loader

'स्मृति' के बहाने विभाजन के दंश को स्थायी बनाने की जुगत!

अपने पिछले आलेख में मैंने विभाजन की विभीषिका को एक स्मृति दिवस के रूप में मनाने के पीछे के मक़सद को ढूँढने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली। आलेख पर जो प्रतिक्रियाएँ मिली हैं उनसे कुछ संकेत ज़रूर मिलते हैं। वे यह कि इस बहाने से विभाजन के ‘असली’ दोषियों की नए सिरे से पहचान प्रकट की जा सकती है...
श्रवण गर्ग

मेरे पिछले आलेख ‘विभाजन की विभीषिका को याद करने का मक़सद क्या है?’ (21 अगस्त) को लेकर जो ढेर सारी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं हैं उनमें कुछ वाक़ई परेशान करने वाली हैं। इन प्रतिक्रियाओं में न सिर्फ़ अगस्त 1947 के विभाजन की विभीषिका का स्मरण करने की वकालत ही की गई है और बताया गया है कि किस तरह से बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के साथ तब अत्याचार हुए थे, बल्कि उससे भी आगे जाकर वर्ष 1946 के 16 अगस्त की भी याद दिलाई गई है। इस दिन कोलकाता (तब कलकत्ता) में हुई साम्प्रदायिक विद्वेष की (‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के रूप में जानी जाने वाली) घटना की हाल के सालों में कभी कहीं चर्चा नहीं की गई पर अब प्रचारित की जा रही है यानी स्मृति दिवस मनाने की भूमिका शायद 14 अगस्त पर ही ख़त्म नहीं होने वाली है।

मैं इस विचार मात्र से ही सिहरन महसूस करता हूँ कि हम ‘डिजिटल इंडिया’ की नई पीढ़ी को देश के विभाजन के दौरान हुई हिंसा की जानकारी देकर उसे एक वर्ग विशेष से डराने का इरादा रखते हैं और उसी पीढ़ी के कंधों पर सभी प्रकार की हिंसा और वैमनस्य से मुक्त आधुनिक भारत के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी डालना चाहते हैं। अपने (हिंसक) अतीत में लौटने का दुस्साहस कोई ऐसा राष्ट्र ही कर सकता है जो शुरुआत करते ही रास्ता भटक गया है, उसे अपने आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है, वह उस अंधकार को चीरने से घबरा रहा है जिसके आगे रोशनी है और वह उसी स्थान पर लौटने की ज़िद और जल्दी में है जहां से उसने अपनी महत्वाकांक्षी यात्रा प्रारम्भ की थी।

ताज़ा ख़बरें

इस तरह के (साम्प्रदायिक) अतीत में योजनापूर्वक लौटना एक ऐसी मनःस्थिति है जिसमें अनुभव करने के लिए सुखद और सौंदर्यपूर्ण कुछ भी नहीं बचा है, ऐसा मान लिया जाता है। व्यक्ति सिर्फ़ ख़ौफ़नाक दृश्यों और कहानियों की ही तलाश करने लगता है जिनके पात्रों में उसकी कल्पना के नायक छुपे हुए हैं। इस तरह की योजना (या साज़िश) के लिए किसी ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ की तर्ज़ पर कोई नाम भी सोचा जा सकता है। ऐसी स्थितियाँ तब बनती हैं जब राष्ट्र नए नायकों को गढ़ने या ढालने का उपक्रम बंद कर देता है। नई कहानियाँ, नई वादियों की तलाश इरादतन रोक दी जाती है। फ़िल्म इंडस्ट्री एक बड़ा उदाहरण है कि अतीत की विडंबनाओं को रोमांटिक तरीक़े से पेश करके किस तरह पैसे भी कमाए जा सकते हैं और ‘देशभक्तों’ की फ़ौज भी खड़ी की जा सकती है।

अपने पिछले आलेख में मैंने विभाजन की विभीषिका को एक स्मृति दिवस के रूप में मनाने के पीछे के मक़सद को ढूँढने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली। आलेख पर जो प्रतिक्रियाएँ मिली हैं उनसे कुछ संकेत ज़रूर मिलते हैं। वे यह कि इस बहाने से विभाजन के ‘असली’ दोषियों की नए सिरे से पहचान प्रकट की जा सकती है। 

उन संकेतों में एक यह भी है कि आज़ादी की लड़ाई में ‘असली’ आहुति देने वाले देशभक्तों की संशोधित सूची देश के समक्ष पेश की जा सकती है।

यह भी कि एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को किस तरह से ‘मारा होगा’ के विवरण उन हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई बच्चे-बच्चियों के साथ साल-दर-साल बाँटे जा सकते हैं जो अभी एक ही स्कूल, एक ही कक्षा में साथ-साथ बैठकर पढ़ रहे हैं, एक साथ खड़े होकर सर्व धर्म समभाव की प्रार्थना कर रहे हैं, एक ही मैदान पर खेल रहे हैं और एक साथ खाना खा रहे हैं। संभव है कि इस दिशा में कोई शुरुआत हो भी चुकी हो, हालाँकि वह हमें अभी नज़र नहीं आ रही है।

विचार से ख़ास

अंग्रेज़ी अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में अगस्त के पहले सप्ताह में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद की एक मध्यमवर्गीय रहवासी कॉलोनी को लेकर एक ख़बर छपी थी। ख़बर की शुरुआत यहाँ से होती है कि कॉलोनी के रहवासी प्रतिदिन क्षेत्र के एक मंदिर पर एकत्र होकर इस बात पर विरोध प्रकट करते हैं कि इलाक़े में बहुसंख्यकों के द्वारा ख़ाली किए गए दो मकान अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को क्यों बेच दिए गए! मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बैनर भी लगा दिया गया जिस पर लिखा हुआ था कि पूरी कॉलोनी बिकाऊ है और रहवासी सामूहिक पलायन करना चाहते हैं। रहवासियों के मुताबिक़: “जब एक ऐसी समझ बनी हुई है कि ‘वे’ उनके इलाक़ों में रहेंगे और ‘हम’ हमारे में तो ‘वे’ ज़बरदस्ती यहाँ आकर माहौल क्यों बिगाड़ना चाहते हैं? ‘हमारी संस्कृति और त्योहार सब उनसे अलग हैं’।”

पाकिस्तान कोई एक दिन में नहीं बना होगा और न ही विभाजन कोई एक तय तारीख़ पर ही सम्पन्न हो गया होगा। जो विभाजन पंद्रह अगस्त के पहले हुआ होगा वह पचहत्तर साल बाद आज भी जारी है।

हर शहर और बस्ती में नए-नए पाकिस्तान इसीलिए बन रहे हैं कि लोग साथ में रहने या दूसरों को अपने साथ में रहने देने के लिए तैयार नहीं हैं। विभाजन की हिंसक-अहिंसक और मौन विभीषिकाएँ तो हरेक दिन महसूस की जा रही हैं। ’स्मृति दिवस’ किस-किस विभीषिका के मनाए जाएँगे?

एक राष्ट्र के तौर पर हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि साम्प्रदायिक सद्भाव, आपसी एकता और भाईचारे के नाम पर पिछले सात से अधिक दशकों से जो कुछ भी चलता रहा है, जो भी नारे और बैनर ईज़ाद होते रहे हैं, ‘सबको सन्मति दे भगवान’ टाइप जो भजन तैयार किए जाते रहे हैं वे सब दरअसल में बनावटी या मुखौटा भर थे, मात्र चुनावी स्टंट रहे हैं। सच यही है कि देश के जनमानस की असलियत भिन्न है जिसे पिछले तमाम सालों में दबाकर रखा गया और वह अब फूटकर बाहर आ रही है। यानी कि वक़्त आ गया है कि भारत के नागरिकों को उनकी 'वास्तविक भारतीयता' या 'हिंदुस्तानियत' से रूबरू करवा दिया जाए।

ख़ास ख़बरें
अतीत की किन-किन पहचानों को ख़त्म करना है और किन्हें पुनर्जीवित कर उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करनी है, यह सब किसी ऐसे दूरगामी राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे का ही हिस्सा हो सकता है जिसमें भावनाओं या मानवीय संवेदनाओं के लिए हाशिए पर भी कोई जगह नहीं छोड़ी गई है। राजनीति में विपक्ष या प्रतिरोध के प्रति निर्ममता को जब अनिवार्य मान लिया जाता है तो फिर उसका इस्तेमाल देश के सांस्कृतिक-धार्मिक ‘पुनरुत्थान’ में भी करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रतिपक्ष भी छटपटाने लगता है और वास्तविक अतीत भी अपने संरक्षण के लिए याचक की मुद्रा में आ जाता है। इस तरह के संघर्षों में नागरिक की कमजोर उपस्थिति क्रमशः गौण होती जाती है। इस समय ऐसा ही हो रहा है। मुरादाबाद की घटना में अपने स्वयं के सामूहिक पलायन की धमकी हक़ीक़त में उन लोगों के लिए मानी जा सकती है जिनकी आनेवाली पीढ़ियों से भी हम ‘स्मृति दिवस‘ के रूप में विभाजन की विभीषिका का बदला लेने की मंशा रखते हैं।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
श्रवण गर्ग

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें