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नारों की हक़ीकत से दूर जाति-गोत्र में उलझी लोकतंत्र की लड़ाई

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं इस बात का अंदाज़ा चुनाव पूर्व के दो महीनों में लगाया जा सकता है। साढ़े चार साल तक जो पार्टियाँ विकास की बातें और बड़ी-बड़ी योजनाएँ व आँकड़े दिखाती रहती हैं चुनाव में जाति-धर्म-कुल-गोत्र और क्षेत्र में उलझकर रह जाती हैं। उम्मीदवारों की योग्यता धनबल और भुजबल की कसौटी पर आँकी जाने लगती है तथा जिताऊ प्रत्याशी के चेहरे तले लोकतंत्र को साम-दाम-दंड-भेद के फ़ॉर्मूले से साधने का खेल खेला जाता है। देश के मीडिया में जाति-धर्म को लेकर सबसे ज़्यादा पंचनामा उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का किया जाता है, लेकिन तक़रीबन हर प्रदेश में यह खेल उतनी ही बेशर्मी से खेला जाता है जितना कि उत्तर प्रदेश-बिहार में। 

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फुले-शाहू- आम्बेडकरी आन्दोलन की दुहाई महाराष्ट्र में हर नेता देता है और हर बात की शुरुआत प्रगतिशील महाराष्ट्र (मराठी में पुरोगामी महाराष्ट्र) बोल कर ही करता है। नेताओं के मुँह से ये प्रगतिशील विचार साढ़े चार साल तक अनायास ही निकलते रहते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो जाति-शर्म-क्षेत्र-गोत्र के नए नए फ़ॉर्मूले बनने लगते हैं। 

दरअसल महाराष्ट्र में भी जाति-पाँति के समीकरण उसी दौर में बनने शुरू हो गए थे जिस दौर में कांशी राम दलितों को लेकर नयी-नयी पार्टियों की संरचना तैयार कर रहे थे या अपनी सोशल इंजीनियरिंग गढ़ रहे थे।

संघ की परिकल्पना ‘माधव’

महाराष्ट्र में यह इंजीनियरिंग संघ के नेताओं द्वारा गढ़ी जा रही थी शायद इसलिए इस पर मीडिया इतना आक्रामक नहीं रहा या चर्चा का विषय नहीं बना। इस सोशल इंजीनियरिंग के तार जुड़े हैं महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के दौर से। साल 1980 के उस दौर में यहाँ ‘माधव’ नामक एक फ़ॉर्मूला बनाया गया। इस ‘माधव’ का मतलब माली -धनगर और वंजारी समाज से है। उस दौर में कांग्रेस की राजनीति पूरी तरह से मराठा समाज के हाथों में थी। दलित तब संघ को उसकी विचारधारा को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते थे, मंडल कमीशन के पहले ओबीसी जैसे किसी वर्ग का कोई स्वरूप निर्धारित नहीं था लिहाज़ा संघ ने इन जातियों को केन्द्रित कर ‘माधव’ की कल्पना की। माधव के सहारे बीजेपी ने महाराष्ट्र में अपनी राजनीति शुरू की और उसे वंजारी समाज से गोपी नाथ मुंडे जैसा युवा नेतृत्व भी मिला। संघ के इस फ़ॉर्मूले को देखें तो उसने देश में ओबीसी राजनीति की नस को महाराष्ट्र में ही पकड़ लिया था जो आज देश में उसके लिए मज़बूत आधार साबित हुआ और उसे केंद्र की सत्ता में स्थापित करा दिया।

लालू, मुलायम, मायावती का समीकरण

आज उसी ओबीसी फ़ॉर्मूले के तहत कांग्रेस भी अपनी राजनीति उसी पर केन्द्रित कर रही है। लालू-मुलायम का मुसलिम-यादव (MY) समीकरण या मायावती की स्वर्ण-दलित की सोशल इंजीनियरिंग तो पूरे प्रदेश के हिसाब से बनती रही हैं, लेकिन महाराष्ट्र में सोशल इंजीनियरिंग की जड़ें इतनी गहरी हैं कि अब वे हर लोकसभा और विधानसभा के हिसाब से गढ़ी जाने लगी हैं। ये लोकल फ़ॉर्मूले सफल भी होते हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सबसे भारी नेता, जो आजकल भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी ख़बरों में छाये रहते हैं, की नागपुर लोकसभा सीट पर भी ऐसा ही एक लोकल फ़ॉर्मूला चर्चा में है। नितिन गडकरी के ख़िलाफ़ उनकी ही पार्टी के गोंदिया से सांसद नाना पटोले, जिन्होंने नरेंद्र मोदी से नाराज़ होकर कांग्रेस में प्रवेश किया, मैदान में हैं।

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संघ के गढ़ नागपुर में जातिय समीकरण

नागपुर में दलित-मुस्लिम-कुनबी (DMK) पैटर्न चर्चा में है। नागपुर सीट पर इन तीनों जाति के मतदाताओं की संख्या बहुत प्रभावी है इसलिए आने वाले दिनों में गडकरी को इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा। ये लोकल फ़ॉर्मूले काफ़ी प्रभावी भी सिद्ध होते रहे हैं। 1995 के विधानसभा चुनाव में लातूर विधानसभा क्षेत्र में मराठा नेता विलास राव देशमुख के ख़िलाफ़ ‘मामूली रे’ (मारवाड़ी-मुस्लिम-लिंगायत-रेड्डी) फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल किया गया। मराठा नेता के ख़िलाफ़ ये सभी ग़ैर-मराठा जातियाँ एकत्र हुईं और विलासराव देशमुख को शिवाजी राव पाटिल के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा। ऐसा ही एक फ़ार्मूला है ‘वाजवा टाळी पळवा माळी’ (ताली बजाओ -माली भगाओ) यह नारा मराठा और माली समाज के बीच एक संघर्ष के रूप में भी देखा जाता रहा है। 

नासिक में छगन भुजबल के ख़िलाफ़ इसका कई बार इस्तेमाल किया गया लेकिन इससे छगन भुजबल को नुक़सान की बजाय फ़ायदा ज़्यादा हुआ और आज वे पूरे महाराष्ट्र में माली समाज के सबसे प्रभावी नेता सिद्ध हुए हैं। स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के नेता राजू शेट्टी के ख़िलाफ़ भी यह नारा आम हो चुका है। राजू शेट्टी हालाँकि माली समाज से नहीं आते लेकिन वे किसानों के नेता हैं इसलिए खेती पर ज़्यादा निर्भर रहने वाला माली समाज हमेशा उनके साथ खड़ा रहता है। इस बार शिरूर लोकसभा में भी यह फ़ॉर्मूला चर्चा में है क्योंकि राष्ट्रवादी कांग्रेस ने यहाँ से मराठी फ़िल्म अभिनेता अमोल कोल्हे को टिकट दिया है। कोल्हे ने छत्रपति शिवाजी महाराज व शंभूराजे पर धारावाहिक बनाए हैं जिसके कारण उनकी लोकप्रियता मराठा समाज में भी काफ़ी है। शिवसेना सांसद आढ़ल राव पाटिल द्वारा मंच से अमोल कोल्हे को माली जाति का बताने से यह अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि वे चुनावी लड़ाई को माली बनाम मराठा करना चाहते हैं। 

महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा में मुक़ाबला

सबसे अलग नज़ारा तो महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा में देखने को मिल रहा है। यहाँ महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष प्रतिभा राव की बेटी चारुलता राव टोकस (कुनबी समाज) का मुक़ाबला बीजेपी सांसद रामदास तडस (तेली समाज) से है। इस सीट पर दोनों ही समाज के मतदाताओं की संख्या बराबर-बराबर है। 

वर्धा में मतदान हासिल करने के लिए दोनों ही प्रत्याशी अपने-अपने समाज के लोगों को मंदिरों में ले जाकर शपथ दिला रहे हैं कि वे अपनी ही जाति वाले प्रत्याशी के साथ रहेंगे।

आम्बेडकर के पोते क्या कर रहे हैं?

बाबा साहब भीम राव आम्बेडकर जो अपने जीवन पर्यंत जातिवाद के ख़िलाफ़ जाति तोड़ो का नारा देकर संघर्ष करते रहे उनके पोते प्रकाश आम्बेडकर भी महाराष्ट्र में जातीय फ़ॉर्मूला बनाने में पीछे नहीं हैं। उन्होंने ऐसा ही एक समीकरण आकोला में बनाया है जो आकोला पैटर्न के नाम से जाना जाता है। इस फ़ॉर्मूले से वहाँ से सांसद भी चुने गए और दो-तीन विधायक भी जिताए। यही नहीं महानगरपालिका में भी अपनी सत्ता स्थापित की। इस बार उन्होंने एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी से मिलकर महाराष्ट्र में दलित -मुस्लिम (DM) समीकरण बिठाने की योजना बनायी है। इस समीकरण में वे पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों को जोड़कर वंचित आघाडी नाम दे रहे हैं। उन्होंने लोकसभा के लिए जब प्रत्याशियों की सूची जारी की तो हर प्रत्याशी के नाम के आगे उसकी जाति लिखी हुई थी। इसके पीछे यह तर्क था कि हम समाज को सन्देश देना चाहते हैं कि किस जाति के लोगों को हम किस अनुपात में प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं। वंजारा समाज से आने वाले गोपीनाथ मुंडे के लोकसभा क्षेत्र बीड में भी इस बार लड़ाई वंजारी विरुद्ध मराठा की है। इस सीट से मुंडे की बेटी प्रीतम चुनाव लड़ रहीं हैं।

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संजय राय

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