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एक मदरसे में छात्र और अन्य।फ़ेसबुक/डी. दयान

मोदी का असर, मदरसों के आधुनिकीकरण के लिये देवबंद तैयार

ख़बर पढ़ी कि जमीअत उलेमा ए हिंद के दोनों मौलाना मदनी मान गए हैं कि मदरसों की शिक्षा में आधुनिकीकरण होना चाहिए और इसके लिए एक कमेटी भी बना ली गयी है। पहले मदनी ख़ानदान और ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने न सिर्फ़ 'असरी-उलूम' का विरोध किया बल्कि सेंट्रल मदरसा बोर्ड भी बनने नहीं दिया। ज़िद से ज़िल्लत तक का ये सफ़र मासूम नौजवानों के मुस्तक़बिल की क़ीमत पर तय हुआ है। 
शीबा असलम फ़हमी

‘अगर मदरसे के युवा भी ग्रेजुएट होकर नौकरी के क़ाबिल हो जाएँ तो इसमें क्या ऐतराज़ है?’ यह कितनी व्यावहारिक बुद्धि की बात है! मदरसा शिक्षा का आधुनिकीकरण कर उसमें पढ़ने वाले बच्चों को नौकरी पाने लायक बनाने की कोशिश जब 2007 में शुरू हुई तो मुसलमानों के बीच के ही कुछ लोगों ने उसका विरोध किया था। उसमें प्रमुख थे मौलाना असद मदनी, उनका ख़ानदान और ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड में क़ौम की इजारेदारी कर रहे उनके सहयोगी। उनका मानना था कि यह 'मदाख़लत फिद्दीन' यानी दीन (धर्म) में हस्तक्षेप है।

उस वक़्त अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री थे जो इन मदरसा ग्रेजुएट को मान्यता देने के लिए राज़ी हो गए थे और इस मुहिम को शुरू करने वाले जस्टिस एम. ए. एस. सिद्दीक़ी नए-नए बने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग के चेयरमैन थे जो कि मुसलिम शिक्षा के केंद्रों में मुख्यधारा की तालीम को भी स्थान दिलाना चाहते थे। जस्टिस एम. ए. एस. सिद्दीक़ी की सलाह थी कि क्रिश्चियन धार्मिक संस्थानों की तरह मुसलमान भी तय कर लें कि मस्जिदों की संख्या के आधार पर उन्हें कितने इमाम, मुतवल्ली, मौलवी आदि चाहिए, इसके बाद बाक़ी के छात्रों को असरी-उलूम यानी मॉडर्न सब्जेक्ट में भी पढ़ाई करवा कर उन्हें नौकरी के बाजार के लायक बनाया जाना चाहिए। इसी के साथ लड़कियों की तालीम पर तवज्जो दें और मुसलमान समाज के संसाधन लड़कियों की तालीम पर भी खर्च हों।

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मौलाना असद मदनी (मौलाना महमूद मदनी के पिता और मौलाना अरशद मदनी के बड़े भाई) जो दारुल उलूम देवबंद के मजलिस-ए-शूरा के असरदार सदस्य थे, के चलते दारुल उलूम देवबंद तैयार नहीं हुआ जबकि देवबंद के अन्य 95% सदस्यों ने यह बात मान ली थी और मौलाना सय्यद अंज़र शाह कश्मीरी धड़ा 'मॉडर्नाइजेशन ऑफ़ मदरसा एजुकेशन' के मुताबिक़ काम करना चाहता था। मौलाना अंज़र शाह कश्मीरी के प्रभाव-क्षेत्र वाले मदरसों में क़ौमी उर्दू काउंसिल ने एनसीईआरटी के विभिन्न विषयों के एक्सपर्ट द्वारा जो मदरसा सिलेबस तैयार करवाया था, उसे लागू भी कर दिया गया था।

लेकिन मदनी ख़ानदान और ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने न सिर्फ़ 'असरी-उलूम' का विरोध किया बल्कि सेंट्रल मदरसा बोर्ड भी बनने नहीं दिया जिससे कि मदरसों के निसाब और व्यवस्था में बेहतर बदलाव और पारदर्शिता लायी जा सके। इस बीच देश में बहुसंख्यक दक्षिण-पंथी विचारधारा ने लगातार मदरसों पर हमले किये कि ये 'आतंकवाद के केंद्र हैं, 'इनमें राष्ट्रवादी भावना नहीं है’ आदि। 

वक़्त की नज़ाकत को पहचाने बग़ैर देवबंद और उससे पैदा तंज़ीमों, इदारों की आपसी सियासत ने लाखों नौजवानों पर मुसलमानों को बेरोज़गारी देनेवाली अव्यावहारिक मदरसे-निज़ामी शिक्षा को ही थोपे रखा।

अब हाल यह है कि हज़ारों नौजवान सिर्फ़ इमामत या मुतवल्ली की नौकरी की तलाश में देश के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं।

मस्जिदों का और ज़्यादा निर्माण हो, इतना ज़्यादा कि ये सब उसमें खप जाएँ ये तो मुमकिन नहीं। लिहाजा ये अपने प्रभावशाली 'आला-हज़रत' उस्तादों की जी हुज़ूरी और सिफ़ारिश की बाट जोहते रहते हैं कि उनकी नज़र पड़ जाए और किसी अच्छी मस्जिद में पहले वाले को हटा कर इन्हें रखवा दिया जाए। बाहर से देखने में आपको शायद यह अंदाज़ा न हो कि मस्जिदों में मामूली-सी तनख़्वाह वाली नौकरी के लिए भी कितनी तीव्र प्रतिस्पर्धा चलती है, लेकिन हक़ीक़त यही है। जो किसी मस्जिद में खप नहीं पाते हैं वे साल में एक बार रमज़ान में अस्थाई मस्जिदों में तरावीह पढ़ा कर अमीर मुसलमानों से कुछ नज़राना पाने की कोशिश में रहते हैं। बाक़ी उनकी ज़िंदगी क़ौम की ख़ैरात पर कटती है। युवाओं में बेरोज़गारी पनपाने का ये नायाब नुस्ख़ा 21वीं सदी के इस दौर में भी जारी है।

क्या है मजबूरी?

काश साल 2000 के बाद से लगातार चल रही व्यावहारिक कोशिशों को अगर होने दिया जाता तो भारतीय मुसलमान का समाज में आज कुछ और ही हस्तक्षेप होता। अब हालात बदल गये हैं। मदनी परिवार अब समय की धारा पहचान गए हैं। तीन तलाक़ बिल के मामले में ये कुछ नहीं कर पाये। ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी सारी धमकियों और बेवकूफियों को आज़मा कर मुँह की खा गया, तो इनको समझ में आया कि अब कांग्रेस वाला दौर ख़त्म हो चुका है। मुसलिम युवा ख़ुद भी अब मॉडर्न एजुकेशन की तरफ़ मुँह कर चुका है लिहाजा अब मदरसे के निसाब को बदलने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है। 

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कट्टरपंथियों का विरोध

जस्टिस सिद्दीक़ी की कोशिशों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव, दोनों ने मदरसे के ग्रेजुएट छात्रों को नौकरी में मान्यता देने का वादा कर दिया था लेकिन कट्टरपंथियों की वजह से ऐसा हो नहीं पाया। ये कैसी विडंबना है कि करोड़ों मुसलमान नौजवानों का मुस्तक़बिल अधर में लटक गया। बहरहाल, बिन भय होये न प्रीत। अब आरएसएस और बीजेपी का दौर है जिसमें करो या मरो का मुक़ाम दरपेश है। देखते जाइये, यही ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मौलाना हज़रात और इनकी तंज़ीमें क्या-क्या मानती हैं।

16 सितंबर की सुबह-सुबह इकनॉमिक टाइम्स में ख़बर पढ़ी कि जमीअत उलेमा ए हिंद के दोनों मौलाना मदनी मान गए हैं कि मदरसों की शिक्षा में आधुनिकीकरण होना चाहिए और इसके लिए एक कमेटी भी बना ली गयी है तो पुराने हवाले ज़िंदा हो गए। ज़िद से ज़िल्लत तक का ये सफ़र मासूम नौजवानों के मुस्तक़बिल की क़ीमत पर तय हुआ है।
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