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ओबीसी-दलित को एकजुट कर पाएंगे अखिलेश यादव?

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब आंबेडकर और राम मनोहर लोहिया को मानने वाले लोगों को एक मंच पर आने की बात कह कर एक नई राजनीतिक चाल चली है। पर सवाल यह उठता है कि क्या फिलहाल यह मुमकिन है? जो काम कांसीराम जैसे दिग्गज नहीं कर सके, क्या वह काम अखिलेश कर लेंगे?

अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 को ध्यान में रख कर ही यह कहा है, पर यह मामला सिर्फ चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं है, यह सोशल इंजीनियरिंग का वह पहलू है जिससे पूरे प्रदेश की राजनीति तो बदल ही सकती है, दूसरे राज्यों के लिए भी एक मिसाल बन सकती है। इसके साथ ही यह बीजेपी के हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को भी कुंद कर सकती है।

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ओबीसी-दलित

आंबेडकर दलितों के मसीहा माने जाने जाते हैं और इस वंचित समुदाय में उनकी ज़बरदस्त अपील है, जो इस समुदाय के मतदान के पैटर्न को तय करता है, यह साफ है। दूसरी ओर भारत में समाजवादी आन्दोलन के शुरुआती नेता राम मनोहर लोहिया का प्रभाव समाज के अति पिछड़े समाज यानी ओबीसी के बीच सबसे ज़्यादा है।

इन दोनों नेताओं के समर्थकों के एक मंच पर आने का सीधा राजनीतिक मतलब है दलितों व अति पिछड़े समुदायों के लोगों का एक साथ आना और उनका एक साथ वोट करना या कम से कम एक दूसरे को अपना-अपना वोट ट्रांसफर करना।

सीधे चुनावी राजनीति के नजरिए से देखा जाए तो इनके एक साथ वोट करने से उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से कम से कम 300 सीटों के नतीजों पर सीधा असर पड़ सकता है।

मुमकिन है?

क्या ऐसा हो सकता है? सैद्धान्तिक तौर पर यह मुमकिन भले ही लगे, पर व्यावहारिक तौर पर लगभग नामुमकिन है। इसकी सामाजिक-आर्थिक वजहें हैं जो भारतीय समाज, ख़ास कर हिन्दी पट्टी की फॉल्ट लाइन्स को रेखांकित करती हैं।

दलितों के साथ भेदभाव और उनके ऊपर अत्याचार करने वालों में ओबीसी समुदाय के लोग आगे रहे हैं, क्योंकि दोनों के आर्थिक हित टकराते हैं।

टकराव

उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में साफ दिखा है कि यादव व कुर्मी जैसी दबंग जातियों का टकराव दलितों के साथ होता आया है। 

खेतीबाड़ी, खेतिहर मजदूर, अकुशल मजदूर, जानवर- ढोर चराने वाले जैसे कामकाज में दलितों की मौजूदगी ज़्यादा है और न्यूनतम मजदूरों जैसे आर्थिक मुद्दों पर उनका सीधा टकराव इन मझोली जातियों के लोगों से होता रहा है।


इसके अलावा सम्मान से जीवन जीने और मानवीय मूल्यों पर भी दलित इन दबंग जातियों के निशाने पर रहे हैं।
UP Assembly Election 2022 : SP Eyes OBC, Dalits votes - Satya Hindi
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर

कोशिश

ऐसा नहीं है कि इन दोनों अलग-अलग समुदायों के लोगों को चुनावी रणनीति के तहत एकजुट करने की कोशिश नहीं हुई है। ऐसी कोशिशें हुई हैं और उसका थोड़ा बहुत फ़ायदा इन राजनीतिक दलों ने उठाया भी है।

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक नेता कांसी राम ने इसकी कोशिश की थी, पर वह नाकाम रहे। मायावती ने 2007 में 'सर्व समाज' का नारा दिया और इन दोनों समुदायों को एकजुट करने चेष्टा की। 

उनकी सोशल इंजीनियरिंग में दूसरे समुदाय के लोग और मुसलमान भी थे, उन्हें उसका फ़ायदा मिला और वे चुनाव जीत गईं। पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ओबीसी और दलितों ने हर जगह एक साथ ही वोट दिया या उन्होंने एक-दूसरे को वोट ट्रांसफर किए।

UP Assembly Election 2022 : SP Eyes OBC, Dalits votes - Satya Hindi
कांसीराम और मुलायम सिंह यादव

मुसलिम-यादव

दूसरी ओर, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का ध्यान यादव-मुसलमान को एक मंच पर लाने पर रहा। यह बहुत कुछ बिहार में लालू प्रसाद के 'माई' (मुसलिम-यादव) समीकरण जैसा था। लेकिन ग़ैर-यादवों ने समाजवादी पार्टी के बजाय बीजेपी को तरजीह दी।

इसके बाद जब बीजेपी ने हिन्दुत्व का हथियार निकाला और सभी हिन्दुओं को एकजुट करने का नारा दिया तो 2019 में मामला पलट गया। ओबीसी समुदाय के लोगों को भी हिन्दुत्व के नारे ने आकर्षित किया और बीजेपी ने चुनाव जीत लिया।

सपा के मूल वोटर यादव भी इससे अछूते नहीं रहे। तमाम ओबीसी और दूसरी जातियों का 'हिन्दूकरण' हो गया।

विरोधी ध्रुव?

सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव ओबीसी और दलितों को एक मंच पर ला पाएंगे? राजनीतिक विज्ञान के विश्लेषक सज्जन कुमार ने 'आउटलुक' पत्रिका से बात करते हुए अखिलेश की इस कोशिश में निहित हितों के टकराव को ओर ध्यान दिलाया है। उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाया कि मायावती के शासनकाल में दलित- बहुल गाँवों को आंबेडकर गाँव के रूप में चिन्हित कर जो कल्याणकारी योजनाएं शुरू की गई थीं, अखिलेश सरकार ने उन पर रोक लगा दी। उन्होंने इसके उलट लोहिया गाँवों को चिन्हित किया, जिनमें ओबीसी समुदाय के लोगों की आबादी अधिक है।

विश्लेषकों का कहना है कि ये दोनों ही तरह के गाँव बिल्कुल एक दूसरे से अलग हैं, एक-दूसरे के हित टकराते हैं, यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि ये सब एक साथ मिल कर वोट करेंगे।

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मायावती और अखिलेश यादव

जाटव

इसके अलावा कुछ दूसरी बातें भी हैं। जाटव समुदाय अभी भी बीएसपी के साथ है और उसके सपा के साथ जाने की कोई तात्कालिक वजह नहीं है। चंद्रशेखर रावण यदि दलितों के बीच पैठ बनाने में कामयाब होते भी हैं तो सपा को इसका कोई फ़ायदा नहीं होने को है।

दूसरी बात यह है कि 1995 में लखनऊ गेस्टहाउस कांड के बाद कभी भी मायावती व मुलायम के बीच सामान्य रिश्ते नहीं बन पाए। लोकसभा चुनाव 2019 में अखिलेश और मायावती एक साथ आए, लेकिन मायावती के लोगों ने अपना वोट अखिलेश के लोगों को ट्रांसफर नहीं किया। समाजवादी पार्टी घाटे में रही।

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चंद्रशेखर आज़ाद, रावण, दलित नेता

अखिलेश की मंशा

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अखिलेश की मंशा बहुत साफ नहीं है। उनकी मंशा बीएसपी में सेंध मारने की है और ऐसी हवा बनाने की है कि बीएसपी के स्थानीय नेता अपने राजनीतिक भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए बीएसपी की नैया को छोड़ सपा की साइकिल पर सवार हो जाएं।

इससे समझा जा सकता है कि बीते दिनों एक सप्ताह में छह बीएसपी विधायक समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। 

ओबीसी-दलित गठजोड़ फिलहाल असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल ज़रूर है। इन जातियों के नेता अपने आधार को बीजेपी के हिन्दुत्व से बचा लें, यही बड़ी बात होगी।

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प्रमोद मल्लिक

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