मैंने कई बार कहा है कि भारत की बड़ी सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ (और भारत में मैं पाकिस्तान और बांग्लादेश को शामिल करता हूँ, क्योंकि मैं उन्हें वास्तव में भारत का हिस्सा मानता हूँ, हमें केवल अस्थायी रूप से अलग किया गया है) ग़रीबी, बेरोज़गारी, बाल कुपोषण, जनता के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवा की कमी और अच्छी शिक्षा का अभाव, किसानों की समस्याएँ, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार आदि को केवल जनवादी क्रांति द्वारा ही हल किया जा सकता है, न कि सुधारों द्वारा।
हालाँकि ऐतिहासिक अनुभव से पता चलता है कि एक क्रांति केवल तब होती है जब एक क्रांतिकारी स्थिति होती है जिसमें जनता व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठती है क्योंकि उन्हें उस व्यवस्था के भीतर रहना असंभव लगता है। सच्चाई यह है कि यद्यपि आज भारत के लोगों में सामाजिक-आर्थिक संकट है, फिर भी कोई क्रांतिकारी स्थिति नहीं है। इसलिए निकट भविष्य में कोई क्रांति होने की संभावना नहीं है। हालाँकि, क्या इसका मतलब यह है कि देशभक्त बुद्धिजीवियों को तब तक निष्क्रिय रहना चाहिए जब तक कि कोई क्रांति नहीं हो जाती? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें मामले की गहराई में जाना चाहिए।
20वीं शताब्दी के एक महान क्रांतिकारी नेता ने कहा, 'राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए सबसे पहले जनमत को बदलना आवश्यक है। यह क्रांति का सत्य है।’
दूसरे शब्दों में, वास्तविक क्रांति से पहले एक सांस्कृतिक क्रांति यानी विचारों की क्रांति होना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से पहले वोल्टेयर, रूसो और फ्रांसीसी एनसाइक्लोपीडिस्ट जैसे महान विचारकों ने कई दशकों तक बौद्धिक संघर्ष किया, जिसमें फ्रांस की सामंती व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता आदि पर हमला किया गया। (रूसो की किताब द सोशल कॉन्ट्रैक्ट रोबेस्पिएर की बाइबिल थी।)
वास्तविक क्रांति से पहले सांस्कृतिक क्रांति क्यों आवश्यक है? ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश लोग स्वभाव से रूढ़िवादी होते हैं, और इसलिए वे सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं चाहते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे उपमहाद्वीप में अधिकांश लोग जातिवादी, सांप्रदायिक और अंधविश्वासी हैं। इसलिए यह देशभक्त आधुनिक मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों का काम है कि वे लोगों को धैर्य से शिक्षित करें, उनकी सामंती मानसिकता का विनाश करें और उन्हें समझाएँ कि जब तक मौजूदा व्यवस्था को उखाड़ फेंका नहीं जाता है और एक वैकल्पिक प्रणाली नहीं बनाई जाती है तब तक हम भयानक ग़रीबी और बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ झेलते रहेंगे।
हर क्रांति में कई लोगों को अपना बलिदान देना पड़ता है। एक व्यक्ति स्वेच्छा से अपने जीवन का बलिदान देगा यदि वह आश्वस्त है कि वह एक नेक मक़सद के लिए लड़ रहा है और इसलिए देशभक्त बुद्धिजीवियों का यह काम है कि वे लोगों को भरोसा दिलाएँ कि जिस उद्देश्य के लिए वे लड़ रहे हैं वह एक महान उद्देश्य है।
बुद्धिजीवी समाज की आँखें हैं और उनके बिना समाज अंधा होता है। प्रत्येक महान क्रांति का नेतृत्व बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया। उदाहरण के लिए - फ्रांसीसी क्रांति में रोबेस्पियर और डैंटन, अमेरिकी क्रांति में जेफ़रसन, जेम्स मैडिसन और जॉन एडम्स और रूसी क्रांति में लेनिन। एक वास्तविक बुद्धिजीवी एक सोशल इंजीनियर, जनमत को दिशा देने वाला, नए विचारों को फैलाने वाला होता है जो उन आदर्शों का प्रचार करता है जिनके लिए लोगों को संघर्ष करना चाहिए।
लेकिन समाज में हर वास्तविक बुद्धिजीवी के साथ-साथ आमतौर पर दस फ़र्ज़ी बुद्धिजीवी होते हैं, जो केवल नाम के लिए 'बुद्धिजीवी' होते हैं, जैसे कि भारत के अधिकांश शिक्षक, पत्रकार, लेखक आदि। इनमें से अधिकांश घमंड और दंभ से भरे होते हैं, इनमें विनय का अभाव होता है और ये ख़ुद को बहुत बड़ा समझते हैं। उन्हें ऐतिहासिक प्रक्रियाओं या सामाजिक विकास के नियमों की कोई गहरी समझ नहीं है लेकिन समाज में चारों ओर अपने सतही किताबी ज्ञान, आधी पकी हुई समझ की अकड़ दिखाते फिरते हैं। वे केवल अपने स्वयं के आराम के लिए परवाह करते हैं और जनता के लिए उन्हें कोई वास्तविक प्रेम नहीं हैं। उनमें से कइयों का सुधार नहीं हो सकता, लेकिन कुछ का हो सकता है।
भारत में (पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित) शायद ही कोई बुद्धिजीवी है जो स्पष्ट कहता है कि केवल क्रांति से ही हमारी वास्तविक समस्याओं का हल हो सकता है। (see my articles 'Why celebrate Republic Day when the Constitution has become a scarecrow' published in theweek.in, 'India's moment of turbulent revolution is here' published in firstpost.com, 'India edges closer to its own French Revolution' published in theweek.in, and 'Eight steps to a revolution' published in dailyo.in ). लेकिन यह बात अब स्पष्ट दिखाई देती है।
भारत में शायद ही किसी 'बुद्धिजीवी' ने इस बात का उल्लेख किया हो कि सन् 1928 में प्रथम पंचवर्षीय योजना को अपनाने के बाद सोवियत संघ का औद्योगिकरण कैसे हुआ? ( see my articles 'The economy's problem is of purchasing power not production' published in theweek.in and 'The $5 trillion dream' published in thehindubusinessline.com ).
ऐसे तथाकथित 'बुद्धिजीवी’ दूसरों को क्या सिखा सकते हैं? क्या उनके पास भारत में व्यापक बेरोज़गारी या आर्थिक मंदी की समस्या का कोई वास्तविक समाधान है, भले ही वे हार्वर्ड, येल और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पीएच.डी. की डिग्री दिखाते फिरते हों।
मेरा यह कहना नहीं है कि भारत में 'बुद्धिजीवियों' के बीच कोई ईमानदार व्यक्ति नहीं है। लेकिन उनके दिमाग़ अक्सर पारंपरिक विचारों से भरे होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की मानसिकता को परिवर्तित करने के लिए एक लंबी दर्दनाक प्रक्रिया होगी जिसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है।
वर्तमान कोरोना वायरस की समस्या कुछ समय बाद ख़त्म हो जाएगी और फिर आर्थिक समस्याएँ अधिक उग्र रूप में हमारे उपमहाद्वीप में उत्पन्न होंगी। केवल वैज्ञानिक मानसिकता के बुद्धिजीवी ही इन्हें हल कर सकते हैं लेकिन वर्तमान में इसका बड़ा अभाव है।
आने वाली क्रांति में वास्तविक बुद्धिजीवियों की बड़ी माँग होगी क्योंकि जैसा ऊपर कहा गया है कि केवल बुद्धिजीवी ही समाज को सही नेतृत्व दे सकते हैं। लेकिन लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए वर्तमान 'बुद्धिजीवियों' को एक दर्दनाक लेकिन आवश्यक प्रक्रिया से गुज़र कर अपनी मानसिकता बदलनी होगी, अन्यथा यह अंधे द्वारा अंधे को रास्ता दिखाना जैसा होगा।
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