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‘क्यों न कितना ही गंभीर धार्मिक अपमान हो, हिंसा जायज़ नहीं’

फ्रांस में की गई शिक्षक की हत्या का धार्मिक दूषण वाले क़ानून से क्या रिश्ता? वक्ताओं की चिंता यह थी कि चूँकि इस्लामी देश धार्मिक दूषण के लिए मृत्यु दंड की सज़ा रखते हैं, एक आम मुसलमान इसे उचित दंड मान सकता है। जहाँ सरकार यह न कर रही हो, वह ख़ुद को ही धर्म का मुहाफिज मानकर यह दंड देने तक जा सकता है। फ्रांस की यह घटना अपवाद नहीं है। 
अपूर्वानंद

फ्रांस में कुछ दिन पहले एक अध्यापक की सर काट कर की गई हत्या ने फ्रांस को ही नहीं, पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। फ्रांस के बाहर के मुसलमानों के भीतर इसने एक बहस पैदा की है। भारत में भी मुसलमान इस हत्या के व्यापक अभिप्राय पर विचार कर रहे हैं। कल 25 अक्टूबर को ‘इंडियन मुसलिम फ़ॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी’ ने इस संदर्भ में एक चर्चा आयोजित की। इसमें जावेद आनंद के साथ ‘न्यू ऐज इस्लाम’ के स्तंभकार अरशद आलम, इस्लाम की विदुषी जीनत शौकतअली, सामाजिक कार्यकर्ता फ़िरोज़ मिठीबोरवाला, इस्लाम के विद्वान ए.जे. जवाद शामिल थे।

यह गोष्ठी इस हत्या की स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना करने के अलावा धार्मिक दूषण (ब्लासफ़ेमी) और पैगम्बर के अपमान से संबंधित क़ानूनों को ख़त्म करने के विषय पर थी। इस चर्चा में कई ऐसी बातें उठीं जिनसे इस स्तंभ के लेखक और पाठकों को जूझना पड़ता रहा है। लेकिन उनपर आने के पहले इस चर्चा की पृष्ठभूमि को दुहरा लेना ज़रूरी है। 

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

हत्या करनेवाला फ्रांसीसी मूल का न था। वह मास्को में पैदा हुआ एक चेचेन था। उम्र सिर्फ़ 18 साल। वह उस अध्यापक का छात्र भी न था। लेकिन उस तक ख़बर पहुँची थी कि अध्यापक सैमुअल पैती ने अपनी क्लास में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करने के दौरान उन कार्टूनों का इस्तेमाल भी किया था जो अख़बार ‘शार्ली एब्दो’ ने कुछ साल पहले प्रकाशित किए थे। ये पैगंबर मोहम्मद साहब के ऊपर थे। इसे मोहम्मद साहब का अपमान मानकर 7 जनवरी, 2015 को दो भाइयों ने ‘शार्ली एब्दो’ के दफ्तरवाली इमारत में घुसकर 12 लोगों को मार डाला था। इस हत्याकाण्ड की ज़िम्मेवारी ‘अल कायदा’ ने ली थी। इन हमलावरों पर इधर मुक़दमा शुरू हुआ है। मुक़दमा शुरू होने के मौक़े पर फिर ‘शार्ली एब्दो’ ने उन कार्टूनों को छापा जिनके प्रकाशन के बाद 2015 का हत्याकाण्ड हुआ था। 

अध्यापक पैती की कक्षा का एक संदर्भ यह है। वे ‘शार्ली एब्दो’ में प्रकाशित इन कार्टूनों के सहारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चर्चा करना चाहते थे। चर्चा के पहले उन्होंने अपनी क्लास के मुसलमान छात्रों से कहा था कि यदि उन्हें इससे असुविधा हो रही हो तो वे या तो उन्हें न देखें या बाहर चले जाएँ। यह बात बाहर फैल गई। एक छात्र के अभिभावक ने इस पर सार्वजनिक रूप से ऐतराज जताया और अध्यापक को इस असंवेदनशीलता के लिए बर्खास्त करने की माँग की। इसे सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया। एक मसजिद ने भी इसे प्रसारित किया। उसके बाद यह 18 साल का चेचेन किशोर स्कूल पहुँचा और उसने अध्यापक की गला काटकर हत्या कर दी। इस युवक को पुलिस ने घेर लिया और वह पुलिस की गोली से मारा गया।

‘इंडियन मुस्लिम्स फ़ॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी’ को किसी और देश में हुई इस हत्या पर क्यों चर्चा करनी चाहिए, यह सवाल कुछ लोग उठा सकते हैं। इसका एक उत्तर तो यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में अगर कोई नाइंसाफी, कोई हिंसा हो रही हो, तो इस पृथ्वी के हर व्यक्ति को उसके लिए किसी न किसी तरह ज़िम्मेवारी लेनी चाहिए।

हम सब अदृश्य तंतुओं से एक-दूसरे से जुड़े हैं। आज की दुनिया में तो और भी ज़्यादा जब हम ख़ुद को वैश्विक नागरिक कहते हैं। दूसरे, वे लोग जो ख़ुद को मुसलमान मानते हैं, इस बात को कबूल नहीं कर सकते कि इस्लाम की शान या पैगंबर साहब की प्रतिष्ठा की हिफ़ाज़त के नाम पर हिंसा की जाए, हत्या तो बहुत दूर की बात है। इसलिए वे अगर इस हत्या से ख़ुद को दूर करना चाहें और वह भी मुखर रूप से, तो यह स्वाभाविक ही है।

चर्चा में धार्मिक दूषण से जुड़े क़ानूनों को ख़त्म करने की माँग सारे वक्ताओं ने की। 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 71 देशो में दूषण को अपराध मानने वाले क़ानून मौजूद हैं। इनमें सभी इस्लामी देश नहीं हैं। अगर आप ईश्वर को अपमानित करने के दोषी पाए जाते हैं तो कम से कम 6 देश ऐसे हैं जहाँ इसकी सज़ा मौत है। ये हैं अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, नाइजीरिया, पाकिस्तान, सउदी अरब और सोमालिया।

फ़्रांस में हत्या और ईशनिंदा का संबंध

फ्रांस में की गई इस हत्या का इस क़ानून से क्या रिश्ता? वक्ताओं की चिंता यह थी कि चूँकि इस्लामी देश धार्मिक दूषण के लिए मृत्यु दंड की सज़ा रखते हैं, एक आम मुसलमान इसे उचित दंड मान सकता है। जहाँ सरकार यह न कर रही हो, वह ख़ुद को ही धर्म का मुहाफिज मानकर यह दंड देने तक जा सकता है। फ्रांस की यह घटना अपवाद नहीं है। इस हत्या के बाद फ्रांस के इस्लामी पंडितों ने इसकी भर्त्सना की और इसे ग़ैर इस्लामी बताया। लेकिन कम से कम एक ऐसा संगठन भी था जिसने कहा कि यह सज़ा सिर्फ़ कोई इस्लामी देश ही दे सकता है! तो फिर एक श्रद्धालु मुसलमान यह पूछ सकता है कि अगर वह दुर्भाग्य से एक ग़ैर-इस्लामी देश में रह रहा हो तो क्या हुजूर की बेहुरमती करनेवाले को इत्मीनान से ज़िंदगी बसर करते देखने को वह मजबूर है? यह तो उस देश की कमी है कि खतावार को वह सज़ा नहीं दे रहा जो उसे इस पाप के लिए मिलनी चाहिए। इस वजह से ही धार्मिक दूषण को अपराध मानने के विचार को ही अस्वीकार करना आवश्यक है।

जीनत शौकतअली ने कुरान से विस्तृत उद्धरण देते हुए साबित किया कि वह उनकी हत्या, या उनके ख़िलाफ़ हिंसा की वकालत नहीं करता जो उसे नहीं मानते या जो उसके तौर तरीक़ों का पालन नहीं करते।

लेकिन एक विचार यह भी आया कि पवित्र ग्रंथ में ऐसे अंश हैं जिनके सहारे हिंसा जायज़ ठहराई जा सकती है। एक विचार यह था, जो यों भी हम अक्सर सुनते हैं कि इस्लाम का आधार क़ुरान है, हदीसें नहीं। लेकिन एक वक्ता ने कहा कि लोग इस्लाम को तरह-तरह से ग्रहण करते हैं। क़ुरान की व्याख्याएँ भी इस्लाम की समझ का स्रोत हैं। उनके असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। कहा गया कि दूषण को सबसे बड़ा पाप मानकर उसके लिए मृत्यु दंड को जायज़ मानना एक बड़ी समस्या है क्योंकि यह किसी भी प्रकार की नई व्याख्या या आलोचना का रास्ता ही बंद कर देता है।

दूषण को तय कौन करता है? 

दूषण क्या है? यह तय कौन करता है? जाहिर है यह किसी न किसी तरह से ताक़तवर संगठन या धार्मिक नेता करते हैं। इनका मक़सद जितना धार्मिक नहीं, उतना लोगों के दिमाग़ों को अपने क़ब्ज़े में रखने का होता है। यह समाज में एक भय और आतंक का वातावरण पैदा करता है। जनतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति पर किसी भी तरह का पहरा उसे जड़ बना देता है। वह धार्मिक परंपरा में भी नए योगदान के लिए कठिनाई खड़ी कर देता है।

इस चर्चा से स्पष्ट था कि इस्लाम के जानकार दूषण की अवधारणा को मुनासिब नहीं मानते। लेकिन एक प्रतिभागी ने यह सवाल उठाया जो फ्रांस में भी किया जा रहा है, कि क्या ‘शार्ली एब्दो’ एक ईमानदार अभिव्यक्ति कर रहा था या इसके पीछे इस्लाम और मुसलमानों को लेकर एक हिकारत थी और उन्हें उकसाने का इरादा था? मान लीजिए कि यह एक धार्मिक व्यक्तित्व के बारे में न होता तो क्या किसी दुनियावी व्यक्ति का ही ऐसा मज़ाक उड़ाने का असीमित अधिकार किसी को दिया जा सकता है? मुसलमानों की एक बड़ी आबादी इसके लिए हिंसा को जायज़ न मानते हुए भी इसके चलते व्यथित हो सकती है। उसे जान बूझकर व्यथित करने का या अपमानित करना क्या किसी तरह सभ्य है? एक विचार यह आया कि भावनाओं के आहत होने का तर्क तो किसी भी सीमा तक जा सकता है। अगर इसे मान लिया जाए तो कोई भी अभिव्यक्ति संभव न होगी क्योंकि कोई भी यह कह सकता है कि फलाँ अभिव्यक्ति से उसे ठेस पहुँची है। 

इसलिए जो किसी के लिए दूषण है, वह दूसरे के लिए अनिवार्य अभिव्यक्ति हो सकता है।
ये सवाल इस गोष्ठी के दायरे से कहीं विस्तृत थे। इसलिए तय हुआ कि इन पर आगे अलग से चर्चा होगी। इस्लाम और इस्लामी दुनिया में रुचि ही नहीं, उसकी गहरी जानकारी रखनेवाले इन मित्रों की चिंता लेकिन यह थी और इस मामले में कोई मतभेद नहीं था कि कितना ही गंभीर धार्मिक अपमान क्यों न हो, हिंसा किसी भी तरह जायज़ नहीं ठहराई जा सकती। काश! ऐसी स्थिर भाव से होने वाली चर्चाएँ हर जगह हो सकें और हर कोई मतभेद को उसी तरह स्वीकार कर सके जैसा इस चर्चा में देखा गया।
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अपूर्वानंद

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