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हिंदी राष्ट्रभाषा कब बनेगी?

एक सच यह भी है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की लड़ाई या उसे लोकप्रिय बनाने का ज़्यादातर काम ग़ैर-हिन्दी भाषी नेताओं ने किया है। इनमें महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस, राजगोपालाचारी और  रवीन्द्र नाथ टेगौर जैसे लोग शामिल हैं। 
विजय त्रिवेदी

आजकल हिन्दी का मौसम चल रहा है। सरकारी दफ़्तरों और बहुत से ग़ैर सरकारी आयोजनों के बाहर हिन्दी सप्ताह मनाए जाने के पोस्टर, बैनर लगे हुए हैं। मानो हिन्दी कोई त्यौहार या मौसम हो या फिर आजकल के ज़माने की मार्केटिंग का हिस्सा होते हुए ‘ऑफ़ सीजन सेल’ का मौसम हो।

सितम्बर आते-आते हिन्दी की याद सताने लगती है। सरकारी समारोहों का सिलसिला शुरू होता है। इसके लिए सरकारी दफ़्तरों में बैठे अंग्रेज़ी दा अफसर, जिन्हें हिन्दी बोलने वालों की गंध भी नहीं सुहाती, वो अपने नीचे बैठे अफ़सर को अंग्रेजी में एक नोट बना कर उस हिसाब से कार्यक्रम बनाने के आदेश देते हैं, फिर ज़्यादातर कार्यक्रमों में सरकारी मदद नहीं मिलने या कमज़ोरी और दूसरे बहाने गिनाए जाने लगते हैं। 

ऐसे मौक़े पर बहुत से हिन्दी विशेषज्ञ और लेखक भी उग आते हैं, जो ज़्यादातर कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते हैं और फिर जैसे तैसे यह सप्ताह 14 सितम्बर को ख़त्म हो जाता है। अगले साल तक हिन्दी की फ़ाइल को बंद करके रख दिया जाता है।

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सवाल यह है कि इस देश में हिन्दी सप्ताह या हिन्दी दिवस मनाने की ज़रूरत क्या है? हिन्दी के व्यंगकार हरिशंकर परसाई कहते थे- ‘दिवस तो कमज़ोर चीज़ों या लोगों का मनाया जाता है जैसे मज़दूर दिवस, महिला दिवस आदि आदि, कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।’ उनका तंज तो अलग है, लेकिन सच यह है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से तंवाग तक आपको देश में हिंदी समझने और बोलने वाले लोग मिल जाएंगे। देश में 60 करोड़ से ज़्यादा लोग हिन्दी बोलते हैं। हिन्दी हमारी सांस में चलती है, विचार में चलती है। 

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एक बार कहा था कि वे प्रधानमंत्री शायद इसलिए नहीं बन पाए क्योंकि वे अच्छी हिन्दी नहीं बोल पाते थे। इसलिए ज़्यादातर ग़ैर हिन्दी भाषी राजनेता भी राष्ट्रीय छवि बनाने के लिए हिन्दी में भाषण देने लगते हैं। आजकल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ख़ूब हिन्दी बोलने लगी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों ही ग़ैर-हिन्दी भाषी प्रदेश गुजरात से आते हैं, लेकिन उनकी हिन्दी में भाषण देने की कला की वजह भी उनके देश भर में लोकप्रिय होने की एक बड़ी वजह है।

मौजूदा केन्द्र सरकार में ज़्यादातर राजनेता हिन्दी बोलने और समझने वाले हैं। राज्यों में भी ऐसे ही नेताओं की भरमार है तो फिर हिन्दी को लेकर इतनी बेबसी क्यों है?

सवाल यह है कि जो सरकार हिन्दी के दमखम पर टिकी है और उसने अपने एजेंडे के ज़्यादातर कामों को पूरा कर लिया है चाहे वो सत्तर साल पुराना अनुच्छेद 370 को कश्मीर से हटाने का मसला हो या पांच सौ साल पुराना राम मंदिर विवाद, तो फिर हिन्दी इस सरकार की प्राथमिकता क्यों नहीं है? हमने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की समय सीमा पन्द्रह साल तय की थी, लेकिन अभी तक उस पर अमल नहीं कर पाए हैं। आज़ादी के 75 साल का जश्न जब हम मना रहे हों तब भी इस देश के पास राजभाषा नहीं है। देश के पास राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्र गीत है, संविधान है, राष्ट्रीय पशु है, पक्षी है, लेकिन भाषा नहीं है। 

हर चीज़ में ‘वन नेशन वन राशनकार्ड’, ‘वन नेशन वन नंबर’ या ‘एक देश एक विधान’ का नारा देने वाली सरकार को क्या देश के लिए एक भाषा की ज़रूरत महसूस नहीं होती? हिन्दी हमारी अस्मिता का सवाल है, हमारे आत्म सम्मान का मुद्दा है।

सरकारी फ़ाइलों से लड़ती-जूझती, कुचलती हिन्दी को आत्म सम्मान देने या उसे राजभाषा बनाने के लिए इजरायल से बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। वैसे भी हम आजकल हर मुद्दे पर इजरायल को याद करते रहते हैं। हमारी आज़ादी के बाद इजरायल की स्थापना 14 मई 1948 को हुई थी। यहूदी राष्ट्रवादी डेविड बेन गुरियन इजरायल के पहले प्रधानमंत्री बने। यहुदियों की भाषा ‘हिब्रू’ क़रीब तीन हज़ार साल पुरानी थी, लेकिन तब वो बोलचाल में नहीं थी, मृत भाषा जैसी स्थिति उसकी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद डेविड बेन गुरियन ने अपने सहयोगियों और अफसरों से पूछा कि- “अगर ‘हिब्रू’ को राजभाषा बनाना है तो इसमें कितना समय लगेगा”। अफसरों का जवाब था, ‘हिब्रू भाषा चलन में नहीं है, इसलिए इस काम में वक्त लगेगा।’ गुरियन ने आदेश दिया कि कल सुबह से हमारी राजभाषा हिब्रू होगी और अगले दिन अरबी को विशेष भाषा के साथ, हिब्रू को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया। आज इजरायल की आधिकारिक भाषा हिब्रू है और क़रीब एक करोड़ लोग हिब्रू बोलते हैं। 

राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने कहा था –

‘जिसको न निज देश और निज भाषा का अभिमान है, वह नर नहीं पशु निरा और मृतक समान है।’ 

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एक सच यह भी है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की लड़ाई या उसे लोकप्रिय बनाने का ज़्यादातर काम ग़ैर-हिन्दी भाषी नेताओं ने किया है। इनमें महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस, राजगोपालाचारी और  रवीन्द्र नाथ टेगौर जैसे लोग शामिल हैं। ग़ैर-हिन्दी भाषी राज्यों के समर्थन के लिए हिन्दी भाषी राज्यों में दूसरी प्रांतीय भाषा सीखने पर जोर देने से भी मदद मिल सकती है, लेकिन लगता है कि हिन्दी बोलने वालों की महानता तो इसमें ही है कि वे कोई दूसरी भाषा या तो सीखना नहीं चाहते या सीख नहीं सकते। वैसे, अब देश भर में मौटे तौर पर हिन्दी का सख़्त विरोध नहीं दिखाई पड़ता है। 

एक ज़माने तक अख़बारों ने हिन्दी को आगे बढ़ाने और फैलाने में बड़ी मदद की लेकिन अब तो ज़्यादातर हिन्दी अख़बार अंग्रेजी के शब्दों का ग़ैर-ज़रूरी इस्तेमाल करने लगे हैं, भले ही उसे आसान और ज़्यादा प्रचलित शब्द हिन्दी में मौजूद हों। सबसे लोकप्रिय माध्यम टीवी चैनलों में भले ही हिन्दी चैनल ज़्यादा लोकप्रिय हों, लेकिन उनमें भी अंग्रेजी का इस्तेमाल और अंग्रेजी संपादकों का दबदबा दिखाई देता है। अब नवभारत टाइम्स के संपादक रहे राजेन्द्र माथुर और जनसत्ता के संपादक रहे प्रभाष जोशी जैसे संपादकों की कमी खटकती है।

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हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है कि उसे बोलने वालों में आत्म-सम्मान का भाव हो और वे हिन्दी बोलने में शर्म महसूस नहीं करें, जैसे बांग्लाभाषी, मराठी, पंजाबी या तमिल और दूसरी भाषाओं के लोग बड़े गर्व के साथ बोलचाल के लिए अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। हिन्दी के बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल के लिए कवि भवानी प्रसाद मिश्र की यह राय बड़े काम की है-

‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद फिर, हमसे बड़ा तू दिख।’ 

हिन्दी साहित्य के आदिपुरुष माने जाने वाले भारतेंदु हरिशचन्द्र ने तो हिंदी के लिए लिखा था- 

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। 

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल।” 

हिन्दी की लोकप्रियता का पैमाना बॉलीवुड की फ़िल्मों से बड़ा नहीं हो सकता जिसने देश के हर कोने में बसे लोगों के दिलों पर ही राज नहीं कर रखा है बल्कि दुनिया भर में अपना परचम फहराया है। हिन्दी को गौरव और सम्मान के साथ ताक़तवर बनाने वालों में मौजूदा नयी पीढ़ी के कवि कुमार विश्वास की चर्चा के बिना बात पूरी नही हो सकती जब वो दुनिया के किसी मंच पर अपनी कविता की पहली लाइन गुनगुनाते हैं कि –

“कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है,

मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है।”  

तो मंच के दूसरी तरफ भीड़ सुर मिलाती है-

“मैं तुझसे दूर कैसा हूं, तू मुझसे दूर कैसी है।

ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है।।”  

हिन्दी की धरती की इस बेचैनी को सरकार में बैठे बादल को समझने का वक़्त आ गया है। बेहतर होगा कि वो जितना जल्दी हो, इसे समझ ले। गरजने वाले बादल भले ही नहीं बरसते हों, लेकिन भरे हुए बादल कब बरस जाए, इसका अंदाज़ा लगा लेना चाहिए।

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