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कश्मीर में हत्याएँ: इंसानियत का सबूत देने को आगे आएँ घाटी के मुसलमान

घाटी में हिंदू और सिख अल्पसंख्यक हैं। इसलिए उनकी हत्या अधिक गंभीर मसला है। बावजूद इसके कि जनवरी से अब तक जो 28 हत्याएँ हुई हैं, उनमें 23 मुसलमान हैं, हिंदुओं, सिखों और बाहर से आए लोगों में सुरक्षा का भाव पैदा करना वहाँ के स्थानीय मुसलमानों का फर्ज है। 
अपूर्वानंद

हर मौत हमें अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। हम पर कितना असर पड़ेगा, यह जिसकी मौत हुई है उससे हमारे संबंध की निकटता, प्रगाढ़ता या दूरी से तय होता है। हालाँकि मनुष्यता का तकाजा है कि प्रत्येक मृत्यु हमें विचलित करे लेकिन परिजन, स्वजन में भी बिछड़ गए व्यक्ति की उम्र, मृत्यु के कारण से यह निर्धारित होता है कि हमें किस तरह का शोक होगा। 

एक शिशु और युवक की मृत्यु और परिपक्व आयु में किसी का गुजरना, दोनों हमें अलग ढंग से प्रभावित करते हैं। हमें यह बुरा और अजूबा भी नहीं लगता कि जब हम मातम में डूबे हैं, अगल-बगल की ज़िंदगी की रफ्तार में कोई फर्क नहीं पड़ा है। हम कोई शिकायत नहीं करते। 

ऐसी मौतें लेकिन होती हैं जिन पर हम चाहते हैं कि सब दुखी हों: परिचित, अपरिचित सभी। गुजरात का भूकंप हो या ओडिशा का तूफान, उसमें मारे गए लोगों पर बिहार, केरल, गोवा, हर जगह शोक होना स्वाभाविक है और होता है। यही मनुष्य का स्वभाव है। 

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इरादतन हत्या 

ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें सिर्फ मृत्यु कहना उनकी गंभीरता को कम कर देता है। वे हत्या हैं। उनमें मनुष्य का इरादा शामिल है। लखीमपुर खीरी में जो मौतें हुईं क्या वे मात्र मौत थीं? कश्मीर में अभी हुई मौतों को क्या सिर्फ मौत कहा जा सकता है? क्या उन्हें हादसा या दुर्घटना भी कहा जा सकता है? नहीं, वे हत्या हैं। वे बीमारी, जरावस्था या प्राकृतिक दुर्घटना या मानवीय चूक या ग़लती की वजह से भी नहीं हुई थीं।

हिंसा के कारण ये मौतें हुई हैं और हिंसा भी अकारण नहीं है। फिर भी हिंसा और हिंसा में भी फर्क है। एक हिंसा वह होती है जो सिर्फ किसी एक नामधारी को  निशाना बनाती है। जिसने हत्या की, उसका उससे जिसकी हत्या उसने की, कोई रिश्ता होता है, अदावत का ही सही। 

हाँ! ऐसे लोग भी होते हैं जो किसी के कहने पर किसी की हत्या कर सकते हैं जिनसे उनका कोई लेना-देना भी न हो। इन्हें हम भाड़े के हत्यारे कहते हैं। 

ये हत्याएँ अपराध हैं। लेकिन इससे भी गंभीर अपराध उन हत्याओं में होता है जो बिना किसी निजी कारण के की जाती हैं। जो उनकी की जाती हैं जिन्हें हत्यारा निजी तौर पर नहीं जानता। 

लखीमपुर खीरी या कश्मीर की हत्याएँ ऐसी ही हैं। लेकिन एक स्तर पर समान लगते हुए भी दोनों हत्याओं में अंतर है। समानता यह है कि कातिल का मकतूल से कोई पुराना रिश्ता न था और वह समूह में की गई थीं। मकसद दोनों में ही दहशत फैलाना था।

लखीमपुर की हत्या के पीछे एक सामंतवादी हिंसा थी, अपनी मर्जी के खिलाफ सिर उठाने की सजा देने के अधिकार का अहंकार। उन्हें सबक सिखाना, जिन्हें आँख के आगे न दीखना था। 

कानून कैसे इस हत्या को अलग करके देख सकेगा? दंड संहिता में क्या कोई धारा है जो इसके लिए अलग सजा का प्रावधान करती हो?

कश्मीर में हत्याएँ 

कश्मीर की हाल की हत्याएँ इससे भी गंभीर हैं। हाल में 5 दिनों के भीतर 7 लोगों की हत्या की गई। इनमें भी जिस हत्या ने कश्मीर को हिला दिया वह माखन लाल बिंदरू की हत्या है। वे कश्मीरी पंडित थे और श्रीनगर की जानी-मानी शख्सियत थे।

नहीं छोड़ा कश्मीर

1947 से उनका परिवार वहाँ दवा की दुकानें चला रहा था। पिछली सदी के 90 के दशक में जब कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़ कर जा रहे थे, उन्होंने वहीं रहना तय किया। यह नहीं कि असुरक्षा उन्हें नहीं रही होगी लेकिन इसके बीच भी उन्होंने अपने वतन में ही रहना तय किया। इस वतनपरस्ती का पुरस्कार उन्हें गोली मार कर दिया गया, इससे ज्यादा सदमे की बात और क्या हो सकती है?

मारे गए लोगों में एक कश्मीरी मुसलमान भी है लेकिन एक बिहारी हिंदू खोमचे वाला भी। उसके बाद पहचान कर एक सिख और एक हिंदू अध्यापक की हत्या की गई। 

धर्म की पहचान करके हत्या

ये हत्याएँ धर्म की पहचान करके की गईं। स्कूल में बाकी अध्यापकों को छोड़कर उन्हें मार डाला गया। सिर्फ इस वजह से कि वे सिख और हिंदू थे। जाहिर है निशाना सिर्फ वे न थे। इन हत्याओं के जरिए कश्मीर के बाकी सिखों और हिंदुओं को बतलाया गया कि वे सुरक्षित नहीं हैं। यह भी कि जो कश्मीर के बाहर के हैं, उन्हें सावधान रहना चाहिए। 

इस तरह की हत्याओं में दो बातें हैं जिन पर हमें ध्यान देना चाहिए। एक तो जिसे मारा गया उसका निजी तौर पर कोई महत्व नहीं है, उसे उसके वह होने की वजह से नहीं मारा गया है। बल्कि उसका अमूर्तन उसकी एक ऐसी पहचान में कर दिया गया है जो उसे नितांत आंशिक तौर पर ही परिभाषित कर सकती है। यह मारे गए व्यक्ति का अपमान है। 

दूसरा, यह उस धार्मिक पहचान के हर व्यक्ति के लिए धमकी है और उसके लिए हमेशा की शंका पैदा करता है। इस हत्या का असर मारे गए व्यक्ति के परिवार तक सीमित नहीं रहेगा, यह मारने वाला जानता है।

और बढ़ेगा अलगाव 

इसका मकसद इससे भी आगे है। यह माना ही जाएगा कि मारने वाला मुसलमान है। कश्मीर एक पेचीदा जगह है और उसमें होने वाली वारदात के बारे में सच जानना कठिन है फिर भी इन हत्याओं के बारे में यह निष्कर्ष सभी निकालेंगे। इससे कश्मीर में मुसलमानों, सिखों, हिंदुओं के बीच अलगाव और शक बढ़ेगा। यह किसका मकसद है? 

विश्लेषक कह रहे हैं कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ऐसा चाहती है। वह यह भी चाहती है कि इसके कारण भारत में सांप्रदायिक विभेद और गहरा हो। लेकिन क्या सिर्फ वह ऐसा चाहती है? क्या भारत की संघीय सरकार चलाने वाला दल, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह नहीं चाहते और इस अलगाव को वे नहीं बढ़ा रहे? 

जो भी सिखों और हिंदुओं की और बाहरी लोगों की हत्या कर रहे हैं वे भारत में कश्मीरियों के ख़िलाफ़ भी घृणा बढ़ाना चाहते हैं, इसमें कोई शक नहीं। कश्मीरियों के ख़िलाफ़ भी नफरत भारत में इन हत्याओं के पहले और इनके बिना भी रही है।

वह कौन पैदा करता है, यह भी हम जानते हैं। जो हो, इन हत्याओं का अर्थ और असर इसी तरह के हमले में मारे गए मुसलमान की हत्या से अलग है। 

हिंदू या सिख असुरक्षित 

राहुल पंडिता की इस बात से सहमत न होना कठिन है कि कश्मीरी मुसलमान भले ही ऐसे हमलों में मारे जाएँ, बाकी कश्मीरी मुसलमान इनके कारण कश्मीर छोड़कर भागने की नहीं सोचेंगे। लेकिन हिंदू या सिख और असुरक्षित महसूस करेंगे। 

यही इसका उद्देश्य है। हिंदू और सिख लोगों की हत्या पर अलग से बात करना इसीलिए जरूरी है। 

मुसलमानों की हत्या 

घाटी में हिंदू और सिख अल्पसंख्यक हैं। इसलिए उनकी हत्या अधिक गंभीर मसला है। बावजूद इसके कि जनवरी से अब तक जो 28 हत्याएँ हुई हैं, उनमें 23 मुसलमान हैं, हिंदुओं, सिखों और बाहर से आए लोगों में सुरक्षा का भाव पैदा करना वहाँ के स्थानीय मुसलमानों का फर्ज है। 

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आगे आएं बहुसंख्यक 

यह कहकर कि उनके अधिक लोगों की हत्या की गई है, वे इस मानवीय और राजनीतिक कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकते। उसूल यह है कि बहुसंख्यक आबादी को आगे बढ़कर अल्पसंख्यक आबादी को साथ का भरोसा देना चाहिए। हिंसा वे न रोक पाएं, हत्या न रोक पाएं लेकिन यह बता सकते हैं कि वे हत्यारों के साथ नहीं हैं। ईमानदारी से। इसके बावजूद कि कश्मीर में बहुसंख्यक होकर भी वे भारतीय राज्य के आगे अल्पसंख्यक की हैसियत ही रखते हैं। 

वे इस राज्य के सामने उतने ही असहाय हैं जितना इन हत्यारों के सामने मारे गए लोग थे। इन बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमानों पर तो उन्हीं की जगह में निशाना बनाकर ही, चुन-चुनकर ही जुल्म किया जाता है। राज्य के जुल्म के शिकार लोगों में मुसलमानों के अलावा और कौन है?

और इन सताए जा रहे मुसलमानों के प्रति सहानुभूति की मुखरता कहाँ है? इन सबके बावजूद इस घड़ी में घाटी के मुसलमानों को इंसानियत का सबूत देना ही होगा। 

  

मानवीयता सप्रयास पैदा करना कठिन है। विशेषकर ऐसी जगह जहाँ भारतीय राज्य ने क्रूरता, झूठ, धोखाधड़ी को भारतीयता के पर्याय के रूप में स्थापित कर दिया है। लेकिन जैसा हमने कहा, कश्मीरी मुसलमानों को इस मामले में अपने दर्द, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को पीछे रखकर बतलाना चाहिए कि भारतीय राज्य उनकी आत्मा को कुचल पाने में कामयाब नहीं हो पाया है।   

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