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योगी की जुबान से क्यों बरसती है साम्प्रदायिकता की आग?

गोरक्षनाथ पीठ में मकर संक्रांति पर होने वाले सालाना खिचड़ी मेले में मंदिर परिसर में दुकानें लगाने वाले ज़्यादातर व्यापारी मुसलिम होते हैं। यानी योगी आदित्यनाथ के क्या दो चेहरे हैं- एक चुनावी राजनीति का चेहरा और दूसरा महंत योगी आदित्यनाथ का चरित्र और चेहरा। तो सवाल यह भी है कि क्या चुनाव में जीतना ही सबसे महत्वपूर्ण है?
विजय त्रिवेदी

कहा जाता है कि मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है। किसने कहा, इसकी जानकारी तो नहीं, अलबत्ता इतिहास को देखें तो बात मुझे ठीक नहीं लगती। हमारे यहाँ युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता रहा है और उस युद्ध में जीत से ज़्यादा युद्ध लड़ने के तरीक़ों पर ज़ोर दिया जाता रहा है। युद्ध में नियमों के पालन की बात हमेशा होती रही। और रही बात मुहब्बत की तो सच्ची मुहब्बत में जीतना कभी अहम रहा ही नहीं। न कभी कृष्ण और गोपियों के बीच, न हीर रांझा में और न ही सलीम-अनारकली में। लेकिन अब मुहब्बत और जंग के साथ-साथ चुनावों में भी कुछ भी करना जायज़ माना जाने लगा है क्योंकि चुनाव में अब सिर्फ़ जीत महत्वपूर्ण है।

'जीत' का यह फ़ैक्टर चुनाव में टिकट मिलने के साथ शुरू होता है जहाँ सिर्फ़ 'विनेबिलिटी' यानी जीतने की संभावना ही टिकट की उम्मीदवारी तय करती है, इसलिए ऐन वक़्त पर दूसरी पार्टी से आए धनकुबेरों और अपराधियों को टिकट देने में पार्टियाँ नहीं हिचकिचातीं। और फिर शुरू होता है चुनाव प्रचार अभियान, जहाँ राजनेता सब सीमाएँ तोड़ देते हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव अभियान में राजनेताओं ने मानो कसम खा ली है कि चुनाव जीतने के लिए कुछ भी बोलना पड़े, उससे वे पीछे नहीं हटेंगे। 

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बीजेपी के युवा नेता और केंद्र में मंत्री अनुराग ठाकुर जनसभा में 'गोली मारो' के नारे लगवाते हैं तो सांसद प्रवेश वर्मा एक समुदाय विशेष के लिए आपत्तिजनक बातें करते हैं, लेकिन कोई उन्हें चुप होने के लिए नहीं कहता। चुनाव आयोग 72 घंटे तक प्रचार नहीं करने का आदेश देकर अपनी औपचारिकता पूरी करता है। 

हैरानी होती है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार अभियान से। योगी तीन दिन के लिए दिल्ली में चुनाव प्रचार कर रहे हैं। वह देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक यूपी के मुख्यमंत्री हैं। 

क़रीब 20 साल तक सांसद रहे हैं, लेकिन अपने अभियान में योगी यूपी सरकार के कामकाज की चर्चा नहीं करते और न ही दिल्ली सरकार से उसकी तुलना करते हैं, बल्कि वह अपने भाषणों में आग उगलते हैं। उनकी जुबान से साम्प्रदायिकता बरसती है। दिल्ली में अपनी सभा में योगी कहते हैं कि हम आतंकवादियों को बिरयानी नहीं खिलाते, गोली खिलाएँगे। काँवड़ियों की चर्चा करते हुए वह धमकी भरी भाषा में बोलते हैं कि काँवड़ियों का विरोध करने वालों पर बोली नहीं, गोली से जवाब दिया जाएगा।
धरने और प्रदर्शन से अपनी राजनीति को ताक़तवर बनाने वाले योगी आदित्यनाथ दिल्ली के शाहीन बाग़ में पचास दिन से चल रहे धरने और प्रदर्शन का केवल विरोध ही नहीं करते, उसे देश को बाँटने वाला प्रदर्शन बताते हैं।

नागरिकता संशोधन क़ानून पर योगी का समर्थन तो ठीक हो सकता है, लेकिन समर्थन की जुबान सीधी-सपाट नहीं है और उससे कई तीर निकलते हैं। 

लेकिन इन बयानों से नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र का आकलन करने लगेंगे तो फिर बहुत सी ग़लतफहमियाँ पैदा होने लगेंगी। योगी आदित्यनाथ को मैं लंबे समय से जानता हूँ। वह यूपी में गोरखपुर में गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर भी हैं, महंत हैं, पूरे गोरखपुर में ही नहीं, आसपास के इलाक़ों से लेकर नेपाल तक उनकी बहुत प्रतिष्ठा है। 

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गोरखपुर में योगी की पैठ क्यों?

गोरक्षनाथ पीठ की चहारदीवारी से जुड़ा गोरखपुर का ज़्यादातर इलाक़ा मुसलिम बाहुल्य क्षेत्र है और वहाँ आम तौर पर कोई साम्प्रदायिक तनाव नहीं रहता। गोरक्षनाथ पीठ में योगी आदित्यनाथ के कमरे से जुड़ा ऑफ़िस है जहाँ सबेरे सात बजे से देर रात तक लोगों का आना-जाना लगा रहता है। वे मोहल्ले से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा से जुड़े मसलों से साथ-साथ अपनी निजी समस्याएँ भी लेकर आते हैं और इसमें हर मजहब और जाति के लोग शामिल होते हैं। योगी आदित्यनाथ जब वहाँ अपने कमरे में बैठते हैं तो निजी समस्याओं का भी रास्ता सुझाते हैं और सब लोग उनकी मध्यस्थता और आदेश का सम्मान करते हैं।

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गोरक्षनाथ पीठ में मकर संक्रांति पर होने वाले सालाना खिचड़ी मेले में मंदिर परिसर में दुकानें लगाने वाले ज़्यादातर व्यापारी मुसलिम होते हैं। यानी योगी आदित्यनाथ के क्या दो चेहरे हैं- एक चुनावी राजनीति का चेहरा और दूसरा महंत योगी आदित्यनाथ का चरित्र और चेहरा। तो सवाल यह भी है कि क्या चुनाव में जीतना ही सबसे महत्वपूर्ण है? क्या चुनावी जीत के लिए आप अपने निजी चरित्र और सम्मान को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार रहते हैं और सबसे अहम कि राष्ट्र और समाज को बाँटने की कोशिश करके भी चुनाव जीतना ज़रूरी है?

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विजय त्रिवेदी

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