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क्रिकेट के लिए चीनी कंपनी प्रायोजक। (फाइल फोटो)फोटो साभार/ट्विटर/आईपीएल

क्रिकेट के लिए चीनी कंपनी को ‘हाँ’, ओलंपिक के लिए ‘ना’, ऐसा क्यों?

यूँ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘वन’ को नारे की तरह इस्तेमाल करते हैं। ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ या ‘वन नेशन-वन राशन कार्ड’ जैसे लुभावने नारे उछाल कर देश और दुनिया को नए तरह का और नए तरह से सियासी संदेश देते हैं। एक तरह से वे बताते हैं कि वे दूरदर्शी हैं और देश को एक करने में उनके ये नारे प्रेरक साबित हो सकते हैं लेकिन वन का यह जाप नरेंद्र मोदी अपनी सुविधा से इस्तेमाल करते हैं।

कोरोना काल में ‘वन नेशन-वन वैक्सीनेशन’ का नारा नहीं दिया। वैक्सीन की क़ीमतों को लेकर भी उनका ‘वन’ का नारा ज़मीन पर नहीं उतरा। ऐसा ही कुछ अब खेलों में देखने को मिल रहा है। ‘वन नेशन’ तो है लेकिन खेलों के लिए नियम-क़ायदे अलग-अलग हैं सरकार के। क्रिकेट को हर चीज की छूट तो दूसरे खेलों पर बंदिशें और पाबंदियाँ। सवाल यह है कि जब ‘वन’ पर इतना जोर है तो क्रिकेट और दूसरे खेलों के मामले में ‘वन नेशन-वन इमोशन’ जैसी बातें क्यों नहीं। क्रिकेट से जुड़े मामलों पर सरकार चुप रहती है, लेकिन दूसरे खेलों की बात आती है तो प्रधानमंत्री कार्यालय हस्तक्षेप करता है। यानी सरकार क्रिकेट और दूसरे खेलों को लेकर भेदभाव करती है।

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टोक्यो ओलंपिक में भारतीय टीम को हिस्सा लेना है। भारतीय ओलंपिक संघ ने भारतीय दल के लिए चीन की खेलों की पोशाक बनाने वाली कंपनी ली निंग से क़रार कर रखा था। ली निंग भारतीय टीम की प्रायोजक थी लेकिन अब नहीं है। ऐसा कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस पर कड़ा एतराज़ जताया और पीएमओ के हस्तक्षेप के बाद ली-निंग के क़रार को रद्द कर दिया गया है। दिलचस्प यह है कि कुछ दिन पहले देश के खेल मंत्री किरण रिजीजू ने एक समारोह में चीन की खेलों की पोशाक निर्माता कंपनी ली निंग की पोशाक लांच की थी। भारतीय टीम ओलंपिक खेलों में इन पोशाकों को पहन कर ही मुक़ाबले में हिस्सा लेती। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। पोशाक लांच के मौक़े पर आईओए अध्यक्ष डॉक्टर नरेंद्र बत्रा और महासचिव राजीव मेहता भी मौजूद थे।

ओलंपिक नज़दीक है और खेल मंत्रालय और आईओए के बीच तनातनी बढ़ गई है। अब खेल मंत्रालय कह रहा है कि ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ी, कोच और सहयोगी स्टाफ ब्रांड वाली कोई पोशाक नहीं पहनेंगे। उनकी किट पर बस ‘इंडिया’ लिखा होगा। वजह साफ़ है। ली निंग चीन की कंपनी है और भारत चीन की कंपनी को प्रायोजक के तौर पर देखना पसंद नहीं करता।

दरअसल, पिछले साल गलवान घाटी में चीन की घुसपैठ के बाद देश में चीन विरोधी माहौल बना। सरकार ने टिकटॉक से लेकर कई ऐप पर पाबांदी लगा कर मीडिया में सुर्खियाँ बटोरीं। इसके बाद सरकारी चियर लीडर्स और दूसरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कसीदे पढ़े। उनकी लाल आँखों का ज़िक्र हुआ, छप्पन इंच के सीने की बात हुई। हालाँकि इस पर बात नहीं हुई कि चीन भारत की सीमा में घुसा था तो वहाँ से पीछे हटा या नहीं। अब भी नहीं हो रहा है। लेकिन सरकारी चियर लीडर्स तो टिकटॉक की पाबंदी लगाए जाने के बाद ही सरकार की टिकटॉक करते दिखाई दिए। लेकिन इन पाबंदियों के बावजूद देश के बाज़ार में चीनी उत्पाद कम नहीं हुए। खास कर मोबाइल और दूसरे उपकरण। इस पर चर्चा न के बराबर हुई। 

इस पर भी चर्चा नहीं हुई कि चीन की मोबाइल कंपनी वीवो आईपीएल की प्रायोजक क्यों है। न सरकार ने इस पर किसी तरह का क़दम उठाया और न ही लोगों ने आँखें तरेरीं।

लोग भी अपना ग़ुस्सा चीन में बने आतिशबाज़ी, फुलझड़ियों, लड़ियों पर ही निकालते हैं, मोबाइल वगैरह पर नहीं। इसलिए वीवो आईपीएल में फिर से शान से स्पांसर बना। बीसीसीआई ने पलक-पांवड़े बिछा कर उसका स्वागत किया। लेकिन तब न सरकार ने सवाल उठाया और न ही उन लोगों ने जो राष्ट्रभक्ती और देशभक्ती का ढोल पीटने में लगे थे। 

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बीसीसीआई के लिए तो पैसा ज़रूरी है। प्रायोजक चीन का हो या पाकिस्तान का उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए कोरोना काल में मौतों के बीच भी आईपीएल चलता रहा। लोग सांसों के लिए संघर्ष कर रहे थे और क्रिकेटर जीत-हार के बीच पैसा बनाने पर। यानी बीसीसीआई अकाल में उत्सव मनाता रहा। विदेशी खिलाड़ियों की घर वापसी नहीं हुई होती और कई खिलाड़ियों को कोरोना नहीं हुआ होता तो अब तक तो आईपीएल संपन्न करवा कर सौरभ गांगुली और जय शाह की टीम अपनी पीठ थपथपा रही होती। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। आईपीएल को बीच में ही स्थगित करना पड़ा। तब सौरभ गांगुली जो बोर्ड के अध्यक्ष हैं उन्होंने कहा था कि आईपीएल अगर पूरा नहीं होगा तो बोर्ड को 2500 करोड़ का नुक़सान होगा। इससे ही बोर्ड और उसके पदाधिकारियों की संवेदनशीलता को समझा जा सकता है। 

वैसे भी क्रिकेट में गजब भाईचारा है। दलों से ऊपर उठ कर सब क्रिकेट-क्रिकेट खेलते रहते हैं। राज्य से लेकर बोर्ड तक में भाजपा, कांग्रेस और दूसरे दलों के नेताओं का बोलबाला है और बोर्ड के हमाम में सब नंगे हैं।

इसलिए जिस तरह की आत्मीयता और भाईचारा यहाँ दिखाई पड़ती है, उसकी नजीर कम ही दिखाई पड़ती है सियासत में। हर कोई बीसीसीआई की गंगा में हाथ धोने में लगा है। इनमें क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ी भी हैं जो बीसीसीआई से होने वाली कमाई की वजह से कोरोना काल में मैचों के आयोजन पर चुप्पी ही साधे रहे।

लेकिन सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ओलंपिक में हिस्सा लेने वाली भारतीय टीम के प्रायोजक पर सवाल उठाता है क्योंकि आईओए ने करार चीन की कंपनी से किया था, लेकिन आईपीएल की स्पांसर चीन की कंपनी है इस पर उसे कोई एतराज नहीं है? यह भेदभाव क्यों?

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क्या क्रिकेट को यह छूट जय शाह की वजह से मिली हुई है? यह हम सब जानते हैं कि वे गृहमंत्री अमित शाह के बेटे हैं और वे बीसीसीआई के सचिव हैं।

बड़ा सवाल यह है कि देशभक्ति के पैमाने दो क्यों? क्रिकेट के लिए चीनी कंपनी पर एतराज नहीं तो ओलंपिक जाने वाली टीम के स्पांसर पर एतराज क्यों? आईओए ने तो साफ़ कहा कि देशवासियों की भावना को ध्यान में रखते हुए ली-निंग से क़रार ख़त्म किया जा रहा है। लेकिन सच तो यह है कि आईओए पर दबाव बनाया गया। पीएमओ ने दखल नहीं दिया होता तो न खेल मंत्रालय की नींद टूटती और न ही आईओए को इस तरह का फ़ैसला लेना पड़ता। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय को इसी तरह का हस्तक्षेप तो आईपीएल में भी करना चाहिए था और बीसीसीआई को देशवासियों की भावना बतानी चाहिए थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।

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फ़ज़ल इमाम मल्लिक

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