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भयभीत मीडिया प्रतिरोध की राजनीति को नपुंसक ही बनायेगा?

अफ़ग़ानिस्तान (और पाकिस्तान) की ख़बरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और अपने ही देश और शहर के ज़रूरी समाचारों को या तो ग़ायब कर देना या फिर अंदर के पन्नों के ‘संक्षिप्त समाचारों’ की लाशों के ढेर के साथ सजा देना लगातार चल रहा है। मीडिया का यह कृत्य इतिहास में भी दर्ज हो रहा है। 
श्रवण गर्ग

देश के नागरिक इस वक़्त एक नए प्रकार के ‘ऑक्सीजन’ की कमी के अदृश्य संकट का सामना कर रहे हैं। आश्चर्यजनक यह है कि ये नागरिक साँस लेने में किसी प्रकार की तकलीफ़ होने की शिकायत भी नहीं कर रहे हैं। मज़ा यह भी है कि इस ज़रूरी ‘ऑक्सीजन’ की कमी को नागरिकों की एक स्थायी आदत में बदला जा रहा है। उसका उत्पादन और वितरण बढ़ाए जाने की कोई माँग उस तरह से नहीं की जा रही है जैसी कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मेडिकल ऑक्सीजन को लेकर की जाती थी। जिस की कमी की यहाँ बात की जा रही है उसके कारण प्रभावित व्यक्ति शारीरिक रूप से नहीं मरता, वह दिमाग़ी तौर पर सुन्न या शून्य हो जाता है। एक ख़ास क़िस्म की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसे नागरिकों की सत्ताओं को सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है।

बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि वे इन दिनों अख़बारों को पढ़ने और राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचारों या चलने वाली बहसों को सुनने-देखने में ख़र्च किए जाने वाले अपने समय में लगातार कटौती कर रहे हैं। 

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जिस अख़बार को पढ़ने में पहले आधा घंटा या और भी ज़्यादा का वक़्त लगता था वह अब पन्ने पलटाने भर का खेल रह गया है। अगर किसी सुबह अख़बारवाला विलम्ब से आए, कोई दूसरा समाचार पत्र डाल जाए तो भी फर्क नहीं पड़ रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ अख़बारों की क़ीमतों में रह गया है, ख़बरों के मामले में लगभग सभी एक जैसे हो गए हैं। 

नागरिकों को भान ही नहीं है कि हाल के सालों तक अख़बारों या चैनलों के ज़रिए जो ‘ऑक्सीजन’ उन्हें मिलती रही है उसकी आपूर्ति में किस कदर कमी कर दी गई है! नागरिकों के दिमाग़ों को बिना खिड़की-दरवाज़ों के क़िलों में क़ैद किया जा रहा है। क़िलों की दीवारों को भी एक ख़ास क़िस्म के रंग से पोता जा रहा है और उन पर राष्ट्रवाद के पोस्टर चस्पा किए जा रहे हैं, भड़काऊ नारे लिखे जा रहे हैं। धृतराष्ट्रों और संजयों ने भूमिकाएँ आपस में बदल ली हैं। अब धृतराष्ट्र संजयों को आधुनिक कुरुक्षेत्र की घटनाओं का ‘प्री-पेड’ वर्णन सुना रहे हैं।

पिछले दिनों मैंने कोई पचास शब्दों (280 वर्ण-मात्राओं) का एक ट्वीट जारी किया था। वह इस प्रकार से था : ‘देश की जनता को अपने ही सभी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के नामों, जगहों और (देश में) चल रहे नागरिक प्रतिरोधों तथा जन-आंदोलनों की पूरी जानकारी नहीं है पर अख़बारों और चैनलों ने अफ़ग़ानिस्तान के बारे में जनता को विशेषज्ञ बना दिया है। क्या पाठकों-दर्शकों के ख़िलाफ़ षड्यंत्र की गंध नहीं आती?’ मेरे इस ट्वीट पर कई प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। उनमें से अपने परिचित इलाक़े की केवल एक प्रतिक्रिया का ज़िक्र यहाँ कर रहा हूँ।

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महानगरों की क़तार में शामिल होते इंदौर से सिर्फ़ डेढ़ सौ किलोमीटर दूर डेढ़ लाख की आबादी का शहर खरगोन है। कपास और मिर्ची के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध इस ग्रामीण परिवेश के शहर में लगभग सारे बड़े अख़बार इंदौर से ही बनकर जाते हैं। मेरे ट्वीट पर जो एक प्रतिक्रिया वहाँ से आई और जिसे कुछ अन्य लोगों ने बाद में री-ट्वीट भी किया वह इस प्रकार थी :’सर आज के दैनिक भास्कर ने पूरा तालिबान मंत्रिमंडल अपने पहले पेज पर छापा है वहीं खरगोन के थाने में हुई घटना को अंदर के पेज पर जगह दी गई। इसी से सब समझ आता है।’ (खरगोन में एक आदिवासी युवक की हिरासत में मौत हो गई थी। बाद में घटना पर व्यक्त हुए आक्रोश के बाद एसपी को वहाँ से हटा दिया गया।) ख़बरों को दबाने के मामले में शहरी क्षेत्रों, यहाँ तक कि महानगरों की स्थिति भी खरगोन से ज़्यादा अलग नहीं है।

लगभग सभी बड़े अख़बारों और चैनलों की हालत आज एक जैसी कर दी गई है। कोई भी सम्पादक न तो अपने पाठकों को बताने को तैयार है और न ही कोई उससे पूछना ही चाहता है कि इन ग्रामीण इलाक़ों और छोटे-छोटे क़स्बों में आप ख़बरों का ‘तालिबानीकरण’ किसके डर अथवा आदेशों से कर रहे हैं?

और ऐसा प्रतिदिन ही क्यों किया जा रहा है? क्या कहीं ऊपर से इस तरह के हुक्म आए हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के गठन और अल-क़ायदा को लेकर जो कुछ चल रहा है उसकी ही जानकारी पाठकों को देते रहना है; रायपुर, लखनऊ और करनाल में जो चल रहा है उसे सख़्ती से दबा दिया जाना है! यही वह ‘ऑक्सीजन’ है जिसकी कृत्रिम कमी जान-बूझकर पैदा की जा रही है। निश्चित ही जब यह ‘ऑक्सीजन’ ज़रूरत की मात्रा में दिमाग़ों में नहीं पहुँचेगा तो वैचारिक रूप से जागृत पाठक और दर्शक कोमा में जा सकता है। एक बड़ी आबादी को इस तरह की ‘ब्रेन डेथ’ और ‘कोमा’ की ओर धकेला जा रहा है।

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तालिबानी मंत्रिमंडल के गठन और अल-क़ायदा के आतंकवाद का घुसपैठिया विश्लेषण करने वाले सम्पादक और खोजी पत्रकार अपने दर्शकों और पाठकों को यह नहीं बताना चाह रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मूल के नागरिक इस समय किन कठिन हालातों का सामना कर रहे हैं अथवा भारत में इस समय कुल कितने अफ़ग़ान शरणार्थी हैं या ताज़ा संकट के बाद से कितने भारतीयों को वहाँ से बाहर निकाला जा चुका है। अफ़ग़ानी समुदाय के एक नेता के मुताबिक़ भारत में कोई इक्कीस हज़ार अफ़ग़ान शरणार्थी पहले से रह रहे हैं। ज़ाहिर है इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए सरकारी हलकों में पूछताछ करनी पड़ेगी। किसी में भी ऐसा करने का साहस नहीं बचा है। मेडिकल ऑक्सीजन का अभाव सह रहे मरीज़ों या गंगा में बहती लाशों की लाखों में गिनती करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियाँ बटोरने वाला मीडिया इस समय छोटी-छोटी गिनतियाँ करने से भी कन्नी काट रहा है।

अफ़ग़ानिस्तान (और पाकिस्तान) की ख़बरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और अपने ही देश और शहर के ज़रूरी समाचारों को या तो ग़ायब कर देना या फिर अंदर के पन्नों के ‘संक्षिप्त समाचारों’ की लाशों के ढेर के साथ सजा देना लगातार चल रहा है।

मीडिया का यह कृत्य इतिहास में भी दर्ज हो रहा है। उस इतिहास में नहीं जिसे कि आज क्रूरतापूर्वक बदला जा रहा है बल्कि उस इतिहास में जिसमें दुनियाभर के लोकतंत्रों के उत्थान और पतन की कहानियाँ दर्ज की जाती हैं।

एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निहायत ज़रूरी इस ‘ऑक्सीजन’ की चाहे जितनी कृत्रिम कमी उत्पन्न कर दी जाए जब कुछ भी नहीं बचेगा तो लोग आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए सच्ची ख़बरें पत्थरों और शिलाओं पर लिखना शुरू कर देंगे। एक डरा हुआ और लगातार भयभीत दिखता मीडिया अपने पाठकों, दर्शकों और प्रतिरोध की राजनीति को वैचारिक रूप से नपुंसक ही बनाएगा।

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