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भारत जी-हुजूरों का लोकतंत्र?

इस वक़्त बीजेपी और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी बीजेपी की साख कायम है। यानी अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। 
डॉ. वेद प्रताप वैदिक

नवजोतसिंह सिद्धू का मामला अभी अधर में ही लटका हुआ है और इधर कल-कल में कुछ ऐसी घटनाएँ और भी हो गई हैं, जो कांग्रेस पार्टी की मुसीबतों को तूल दे रही हैं। पहली बात तो यह कि पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह से मिले। क्यों मिले? बताया गया कि किसान आंदोलन के बारे में उन्होंने बात की। की होगी लेकिन किस हैसियत में की होगी? अब वे न मुख्यमंत्री हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष! तो बात यह हुई होगी कि अमरिंदर का अगला क़दम क्या होगा? वह भाजपा में प्रवेश करेंगे या अपनी नई पार्टी बनाएंगे या घर बैठे कांग्रेस की जड़ खोदेंगे?

उधर गोवा के शीर्ष कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ल्युजिनो फलीरो ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। गोवा में कांग्रेस की दाल पहले से ही काफी पतली हो रही है और अब नौ अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ फलीरो का तृणमूल में जाना गोवा की कांग्रेस के चार विधायकों की संख्या को घटाकर आधी न कर दे? 

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यह ठीक है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस से जुड़ने की घोषणा कर दी है। ये दोनों युवा नेता दलितों और वंचितों को कांग्रेस से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे कांग्रेस में रहकर वैसा कर पाएंगे? इस समय कांग्रेस में माँ-बेटा और बहन के अलावा जितने भी नेता हैं, क्या उनकी स्थिति देश के दलितों से बेहतर है? दलितों के कुछ संवैधानिक अधिकार तो हैं और उन पर अन्याय हो तो वे अदालत की शरण में जा सकते हैं लेकिन कांग्रेसी जब दले जाते हैं तो वे किसकी शरण में जाएँ? 

जी-23 के नेता कपिल सिब्बल चाहे दावा करें कि उनके 23 पत्रलेखक कांग्रेसी नेता जी-23 तो हैं लेकिन वे जी-हुजूर—23 नहीं हैं, लेकिन उनके इस दावे पर मुझे एक शेर याद आ रहा है- 

‘इश्के-बुतां में ज़िंदगी गुजर गई मोमिन। 

आखरी वक़्त क्या खाक मुसलमां होंगे?’ 

इंदिरा कांग्रेस में वही नेता अभी तक टिक सके हैं और आगे बढ़ सके हैं, जो चापलूसी के महापंडित हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कितने नेता हैं? इंदिराजी ने नई कांग्रेस का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष बन गया था। इस वटवृक्ष में अब घुन लग गया है। 

दो साल हो गए, कांग्रेस का कोई बाक़ायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है, जैसे युद्ध में बिना सर के धड़ चला करते हैं। पता नहीं, यह धड़ अब कितने क़दम और चलेगा?

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के इस शरीर के लड़खड़ाने की ख़बर आती रहती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी आज की कांग्रेस मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले की तरह अपनी आख़िरी सांसें गिन रही है। देश के लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है? यदि कांग्रेस बेजान हो गई तो बीजेपी को कांग्रेस बनने से कौन रोक सकता है? तब पूरा भारत ही जी-हुज़ूरों का लोकतंत्र बन जाएगा। 

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इस वक़्त बीजेपी और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी बीजेपी की साख कायम है। यानी अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। यदि हम संयुक्तराष्ट्र संघ में जाकर भारत को ‘लोकतंत्र की अम्मा’ घोषित कर रहे हैं तो हमें अपनी इस अम्मा के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सदा सावधान रहना होगा।

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डॉ. वेद प्रताप वैदिक

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