदा उज़बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, दक्षिण कज़ाकस्तान, दक्षिणी किरगिस्तान आदि) और मग़रिब ( मौजूदा अल्जीरिया, लीबिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया आदि) के इलाक़े शामिल थे। 
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उम्मयद ख़िलाफ़त के समय का सिक्का।

अब्बासिद ख़िलाफ़त

अब्बासिया कुल, दरअसल, पैग़म्बर मुहम्मद के चाचा अब्बास इब्न अब्दुल मुतालिब का वंशज था। लड़ाई वही थी कि पैग़म्बर का उत्तराधिकारी कौन है। अब्बासिया वंश ने उमव्विया ख़िलाफ़त के आचरण और शासन पर गंभीर सवाल उठाए और ग़ैर-अरब मुसलिमों को अपने साथ जोड़ा, जिन्हें उमव्विया ख़िलाफ़त के दौर में थोड़ा निचले दर्जे का मुसलमान माना जाता था।

अब्बासियों ने मुहिम शुरू की कि मुसलमानों के साम्राज्य की सत्ता पैग़म्बर मुहम्मद के वंश के लोगों को ही वापस मिलनी चाहिए।
अब्बासिया ख़लीफ़ा अल मंसूर ने 762 में बग़दाद को अपनी राजधानी बनाई, जो अरब के बजाय फ़ारस में था, ताकि ग़ैर-अरब मुसलिमों का समर्थन बना रहे। 
इस ख़िलाफ़त के दौर में संस्कृति, कला, वाणिज्य, विज्ञान व दूसरे मामलों में बहुत ही विकास हुआ। इसे मुसलिम शासन का स्वर्ण युग भी कहा जाता है।

लेकिन समय बीतने के साथ धीरे-धीरे अब्बासिया ख़िलाफ़त का पतन होने लगा। मंगोलों ने 1258 में बग़दाद पर हमला कर ख़लीफ़ा को परास्त कर दिया। इसके साथ ही तीसरी ख़िलाफ़त का अंत हो गया। 

बग़दाद पर मंगोलों की जीत के बाद मिस्र के मामलुक शासकों ने 1261 में काहिरा को अपनी राजधानी बनाई और अपने शासन को स्वीकार्य बनाने के लिए मिस्र में अब्बासिया ख़िलाफ़त को पुनर्स्थापित किया। लेकिन बदले हालात में शासन व्यवस्था पर ख़लीफ़ा का ज़ोर नहीं था, बल्कि वह धार्मिक मामलों तक ही सीमित हो गया था।

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अब्बासिद काल में बनी समारा की जामा मसजिद

फ़ातिमी ख़िलाफ़त 

उधर, उससे पहले ट्यूनीशिया में 909 में इस्माइली शिया मुसलमानों ने अपनी फ़ातिमी ख़िलाफ़त स्थापित की और बाद में मिस्र को ही अपनी ख़िलाफ़त का केंद्र बनाया। फ़ातिमी अपने को पैग़म्बर मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा और उनके पति अली इब्न अबी तालिब का वंशज मानते थे।

बहरहाल, अपने उत्थान काल में फ़ातिमी ख़िलाफ़त का प्रभाव सूडान, सीरिया, लेबनान समेत मग़रिब के कुछ इलाक़ों तक रहा और 1171 में कुर्द मुसलिम सलाहउद्दीन के आक्रमण के फलस्वरूप फ़ातिमी ख़िलाफ़त ख़त्म हो गई।

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फ़ातिमी ख़िलाफ़त के समय बनी अल हक़ीमी मसजिदislamiwiki

ऑटोमन ख़िलाफ़त

इसके बाद अलग-अलग अंतराल पर अलग-अलग इलाक़ों में कई ख़िलाफ़तें आई और गईं, लेकिन मध्य युग के आख़िरी दौर और आधुनिक समय के शुरू की सदी में ऑटोमन ख़िलाफ़त या ख़िलाफ़त-ए-मक़ामी काफ़ी लंबे समय यानी लगभग चार सौ सालों तक चली।

वैसे तो ऑटोमन सुल्तान मुराद प्रथम (1362-1389) ने मामलुक सल्तनत के तहत चल रही अब्बासिया ख़िलाफ़त को मानने से इनकार कर एक तरह से ख़िलाफ़त पर अपना दावा पेश कर दिया था, लेकिन 1517 में मामलुक मिस्र पर सुल्तान सलीम की जीत के बाद मामलुक सल्तनत के तहत घोषित ख़लीफ़ा अल मुतवक्किल तृतीय को गिरफ़्तार कर क़ुस्तुनतुनिया (वर्तमान इस्ताम्बुल) लाया गया तो उन्होंने ख़लीफ़ा के अपने प्रतीक चिह्न अपने विजेताओं को सौंप दिये।

सुल्तान सलीम को पवित्र शहरों मक्का और मदीना के रक्षक की पदवी मिली। इसे ऑटोमन ख़िलाफ़त या ख़िलाफ़त-ए-मक़ामी माना जाने लगा, हालाँकि ऑटोमन सुल्तानों ने बहुत वर्षों तक अपने आप को विधिवत ख़लीफ़ा घोषित नहीं किया था।

उन्होंने यह घोषणा 1774 में तब की, जब रूसी साम्राज्य ने स्वयं को ऑटोमन साम्राज्य में रह रहे ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों का संरक्षक घोषित किया। बहरहाल, यह ऑटोमन ख़िलाफ़त 1924 तक चली। 

ख़िलाफ़त का अंत

प्रथम विश्व युद्ध के अंत में 1919 में वर्सेल्ज़ की संधि के तहत ऑटोमन साम्राज्य को दो भागों में बाँट दिया गया। एक हिस्सा ग्रीस तो दूसरा तुर्की को मिला। तुर्की के नए राष्ट्रपति मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने 1924 में ख़िलाफ़त को समाप्त कर अपने देश को गणराज्य घोषित कर दिया।

इस तरह दुनिया में ख़िलाफ़त व्यवस्था का अंत हो गया। लेकिन इसलामी जगत में ख़िलाफ़त का विचार कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में गाहे-बगाहे सिर उठाता ही रहता है। इसके दो कारण हैं।

ख़िलाफ़त का विचार जिंदा क्यों?

पहला कारण तो दुनिया की 1.9 अरब से ज़्यादा की इसलामी आबादी या 'उम्माह' पर राज करने की महत्त्वाकांक्षा ही है। ईसाई धर्म (लगभग 2.38 अरब) के बाद इसलाम दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है, और दुनिया का बहुत बड़ा भूभाग मुसलिम बहुल आबादी वाला है।

कोई व्यक्ति या संगठन इतनी बड़ी आबादी और भूभाग पर राज करने की महत्त्वाकांक्षा में सफल हो जाए, तो उसकी सत्ता की शक्ति का अन्दाज़ लगाया जा सकता है। लेकिन यह क़तई संभव नहीं है। और यही ख़िलाफ़त के विचार के पनपने का दूसरा कारण भी है। 

दरअसल, पैग़म्बर मुहम्मद के निधन के बाद से अब तक यह विवाद लगातार जारी है कि पैग़म्बर के सच्चे अनुयायी कौन हैं, उनकी शिक्षाओं पर चलने का सही तरीक़ा क्या है, और एक जीवन पद्धति के तौर पर इसलाम का स्वरूप क्या होना चाहिए।

सलाफ़ी इसलाम

इसी विवाद ने मुसलमानों को छोटे-बड़े अनेक संप्रदायों में विभाजित कर दिया। इन्हीं संप्रदायों में से सलाफ़ी और हनफ़ी इसलाम को मानने वाले कुछ वर्ग भी हैं, जो एक निहायत कट्टर इसलामिक शरीआ और जीवन पद्धति की वकालत करते हैं।

वे आज भी पूरी दुनिया में कट्टर इसलाम पर चलने वाली कोई व्यवस्था या एक इसलामी ख़िलाफ़त स्थापित करने की बात करते हैं। आईएसआईएस और तालिबान इसी विचार पर आधारित हैं, हालाँकि आईएसआईएस तो इतना कट्टर है कि वह तालिबान की इसलामी व्याख्या को भी सही नहीं मानता है।

उधर, ईरान में 1979 की धार्मिक क्रान्ति के बाद शिया धार्मिक व्यवस्था लागू है, जो शिया इसलाम का एक चरमपंथी रूप है।

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औरंगज़ेब, मुगल सम्राट

भारत में ख़िलाफ़त

जहाँ तक भारत में ख़िलाफ़त व्यवस्था की बात है, जब मुहम्मद बिन क़ासिम ने 712 में सिंध के राजा दाहिर को अरोर के युद्ध में पराजित कर दिया, जिसमें दाहिर की मृत्यु हो गई तो सिंध को उमव्विया ख़िलाफ़त में शामिल कर लिया गया। 

लेकिन इसके अलावा भारत के किसी हिस्से तक ख़िलाफ़त का असर नहीं पहुँचा।

बाद में मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने आलमगीरी का फ़तवा जारी कर एलान किया कि शरीआ क़ानून के तहत शासन चलेगा। उन्हें ऑटोमन या उसमानिया ख़िलाफ़त के ख़लीफ़ा सुलेमान द्वितीय व महमद चतुर्थ ने समर्थन दिया था।

औरंगजेब ने ज़जिया कर प्रणाली शुरू की, गीत-संगीत पर रोक लगा दी और शरीआ में नाजायज़ माने जाने वाली चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया। 

औरंगजेब के पहले के शासकों में मुहम्मद बिन बख़्तियार ख़िलजी, अलाउद्दीन ख़िलजी, फ़िरोज शाह तुग़लक को भी कुछ लोगों ने ख़लीफ़ा माना है। इसी तरह शेरशाह सूरी, बाबर, टीपू सुल्तान को भी ख़लीफ़ा की पदवी दी गई थी।

यह नहीं कहा जा सकता है कि इन शासकों के समय शरीआ शासन लागू किया गया था। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ये शासक इसलाम के विद्वान थे। यह ज़रूर था कि उन्होंने एक बड़े भूभाग पर शासन किया था।

क़ुरान-हदीस में ख़िलाफ़त

क़ुरान में ख़लीफ़ा शब्द का इस्तेमाल सिर्फ दो बार हुआ है। सूरा अल बक़र (30) में कहा गया है कि ईश्वर पृथ्वी पर क्रम से 'ख़लीफ़ा' को स्थापित करेगा।

सूरा साद (26) में दाऊद को ईश्वर का ख़लीफ़ा कह कर संबोधित किया गया है और उन्हें नियम-क़ानून से शासन करने और न्याय करने की हिदायत दी गई है। 

हदीस में ख़िलाफ़त की भविष्यवाणी की गई है। मसनद अहमद इब्न हनबल के मुताबिक यह भविष्यवाणी इस तरह है-

"हज़रत हुज़ैफ़ा ने कहा कि ईश्वर के पैगंबर ने उन्हें बताया कि  पैगंबर तुम्हारे साथ तब तक रहेंगे जब तक ईश्वर चाहेगा। उसके बाद पैगंबर के बताए रास्ते पर ख़िलाफ़त चलेगा जब तक ईश्वर चाहेगा। इसके बाद भ्रष्ट राजशाही आएगी और वह तब तक रहेगी जब तक ईश्वर चाहेगा। उसके बाद अधिनायकवादी राजा होंगे जब तक ईश्वर चाहेगा। और फिर उसके बाद एक बार फिर ख़िलाफ़त का दौर आएगा जो पैगंबर के बताए रास्ते पर चलेगा।"

तो क्या इसलामिक स्टेट, तालिबान और अल क़ायदा इसी भविष्यवाणी के आधार पर ख़िलाफ़त के लिए संघर्ष कर रहे हैं? क्या उन्हें लगता है कि अब वह समय आ गया है जब ख़िलाफ़त की स्थापना की जाएगी क्योंकि हदीस में इसकी भविष्यवाणी की गई है?

शरीअत शासन प्रणाली

इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि ख़िलाफ़त में शरीअत शासन प्रणाली कैसी होगी, उसकी क्या रूपरेखा होगी, महिलाओं का उसमें क्या स्थान होगा, ग़ैर-मुसलिमों की क्या स्थिति होगी?

इसका बहुत कुछ अनुमान हम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के पिछले शासन और कुछ साल पहले आईएसआईएस के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में चलाई गई तथाकथित 'शरई' शासन व्यवस्था से लगा सकते हैं, जो आधुनिक युग में मध्ययुगीन धार्मिक रूढ़ियों, न्याय-प्रणाली और दंड विधान को लागू करने और दूसरे धर्म के लोगों या 'ग़ैर-मुसलिमों' के संहार के सिद्धाँत पर चली थी।

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ख़िलाफ़त के लिए जगह बची है?

आईएसआईएस तो मुसलमानों के बहुत से संप्रदायों को भी 'ग़ैर-मुसलिम' ही मानता है। अफ़ग़ानिस्तान में अपने पिछले शासन के दौरान तालिबान ने भी शिया हज़ारा मुसलमानों पर बड़े ज़ुल्म ढाए थे। 

सवाल यह है कि आज की विकसित और आधुनिक दुनिया में क्या किसी ऐसी इसलामिक ख़िलाफ़त की कोई जगह है, जो किसी एक-दो देश नहीं, बल्कि समूची दुनिया में इसलामी साम्राज्य और शरीअत आधारित शासन चलाने का सपना देखती हो।

यदि पूरी दुनिया नहीं भी, तो क्या समूची मुसलिम उम्माह (यानी समूची मुसलिम आबादी) को किसी एक छतरी के नीचे लाया जाना आज संभव है?

वह भी तब, जबकि मुसलमानों के विभिन्न संप्रदाय अपने-अपने मत से शरीअत को समझते और मानते हैं और उनमें आपस में ही एक-दूसरे की मान्यताओं को लेकर भारी विरोध है।

 वैसे भी आज की दुनिया में, जहाँ देशों की सर्वमान्य भौगोलिक सीमाएँ हैं, किसी देश का किसी अन्य देश पर क़ब्ज़ा कर लेना संभव ही नहीं है, तो ऐसे में पूरी दुनिया की बात तो छोड़िए, पूरी मुसलिम बिरादरी की बात भी छोड़िए, कुछ मुसलिम देशों को मिला कर आईएसआईएस मॉडल की किसी इसलामिक ख़िलाफ़त के अधीन लाना अब असंभव है। 

लेकिन इस तरह के संगठन या विचार हमारी दुनिया और समूची मानवता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं, क्योंकि इन्हें जहाँ भी, ज़रा भी पैर ज़माने का मौक़ा मिला, वहाँ उन्होंने क्रूरता, बर्बरता, अमानवीयता और पाश्विकता की सारी हदें पार कर दीं, महिलाओं पर न केवल असंख्य बंदिशें लगाईं, बल्कि उन्हें यौन-दासियों के रूप में अकल्पनीय यातनाएँ दीं, समाज में चिन्तन, तर्क और विमर्श की सारी गुंजाइशें ख़त्म कर दीं।

हम आज विज्ञान और लोकतंत्र के दौर में जी रहे हैं, जहाँ सैकड़ों साल पहले की किसी मध्ययुगीन सोच की कोई जगह नहीं है।  

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