सिद्धारमैया
कांग्रेस - वरुण
अभी रुझान नहीं
जम्मू-कश्मीर पूरी तरह ठप है और तालेबंदी में है। पहले सरकार ने वहाँ ज़बरदस्ती सब बंद कराया, अब लोग ही बाज़ार और दुकानें बंद रख रहे हैं। इन सबके बीच गृह मंत्री अमित शाह कश्मीर के लिए भावी योजनाओं की घोषणा करते फिर रहे हैं क्योंकि उनको लग रहा है कि अगर आर्थिक विकास होगा तो राज्य के लोग अनुच्छेद 370 को भूल जाएँगे।
लेकिन अमित शाह ख़ुद यह भूल रहे हैं कि अभी कश्मीर की कहानी ख़त्म नहीं हुई है। सरकार के क़दमों को कई लोगों और पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और संविधान बेंच अगले महीने अयोध्या मामले की सुनवाई ख़त्म होने के ठीक बाद इस मामले पर सुनवाई करने जा रही है। और यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि अनुच्छेद 370 के ज़रिए ही अनुच्छेद 370 को नष्ट और कमज़ोर करने की इस सरकारी कलाकारी को सुप्रीम कोर्ट वैध ही ठहरा दे।
लेकिन क्यों, इसके बारे में जानेमाने वकील और Unravelling the Kashmir Knot (कश्मीर की गुत्थी कैसे सुलझे) के लेखक डॉ. अमन हिंगोरानी ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ बातचीत में कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उठाए हैं। ध्यान दीजिए, डॉ. हिंगोरानी केंद्र के क़दमों से पूरी तरह सहमति रखते हैं और मानते हैं कि इससे राज्य को लाभ होगा लेकिन उनका मत है कि सरकार का कोई भी काम संविधान के दायरे में होना चाहिए और उन्हें लग रहा है कि केंद्र ने जो तीन क़दम उठाए हैं, उन तीनों में ही कहीं-न-कहीं संवैधानिक वैधता के सवाल पैदा होते हैं। आइए, नीचे डॉ. हिंगोरानी की दलीलों को आसान भाषा में समझते हैं।
पहला काम सरकार ने यह किया है कि उसने राष्ट्रपति के 1954 के आदेश को 2019 के नए आदेश से बदल दिया है। 1954 के आदेश के तहत ही देश के क़ानून समय-समय पर जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू होते थे और वहाँ की जनता को इसी के तहत विशेषाधिकार मिले हुए थे। नए आदेश में कह दिया गया कि अब से देश के सभी क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे।
दूसरा काम यह कि राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया है।
और तीसरा, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की सिफ़ारिश करने का अधिकार जिस संस्था (जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा) को था, उस संस्था का नाम बदलकर राज्य विधानसभा कर दिया गया। और यह सब तब किया गया जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था।
राष्ट्रपति शासन आपात स्थितियों में लगाया जाता है। इसके दौरान दूरगामी प्रभावों वाले निर्णय नहीं लिए जा सकते। यह इसलिए लगाया जाता है कि जब कभी संवैधानिक व्यवस्था ठप हो जाए तो अस्थायी तौर पर सामयिक प्रबंध किया जा सके। ऐसी स्थिति में केंद्र हस्तक्षेप करता है, राज्य सरकार की सत्ता और राज्य विधानसभा के अधिकार अपने हाथों में लेता है लेकिन उसकी शक्तियाँ और कालावधि सीमित होती हैं।
लेकिन केंद्र ने क्या अपनी सीमाओं और मर्यादाओं का ध्यान रखा? नहीं रखा। उसने इस दौरान राज्य पर पूरे देश का संविधान लागू करने का बहुत बड़ा फ़ैसला लागू कर दिया।
अनुच्छेद 370 की संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुसार ऐसा कोई भी फ़ैसला राज्य की सहमति से ही लिया जा सकता था। यहाँ फ़ैसला किसने लिया। फ़ैसला लिया राज्यपाल ने जिसके पास राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य के सारे अधिकार आ जाते हैं और जो कि केंद्र द्वारा ही नियुक्त किया हुआ है। यानी एक तरह से केंद्र का प्रतिनिधि ही केंद्र को यह सलाह दे रहा है कि राज्य पर देश का संविधान लागू कर दिया जाए। फिर संविधान के अनुसार ज़रूरी राज्य की सहमति की शर्त का पालन कहाँ हुआ?
डॉ. हिंगोरानी द्वारा बताए गए इस क़ानूनी पेच को मैं एक पारिवारिक उदाहरण से समझाना चाहूँगा। मान लें कि एक परिवार में पिता चाहता है कि उसका बेटा उसकी पसंद की किसी लड़की से शादी कर ले जहाँ से उसे तगड़ा दहेज़ मिल रहा है। लड़का नहीं मान रहा। वह बालिग़ है और अपनी पसंद की लड़की से शादी करना चाहता है। इस बीच अचानक एक दिन लड़का बेहोश हो गया (या बेहोश कर दिया गया?)। अब चूँकि लड़का बेहोश है और उसके इलाज के बारे में कोई भी निर्णय माता-पिता और बड़े भाई-बहन ही ले सकते हैं - यहाँ तक तो सही है, लेकिन क्या वे उसकी शादी का भी फ़ैसला ले सकते हैं यह कहते हुए कि चूँकि वह बेहोश है सो उसकी तरफ़ से हर छोटा-बड़ा फ़ैसला करने का उनको हक़ है।
यदि लड़के का बड़ा भाई अपने बेहोश भाई की तरफ़ से शादी की अनुमति अपने माता-पिता को दे तो क्या वह अनुमति क़ानूनी रूप से मान्य होगी? जम्मू-कश्मीर में यही किया गया है और सुप्रीम कोर्ट में पहली दलील यही दी जाएगी कि राज्य के बारे में इतना बड़ा फ़ैसला राज्य की जनता द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सरकार ही कर सकती है, केंद्र या उसके द्वारा नियुक्त किया गया बाहरी व्यक्ति नहीं।
अब राज्य के विभाजन की बात करें। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार किसी भी राज्य की सीमाएँ संसद द्वारा बदली जा सकती हैं हालाँकि इसमें एक प्रावधान यह भी है कि इसके लिए राज्य का ‘विचार’ पूछा जाएगा। यह ज़रूरी नहीं कि संसद राज्य के विचारों को स्वीकार करे लेकिन विचार जानना अनिवार्य है।
परंतु जम्मू-कश्मीर के मामले में केवल ‘विचार’ ही काफ़ी नहीं था, ‘सहमति’ भी ज़रूरी थी। राष्ट्रपति के 1954 वाले आदेश में अनुच्छेद 3 में यह प्रावधान जोड़ा गया था कि जम्मू-कश्मीर के मामले में यदि आप ऐसा करना चाहें तो आपको राज्य विधानसभा की ‘सहमति’ लेनी होगी। अब चूँकि नए आदेश के बाद 1954 का आदेश लागू नहीं है सो ‘सहमति’ की शर्त भी लागू नहीं है। लेकिन अनुच्छेद 3 के तहत राज्य विधानसभा का ‘विचार’ तो जानना होगा। वह विचार कौन देगा?
आज जबकि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू है, विधानसभा भी सक्रिय नहीं है, ऐसे में विधानसभा का विचार जानने का क्या तरीक़ा है? आप कह सकते हैं कि ऐसे हालात में राज्य विधानसभा की शक्तियाँ संसद के पास आ जाती हैं। ठीक। वही हो भी रहा है कि राज्य को बाँटने के लिए (राज्य विधानसभा की) जो संवैधानिक राय चाहिए, वह राय भी संसद ही संसद को दे रही है जहाँ सत्तारूढ़ दल का बहुमत है।
केंद्र ख़ुद से ही पूछ रहा है और ख़ुद ही हाँ कह रहा है। क्या आपातकालीन शक्तियों के तहत केंद्र किसी राज्य के टुकड़े करने और उसकी पहचान के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार रखता है?
अब आते हैं तीसरे पॉइंट पर जिसके तहत अनुच्छेद 370 में जिस संविधान सभा का उल्लेख था, उसे बदलकर राज्य विधानसभा कर दिया गया। अनुच्छेद 370 का खंड 1 कहता है कि राष्ट्रपति भारतीय संविधान के हिस्सों को ज्यों-का-त्यों या कुछ फेरबदल के साथ राज्य पर लागू कर सकते हैं।
अनुच्छेद 370 की सुरक्षा भी उसी के खंड 3 में है कि राज्य संविधान सभा की सिफ़ारिश के बिना राष्ट्रपति द्वारा इसे ख़त्म नहीं किया जा सकता। लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा तो 1957 में ही विसर्जित हो गई और विसर्जन से पहले उसने ऐसी कोई सिफ़ारिश नहीं की।
राज्य संविधान सभा के विसर्जन के साथ भारतीय संघ के पास अब ऐसा कोई उपाय नहीं रहा जिससे अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जा सके। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट लगातार कहता रहा है कि अनुच्छेद 370 अमर है।
अब इसी अनुच्छेद 370(1) का इस्तेमाल करके अनुच्छेद 367 में एक प्रावधान जोड़ा गया है कि 370(3) में जहाँ संविधान सभा लिखा है, उसका अर्थ राज्य की विधानसभा माना जाए। इस बदलाव के बाद अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने की सिफ़ारिश करने का अधिकार राज्य विधानसभा के पास आ गया। लेकिन राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य विधानसभा की शक्तियाँ किसके पास होती हैं? संसद के पास। यानी जो अधिकार राज्य की संविधान सभा को था, वह अधिकार राज्य की विधानसभा को दिया गया, और चूँकि राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य की विधानसभा अभी सक्रिय नहीं है, इसलिए वह शक्ति फिर से संसद के पास आ गई। दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की सिफ़ारिश भी सरकार ख़ुद ही ख़ुद को कर रही है।
यानी आपने संविधान के एक प्रावधान का उपयोग कर उसी संविधान के दूसरे प्रावधान के तहत मिलने वाली सुरक्षा को समाप्त कर दिया है। दूसरे शब्दों में दाएँ हाथ ने ही शरीर का बायाँ हाथ काट दिया है। क़ानून का एक मौलिक सिद्धांत है - जो चीज़ आप सीधे तौर पर नहीं कर सकते, वह आप परोक्ष रूप में भी नहीं कर सकते।
अनुच्छेद 370 के मामले में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ, उसमें केंद्र और राज्य के बीच क्या रिश्ता होगा, यह केंद्र ने अपने अनुसार तय किया है जबकि विलय पत्र, अनुच्छेद 370, दिल्ली समझौता, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों, ख़ासकर प्रेमनाथ कौल के मामले में उसके फ़ैसले, सबमें इसी बात पर ज़ोर है कि भारतीय संघ के साथ जम्मू-कश्मीर का क्या रिश्ता होगा, यह तय करना जम्मू-कश्मीर राज्य के अधिकार क्षेत्र में है और भारत के संविधान निर्माताओं को कोई हक़ नहीं है कि वे उसके अधिकार क्षेत्र में कटौती करें।
इन तीनों मामलों में सरकारी वकील कोर्ट में यही कहेंगे कि सरकार ने संविधान में लिखी बातों का शब्दशः पालन किया है। हो सकता है, ऐसा ही हुआ हो। मगर यह काफ़ी नहीं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट केवल शब्दों पर नहीं जाता, वह संविधान की भावनाओं को भी पूरी अहमियत देता है। और यदि संविधान पीठ के सदस्यों को लगा कि केंद्र के इन क़दमों से संविधान की भावना को धक्का लगा है तो तय मानिए कि कोर्ट के अंतिम सीन में पिक्चर का क्लाइमैक्स बदल भी सकता है।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें