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क्या 2024 में मोदी को चुनौती दे पाएंगी ममता बनर्जी?

सवाल है कि क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक मजबूत दावेदार माना जा सकता है? क्या वो विपक्ष को एकजुट कर सकती हैं? उससे भी बड़ा सवाल कि क्या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महाराष्ट्र के दिग्गज राजनेता शरद पवार जैसे लोग ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकार कर सकते हैं? 
विजय त्रिवेदी

हिन्दुस्तान की संसदीय राजनीति का सूर्य क्या इस बार पूरब से उदय हो सकता है, इस सवाल का जवाब मिलने में भले ही अभी वक्त हो, लेकिन यह सवाल अब उठने लगा है और इसका जवाब ढूंढने की कोशिशें भी शुरु हो गई हैं। 

अक्सर यह भी होता है कि गहरे काले बादल कई बार सूरज को ढांप लेते हैं तो फिर उसके उगने का अंदाज़ा नहीं हो पाता, लेकिन अचानक सूरज आसमान पर चमकने लगता है। 

किसी मित्र ने कहा कि जब संसदीय राजनीति का सूरज पश्चिम से उग सकता है तो फिर पूरब से उगने पर सवाल क्यों। 

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केन्द्र में अरसे बाद सबसे ताकतवर और स्पष्ट बहुमत के कार्यकाल को पूरा होने में अभी यूं तो ढाई साल का वक्त है, और ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि मौजूदा मोदी सरकार के लिए साल 2024 के चुनावों में भी फिलहाल कोई खतरा नहीं दिखाई देता, क्योंकि कोई मजबूत प्रतिद्वन्दी नेता अभी नज़र नहीं आ रहा। 
साल 2014 में भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात से आए नरेन्द्र मोदी के साथ देश की राजनीति ने एक नई करवट ली थी और अब पूर्वी राज्य पश्चिमी बंगाल अपनी दस्तक देने की तैयारी में लग गया है।

नायडू ने भी की थी कोशिश 

वैसे 2019 से पहले चन्द्रबाबू नायडू ने भी ऐसी कोशिश की थी, लेकिन वो सिरे नहीं चढ़ पाई, हालांकि उन्होंने देर से कोशिश शुरु की थी, ममता बनर्जी ने वक्त रहते शुरु कर दी है। 

विपक्ष को कर पाएंगी एकजुट?

सवाल है कि क्या तृणमूल कांग्रेस की नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक मजबूत दावेदार माना जा सकता है? क्या वो विपक्ष को एकजुट कर सकती हैं? उससे भी बड़ा सवाल कि क्या कांग्रेस की मौजूदा अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और महाराष्ट्र के दिग्गज राजनेता शरद पवार जैसे लोग ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकार कर सकते हैं? 

क्या क्षेत्रीय दलों के नेता तमिलनाडु में स्टालिन, ओडिशा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे एक और क्षेत्रीय पार्टी की नेता ममता दी को राष्ट्रीय नेतृत्व के तौर पर स्वीकार कर सकते हैं?

क्या उनकी खुद की प्रधानमंत्री बनने या राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर चमकने की इच्छा नहीं होगी? शरद पवार जैसे नेताओं ने तो कांग्रेस इसीलिए छोड़ी थी कि वो अपनी ही पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को पीएम के तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। कांग्रेस ने हर बार उन्हें प्रधानमंत्री पद से दूर ही रखा। प्रणब मुखर्जी के अलावा शरद पवार कांग्रेस के ऐसे दिग्गज नेताओं में से रहे हैं जो ज़िंदगी भर प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते रहे।

mamata banerjee in national politics - Satya Hindi

मोदी-ममता में समानताएं 

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और ममता दी में काफी कुछ समानताएं हैं। दोनों ही नेता अपने-अपने राज्य में तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे। दोनों ही नेता फाइटर माने जाते हैं। दोनों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है। दोनों लोग मुख्यमंत्री बनने से पहले भी केन्द्र की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, ममता बनर्जी तो केन्द्र में कई बार मंत्री रह चुकीं हैं। जनता से दोनों नेताओं का खासा जुड़ाव है। 

मोदी ने भी तीसरी बार 2012 में विधानसभा चुनाव मजबूती से जीतने के बाद ही दिल्ली आने का मन बनाया था। इस बार के चुनावों में बीजेपी के सामने बड़ी जीत हासिल करने वाली ममता दी की अब दिल्ली आने की इच्छा प्रबल हो गई है।

ममता दी के साथ भले ही यह फायदा हो कि उनकी पार्टी में नरेन्द्र मोदी की बीजेपी की तरह अंदरूनी कोई चुनौती नहीं होगी, लेकिन उससे बड़ी बाधा दूसरी पार्टियों को अपने पक्ष में जोड़ने की होगी, जो ज़्यादा मुश्किल भरा काम है।

दिल्ली आने की ख़्वाहिश 

इससे पहले भी ममता राष्ट्रीय राजनीति में आने की इच्छा जाहिर कर चुकी हैं। एक बार वे वाराणसी से चुनाव लड़ने की बात भी कर चुकी हैं। उन्हें लगता है कि पश्चिम बंगाल में वो जितना करना था, कर चुकी हैं और अब दिल्ली पहुंच कर देश के लिए कुछ बड़ा करना चाहिए। 

उन्हें यह भी लगता है कि मौजूदा कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष अब पीएम नहीं बनना चाहेंगी और राहुल गांधी के अनुभव को दूसरे दल शायद ही मंजूर करें। 

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में उन्होंने ना केवल बीजेपी को कड़ी शिकस्त दी बल्कि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का सूपड़ा ही साफ कर दिया।

राज्यसभा में भेजने की ताक़त

मौजूदा विधानसभा में उनकी ताकत का फायदा यह है कि उनकी पार्टी अभी कुछ लोगों को राज्यसभा भेज सकती है, ममता अगले साल चार और साल 2023 में पांच लोगों को राज्यसभा में भिजवा सकती हैं। इसके मायने हैं कि उनकी पार्टी में कई नेता शामिल होकर अपनी राजनीतिक सुरक्षा हासिल कर सकते हैं।

कई बड़े नेता शामिल 

करीब दस राज्यों में ममता बनर्जी अपनी पार्टी का झंडा लगा चुकी हैं। पिछले कुछ दिनों में ममता बनर्जी की पार्टी में कई बड़े नेता शामिल हुए हैं इनमें बीजेपी छोड़कर आए पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का नाम है। हाल में गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुइजिन्हो फलेरो का नाम भी इस कतार में लिया जा सकता है। इनके अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संतोष मोहन देव की बेटी सुष्मिता देव, कमलापति त्रिपाठी के पोते राजेश त्रिपाठी, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे कीर्ति आज़ाद और हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर का नाम भी शामिल है। जनता दल यूनाइटेड से राज्यसभा सांसद रहे पवन वर्मा भी अब ममता दी के साथ आ गए हैं। 

गीतकार और पूर्व सांसद जावेद अख्तर, लालकृष्ण आडवाणी के करीबी और सलाहकार रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी के अलावा बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भी अब उनके साथ दिखाई दे रहे हैं। 

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राजनीति को जो लोग लंबे समय से देख रहे हैं वो स्वामी को राजनीति में उलटफेर करने का मास्टर मानते हैं। मेघालय में तो कांग्रेस के 17 में से 12 विधायकों को ही तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया गया है, इनमें पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। 

प्रशांत किशोर बना रहे रणनीति 

इन सबके अलावा प्रशांत किशोर अब ममता दी की रणनीति बना रहे हैं। प्रशांत किशोर ने साल 2012 में नरेन्द्र मोदी के लिए चुनावी रणनीति बनाई थी। उनके सेहरे में कई और राजनेताओं को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने की बात दर्ज है।

कांग्रेस नेता भड़के 

कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के तृणमूल कांग्रेस में जाने से कांग्रेस के नेता फिलहाल भड़के हुए दिखाई देते हैं। लोकसभा में पार्टी के नेता और पश्चिम बंगाल के सांसद अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी पर बीजेपी से सांठगांठ का आरोप लगाया है। अधीर रंजन का कहना है कि इससे पहले ममता बनर्जी कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के एकजुट होकर बीजेपी को टक्कर देने की बात कर रही थीं। जाहिर है कि दोस्ती और तोड़फोड़ साथ-साथ नहीं चल सकते। 

शायद इसीलिए ममता दी के हाल के तीन दिनों के दिल्ली दौरे में उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात नहीं हुई। वैसे तृणमूल कांग्रेस ने अपनी सफाई में कहा है कि हर बार सोनिया गांधी से मुलाकात जरूरी नहीं है।

ममता की योजना

अलग-अलग राज्यों और पार्टियों के नेताओं को तृणमूल कांग्रेस में शामिल करने का मकसद साफ है कि ममता बनर्जी अगले आम चुनाव से पहले तृणमूल को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर स्थापित करना चाहती हैं ताकि संभावित गठबंधन में वो एक मजबूत दावेदार के तौर पर पेश हो सकें। 

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हालांकि इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि विपक्षी एकता के बाद भी चुनाव नतीजों के वक्त कई दूसरी पार्टियों के नेता अपनी दावेदारी पेश कर दें, लेकिन इस चुनौती के लिए तो उन्हें तैयार होना ही पड़ेगा। 

इस साल जुलाई में शहीद दिवस के मौके पर ममता दी ने एक वर्चुअल कार्यक्रम को संबोधित किया था। इस कार्यक्रम में समाजवादी पार्टी, एनसीपी, आम आदमी पार्टी, अकाली दल, राष्ट्रीय जनता दल, शिवसेना, टीआरएस और डीएमके के कई नेता मौजूद रहे थे।

सवाल यह भी है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का जैसा जलवा है क्या वैसी लोकप्रियता वे देश के दूसरे हिस्सों खासतौर से उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों या फिर दक्षिण भारत के राज्यों में हासिल कर सकती हैं?
बीजेपी के एक बड़े नेता ने कहा कि आप क्यों ख्याली पुलाव बना रहे हैं, अभी मोदी ही अगली बार आने वाले हैं, उसी दमखम से, उसी ताकत के साथ तो आपको वो कहावत याद है ना कि- ‘ना सूत ना कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’।
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स्वामी के बयान के मायने 

चलते-चलते बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का यह बयान आप नज़रअंदाज नहीं कर सकते जो उन्होंने ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद कहा – “मैं आजतक जिन राजनेताओं से मिला या जिनके साथ काम किया, उनमें ममता बनर्जी का कद जेपी (जयप्रकाश नारायण), मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर और पीवी नरसिम्हा के बराबर है। इन लोगों की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होता”। इनमें पांच में से चार देश के प्रधानमंत्री रहे हैं और एक ने पीएम बनवाया है। 

स्वामी ने इन नेताओं में प्रधानमंत्री मोदी का नाम शामिल नहीं किया है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि स्वामी की चाय के प्याले में तूफान  की संभावना को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।

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