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क्या कॉरपोरेट घरानों के निशाने पर हैं राहुल गांधी?

क्या राहुल गांधी का "सूट बूट की सरकार" वाला नारा कांग्रेस में उपजे मौजूदा विवाद की सबसे बड़ी जड़ है? क्या इसे लेकर देश के कुछ कॉरपोरेट घराने "गांधी परिवार" से नाराज हैं? या यूं कह लें कि सरकारों से रियायतें हासिल करते-करते कॉरपोरेट घराने अब सरकारी नीतियां ही नहीं राजनीति को भी अपने पैमानों से तय करने लगे हैं? 

इस मुद्दे पर वर्षों से अनेक राजनीतिक समीक्षकों ने प्रखरता के साथ लेख लिखे हैं और विश्लेषकों ने औद्योगिक घरानों को समय-समय पर दिए जाने वाले अनेक ठेकों और परियोजनाओं की इस नजरिये से समीक्षा भी की है। 

इस समय इस मुद्दे पर चर्चा करने का कारण वर्तमान में देश की सबसे पुरानी और सत्ता में सबसे ज़्यादा समय तक रहने वाली कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को लेकर उपजा संकट और पार्टी के ही कुछ नेताओं द्वारा शीर्ष नेतृत्व पर उठाए गए सवाल हैं। 

चर्चाओं का दौर गर्म है और इन्हीं के बीच महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सत्ता का नया समीकरण रचने वाली शिवसेना के सांसद संजय राउत ने अपने नियमित लेख में यही सवाल खड़ा किया है।

गैर गांधी अध्यक्ष बनाने की साज़िश!

राउत ने पार्टी के मुखपत्र सामना में अपने कॉलम में लिखा है, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का स्वप्न पूरा नहीं हुआ, लिहाजा, गांधी मुक्त कांग्रेस का बीड़ा अब देश के कुछ औद्योगिक घरानों और बीजेपी के नेताओं ने मिलकर उठाया है।" राउत ने आगे लिखा है, ‘‘ये वे घराने हैं जिन्हें केंद्र की मोदी सरकार द्वारा नियमों से परे हटकर लाभ पहुंचाया जाता है। राहुल गांधी इन कॉरपोरेट घरानों को पहुंचाये जा रहे लाभों को लेकर बार-बार बयान देते हैं। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस में उनके प्रभाव को कम करने और गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की साज़िश रची जा रही है।’’ 

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क्रोनि कैपिटलिज्म की बहस

क्रोनि कैपिटलिज्म यानी सत्ता से औद्योगिक घरानों का "याराना" कोई नयी बात नहीं है। पश्चिमी देशों और अमेरिका में यह खुले तौर पर वर्षों से देखा जा रहा है। लेकिन हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से यह शब्द काफी चर्चा में है। हमारे देश में ग्लोबलाइजेशन से पहले वामपंथी पार्टियों या संगठनों के नारों में "टाटा बिड़ला की सरकार" का उल्लेख इसी से जोड़ कर देखा जा सकता है। 

2014 में सत्ता से बाहर होने पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने क्रोनि कैपिटलिज्म की तरफ उंगलियां उठानी शुरू कीं तो यह पहली बार हुआ था कि देश की कोई बड़ी पार्टी उद्योगपतियों पर सवाल उठा रही है।

"पॉलिसी पैरालिसिस" के आरोप 

वैसे, राहुल गांधी द्वारा उद्योगपतियों पर सवाल उठाने के कारणों के लिए 2014 के राजनीतिक रंगमंच की गहराई में जाना होगा। साल 2012 से मनमोहन सिंह सरकार पर "पॉलिसी पैरालिसिस" के आरोप उद्योग जगत की तरफ से लगाए जाने लगे थे। ये मनमोहन सिंह ही थे जिन्हें इस देश में नयी आर्थिक नीतियों और ग्लोबलाइजेशन का जनक कहा जाता था। लेकिन बहुत से क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए नहीं खोलने या उन पर सरकार का अंकुश पूरी तरह से नहीं हटाने के उनके निर्णय से मनमोहन सिंह कॉरपोरेट की आँखों में चुभने लगे थे। 

"वाइब्रेंट गुजरात" का आयोजन 

उसी दौर में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्योगपतियों को निवेश के लिए आकर्षित करने का एक बड़ा कार्यक्रम "वाइब्रेंट गुजरात" नाम से आयोजित किया जिसमें प्रमुख भूमिका गौतम अडानी ने निभाई थी, जिन पर राहुल गांधी मोदी के दोस्त कहकर हल्ला बोलते रहते हैं। कहा जाता है कि "वाइब्रेंट गुजरात" में ही मनमोहन सिंह की सरकार की विदाई की पटकथा लिखी गयी। 

leadership crisis in party and Congress dissenters  - Satya Hindi

पूंजीपतियों का समर्थन मोदी को 

2014 के चुनाव से पूर्व देसी और विदेशी पूंजीपतियों के बड़े हिस्से ने नरेन्द्र मोदी को समर्थन देने का निर्णय लिया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी को यह साफ कर दिया था कि 2014 के चुनाव में वह उनके साथ नहीं हैं। कांग्रेस नेताओं के इस बारे में सार्वजनिक तौर पर बयान भी हैं कि हर बार उन्हें जहां से पैसा आता था, इस बार उन स्रोतों से नहीं आया है। कांग्रेस को मिलने वाले कॉरपोरेट चंदे में कमी को इस बात का प्रमाण भी कहा जा सकता है। 

राहुल का अडानी, अंबानी पर हमला 

लिहाजा, नरेंद्र मोदी की सरकार को जब राहुल गांधी ने "सूट-बूट की सरकार" बोलना शुरू किया तो, शुरुआती दौर में यह सन्देश गया कि शायद वह प्रधानमंत्री के "परिधान प्रेम" पर सवाल खड़े कर रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे राहुल गांधी ने "सूट-बूट की सरकार" के नारे में अंबानी और अडानी जैसे कॉरपोरेट घरानों का प्रत्यक्ष नाम लेना शुरू कर दिया और खुलकर कहने लगे कि मोदी की योजनाएं या उनकी सरकार देश के सभी उद्योगपतियों के लिए नहीं अपने दोस्त उद्योगपतियों (क्रोनि कैपिटलिस्ट) के लिए काम करती है। 

राहुल गांधी के इस नारे का असर भी हुआ था और साल 2018 में प्रधानमंत्री मोदी ने लखनऊ में औद्योगिक शिखर सम्मेलन में यह बयान दिया कि "हम वे लोग नहीं हैं जो उद्योगपतियों के बगल में खड़े होने में डरते हों; देश को बनाने में उद्योगपतियों की अहम भूमिका है। यदि हम उन्हें अपमानित करेंगे तो देश का विकास कैसे होगा?।’’ 

मोदी यहीं नहीं रुके थे और उन्होंने आगे कहा था, “कुछ लोग परदे के पीछे सब कुछ करते हैं, लेकिन सामने आने से डरते हैं।” प्रधानमंत्री के इस जवाब से कांग्रेस को भी ऐसा लगा कि शायद पार्टी की छवि उद्योगपतियों की विरोधी न बन जाए, लिहाजा मोदी के जवाब में कांग्रेस ने कहा कि वह उद्योगतियों के विरोध में नहीं हैं और केवल क्रोनि कैपिटलिज्म के विरोध में है। 

कांग्रेस की "न्याय योजना" 

इस चर्चा तथा विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे उद्योगपतियों, जो बैंकों का कर्ज डुबाकर विदेश भाग गए, के प्रति सरकार की सहानुभूति के आरोपों से यह लगने लगा था कि साल 2019 के चुनाव में कहीं यह प्रमुख मुद्दा न बन जाए। कांग्रेस पार्टी की "न्याय योजना" को भी इसी से जोड़कर देखा जा सकता है। इस योजना के माध्यम से कांग्रेस लोगों में यह संदेश देना चाहती थी कि वह गरीबों के साथ खड़ी है और मोदी सरकार चंद उद्योगपतियों के साथ। 

नेहरू सरकार पर क्रोनि कैपिटलिज्म के आरोप 

दरअसल, आजादी के बाद से ही कांग्रेस गरीबों के साथ खड़ा रहने की अपनी छवि बनाकर चलती रही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब देश में आजादी का आंदोलन चरम पर था और यह तकरीबन तय हो गया था कि अंग्रेज जाने वाले हैं, तब साल 1944/1945 में देश के 8 बड़े उद्योगपतियों ने देश की भावी आर्थिक नीति को लेकर एक दस्तावेज़ तैयार किया था जिसे "बॉम्बे प्लान" के नाम से जाना जाता है। लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे नकारते हुए सोवियत रूस के पंचवर्षीय योजना सिद्धांत को अपनाया। लेकिन उसके बावजूद नेहरू या कांग्रेस सरकार पर उसके दो महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए क्रोनि कैपिटलिज्म के आरोप लगे। 

ये निर्णय थे- कांग्रेस ने टाटा को आजादी के बाद के तीस वर्षों तक मोटर कार बनाने का लाइसेंस नहीं दिया, इससे उस पर बिड़ला की हिंदुस्तान मोटर्स को प्रतिस्पर्धा से बचाने का आरोप लगा। उसी प्रकार बिड़ला को इस्पात बनाने का लाइसेंस नहीं दिया गया और यह क्षेत्र टाटा स्टील के लिए आरक्षित कर दिया गया था। 

नेहरू के बाद आईं इंदिरा गांधी ने ग़रीबी हटाओ का नारा देकर कांग्रेस पार्टी की ग़रीब हितैषी छवि को और अधिक मजबूत बना दिया था और साल 2019 के चुनाव में "न्याय योजना" को इसी उद्देश्य से मुद्दा बनाने की कोशिश की गयी थी।

अकेले पड़ गए राहुल 

लेकिन साथ ही साथ राहुल गांधी राफ़ेल डील और सूट-बूट की सरकार को लेकर भी हल्ला बोलते रहे। राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस के वे नेता जिन्होंने सोनिया गांधी को पत्र लिखा है, उन्होंने राहुल गांधी के इन नारों को बुलंद नहीं किया। 2019 का चुनाव हारने के बाद उनमें से कई नेता ऑफ़ द रिकॉर्ड यह कहते रहे कि राफ़ेल मामले में "चौकीदार चोर है" का नारा लगाया गया और वह पार्टी के लिए घातक साबित हुआ। 

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पीएम मोदी से हमदर्दी क्यों?

यही नहीं, कांग्रेस के कुछ नेता इस बात के भी पक्षधर हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर प्रत्यक्ष या सीधे तौर पर आरोप नहीं लगाए जाने चाहिए! आखिर कांग्रेस के इन नेताओं की मोदी जी से हमदर्दी का क्या कारण हो सकता है? तो क्या कांग्रेस में नेताओं का एक वर्ग कॉरपोरेट प्लेयर्स के हाथों में खेल रहा है? और इसी के चलते वह कांग्रेस का नेतृत्व गैर गांधी को देने का मुद्दा उठा रहा है! 

कांग्रेस के ये सभी पत्र लेखक नेता 70 साल से ऊपर के हो चुके हैं तथा इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसका जनाधार ऐसा है कि वह पार्टी का अध्यक्ष बन सके।

राहुल गांधी ने तो अपना इस्तीफ़ा देते समय खुले तौर पर कहा था कि गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुना जाए। राहुल गांधी ने अपने दम पर कई राज्यों में बीजेपी की सरकारों को सत्ता से हटाया था। 

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ये नेता कांग्रेस को सक्रिय करने की बात कह रहे हैं लेकिन इनको ऐसा करने से रोका किसने है। पृथ्वीराज चव्हाण को अपनी विधानसभा सीट जीतने के लिए शरद पवार का आशीर्वाद लेना पड़ता है। मुकुल वासनिक और मिलिंद देवड़ा का कितना बड़ा जनाधार है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। महाराष्ट्र में जब कांग्रेस ने शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनायी, तब भी इन कांग्रेस नेताओं ने सवाल उठाये थे। 

थम नहीं रहा विवाद 

वैसे कांग्रेस में पत्र को लेकर उठा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। पत्र लिखने वाले कुछ असंतुष्ट नेताओं द्वारा आगे की रणनीति की बैठकें करने की ख़बरें आ रही हैं तो ग़ुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल के ट्वीट भी कई सवाल खड़े कर रहे हैं। लेकिन उनके विरोध को पार्टी में कोई बड़ा समर्थन नहीं मिल रहा है।

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संजय राय

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