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सिंघु बॉर्डर पर डटे किसान। फ़ोटो साभार: पुष्कर राजन व्यास

2020: व्यक्ति ने ख़ुद को साबित किया, संस्थाओं ने घुटने टेक दिए!

साल का अंत एक बड़ी कूच के साथ हुआ है। दिल्ली चलो, उस नारे के साथ। यह नारा एक याद है। किसी और ने दिया था। सरकार अपनी तरह के लोगों की न थी। लेकिन क्या उस ‘दिल्ली चलो’ का मतलब सिर्फ़ यह था कि दूसरे दीखनेवालों को खदेड़ दिया जाए? या यह कि जिस हिन्दुस्तानी को माना गया था कि उसे सभ्यता की शिक्षा दी जानी है और वह अपना भला बुरा नहीं समझ सकता...
अपूर्वानंद

2020 का सूर्य अस्ताचलगामी है। इस साल को कैसे याद करेंगे? वर्ष भारत के लिए आरंभ हुआ था उम्मीद की काँपती हुई लौ की गरमाहट के साथ और विदा ले रहा है फिर से आशा के दीप की ऊष्मा देते हुए। 2019 की समाप्ति में जनतान्त्रिक संभावना की एक रेख आसमान में फूटी थी, जल्दी ही वह मिटा दी गई और पूरे साल उसके खो जाने की चुभन बनी रही लेकिन जाते जाते फिर वह हिम्मत बँधा रहा है: इंसाफ़ और खुदमुख्तारी का ख़याल क़तई गुम नहीं हो गया है। इंसान को उसके पेट के बल झुकाने के लिए मजबूर कितना ही क्यों न किया जाए, उसे याद रहता है कि उसे रीढ़ सीधी रखनी है, कि वह लम्बवत रेंगनेवाला नहीं, गुरुत्वाकर्षण के प्रति सतत सजग और उसके साथ तनाव और संघर्ष में ऊर्ध्वमुख खड़ा रहनेवाला प्राणी है। वह ऐसा प्राणी है जिसे मालूम है ऊर्ध्वमुखता की क़ीमत चुकानी होती है। जो मनुष्य समाज इसे हमेशा के लिए मिल गई अवस्था मान बैठता है, वह इसे खो देता है और उसका अहसास उसे काफ़ी बाद में होता है। वापस खड़े होने की जद्दोजहद ख़ून माँगती है। नागार्जुन याद आते हैं: ‘युग के संकट भारी टैक्स वसूल करेंगे।’ अपने ज़माने और वक़्त को बिना वह कर चुकाए कैसे आप आगे बढ़ सकते हैं?

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

व्यक्ति तो वही है जिसका व्यक्तित्व हो। व्यक्तियों के समाज की भी शख्सियत होती है। उसे मिटा देने का मतलब है व्यक्ति का लोप। इसे पूरी दुनिया में जाने कितनी बार समझा गया है लेकिन हर पीढ़ी को शायद अपने तरीक़े से, अपने हिस्से का दाम देकर फिर से यह संवेदना हासिल करना होती है। आधुनिक समाज के छोटे से इतिहास में कितने मौक़े आए हैं जब समाज के अपनी शक्ल खो देने का ख़तरा आ खड़ा हुआ है। जब वह अपने चेहरे को एक मुखौटे से ढँक लेने में धन्य महसूस करने लगता है। उस मुखौटे को ही अपना चेहरा समझ बैठता है। जो कोई बिना उसके इस समाज के सामने आता है, उसे यह अपना शत्रु मान लेता है। लेकिन वह एक नंगे चेहरेवाला शख्स सबको याद दिलाता है कि उन सबके अलग-अलग चेहरे हैं।

यह ठीक है कि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे अपने अलग होने का तीखा एहसास है। लेकिन वह उससे संतुष्ट नहीं होता। वह किसी वृहत्तर में स्वयं को लय करना चाहता है। लेकिन हर वृहत्तर की सीमा है। आकाशगंगा एक नहीं है। सब हैं और एक दूसरे से तनाव के कारण ही सबका अस्तित्व है। यह तनाव जिस दिन शिथिल पड़ गया उस दिन सब कुछ विलीन हो जाएगा। सीमा का बने रहना सीमा का अतिक्रमण करके अन्य से संबंध बनाने की आकांक्षा के लिए अनिवार्य है। अन्यथा, परता का बोध क्या उसे नष्ट करने की हिंसा पैदा करता है या हाथ बढ़ाकर उस अन्य का हाथ थामने का न्योता देता है?

भारत में यह न्योता 2019 में मुसलमानों ने सबको दिया, सारे भारतीयों को। ख़ासकर हिंदुओं को। क्या ताज्जुब की बात है कि उस पुकार को सुनकर हमारे नौजवान सबसे पहले निकले?

चाहे दिल्ली हो या पटना, गुवाहाटी हो या कोलकाता, हैदराबाद हो या राँची, कॉलेज, विश्वविद्यालय की छात्राएँ और छात्र सड़क पर निकले। एक का दावा इस भारत पर दूसरे के दावे को कमतर करके मज़बूत नहीं बनाया जाएगा। लेकिन दुख की बात है कि यह पुकार प्रायः अनसुनी कर दी गई। आवाज़ देनेवाले गले दबा दिए गए। लेकिन क्या वह पुकार पूरी तरह खो गई?

voice of dissent in 2020 from anti caa agitation to farmers protest - Satya Hindi
सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन। फ़ाइल फ़ोटो

और इस बीच कुदरत ने दखल दिया। मनुष्य को उसकी अकिंचनता, उसकी निरुपायता का बोध हुआ। उस छटपटाहट का जो सिर्फ़ जीने की होती है। यह विनम्रता का क्षण हो सकता था। लेकिन एक हिस्से ने अपनी हिंसा से मुक्ति का यह अवसर भी गँवा दिया। विज्ञान ने स्वीकार किया कि वह अभी इसे समझ रहा है। कोरोना वायरस ने शरीर, स्वास्थ्य को समझने के लिए एक और चुनौती पेश की। अलग-अलग देशों में सरकारों ने अलग-अलग रवैया दिखलाया। लेकिन इस वायरस के चलते अनजान को लेकर पैदा हुए भय का लाभ भी सत्ता ने उठाया। सुरक्षा देने के आश्वासन के भ्रम में उसपर अपना शिकंजा कसने का एक मौक़ा उसे मिला। 

एक ही साथ स्वार्थ, क्षुद्रता, फूहड़पन और हिंसा और उदारता, मानवीयता, उदात्तता और सहानुभूति, दोनों के ही उदाहरण प्रचुरता में दिखलाई पड़े। कायरता और साहस, हिम्मत छोड़ बैठने और जीवट: साथ–साथ मनुष्यता ने इनका अनुभव किया।

voice of dissent in 2020 from anti caa agitation to farmers protest - Satya Hindi
कोरोना लॉकडाउन के बीच शहरों से पैदल अपने घर को लौटते लोग। फ़ाइल फ़ोटो

कोरोना वायरस ने फिर से समझाया कि स्थायित्व भ्रम है। मनुष्य को मालूम होना चाहिए कि अस्थायित्व ही अस्तित्व को परिभाषित करता है। स्थायी का अहंकार टूटना ही चाहिए। प्रकृति बार-बार यह संदेश देती है लेकिन इसे याद नहीं रखा जाता।

अमरीका में साधारण जन ने स्थायित्व के इस घमंड को तोड़ दिया और एक भुलावे से खुद को आज़ाद किया। भारत में वह साधारण जन इस साल के शुरू में एक शक्ल में उठा व खड़ा था, साल का अंत आते आते एक दूसरी शक्ल में उसने सर उठाया है। 

शमशेर बहादुर सिंह याद आ जाते हैं: जब जब इस साधारण जन ने तकलीफ में करवट बदली है, सरकारें पलट गई हैं।

अभी भारत में सत्ता के अहंकार और साधारण जन के सहज बोध और उसके जीवट के बीच संघर्ष चल रहा है। इस संघर्ष में जो दिखा है वह यह कि व्यक्ति ने तो बार-बार ख़ुद को साबित किया है लेकिन उसकी बनाई संस्थाओं ने घुटने टेक दिए हैं। संस्थाओं का दमन या उनका आत्मसमर्पण? सर्वोच्च न्यायालय हो या विश्वविद्यालय, सबने आगे बढ़कर अपनी ताक़त सत्ता में विलीन कर दी। संचार माध्यमों ने घुटने टेक दिए। और सबसे अधिक साधन सम्पन्न लोगों ने। यह कहना व्यर्थ है।

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जनतंत्र में जब ऐसा होता है तो व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। इस एकाकीपन की तीव्रता महेश राउत, आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, स्टैन स्वामी, वरवर राव, शोमा सेन, सुधा भारद्वाज या इशरत जहाँ, नताशा नरवाल, देवांगना कालीता, गुलफिशां, शरजील इमाम, खालिद सैफी, आसिफ तन्हा या उमर खालिद जैसे व्यक्ति अनुभव कर रहे हैं। वे एकाकी हैं ताकि सामूहिकता और सामाजिकता जीवित रहे। उन्होंने अपनी आज़ादी दाँव पर लगा दी थी जिससे भारत में आज़ादी और उसकी ज़रूरत का अहसास ज़िंदा रहे। एक तरह से ये हम सबके लिए चुनौती हैं: क्या हम इंसान के तौर पर ज़िंदा हैं?

वीडियो चर्चा में देखिए, किसान आंदोलन: झुकेंगे किसान या सरकार?

साल का अंत एक बड़ी कूच के साथ हुआ है। दिल्ली चलो, उस नारे के साथ। यह नारा एक याद है। किसी और ने दिया था। सरकार अपनी तरह के लोगों की न थी। लेकिन क्या उस ‘दिल्ली चलो’ का मतलब सिर्फ़ यह था कि दूसरे दीखनेवालों को खदेड़ दिया जाए? या यह कि जिस हिन्दुस्तानी को माना गया था कि उसे सभ्यता की शिक्षा दी जानी है और वह अपना भला बुरा नहीं समझ सकता, वह हिंदुस्तानी कह रहा था कि मेरा इंसान होना ही मेरी आज़ादी और स्वायत्तता की दलील है। क्या यही बात आज उस हिन्दुस्तानी को नहीं कही जा रही? यह कि तुम्हें अभिभावक चाहिए। वह जो धरती के साथ जीता है, जो कुदरत का साथी है, जो सिर्फ़ मिट्टी को नहीं सजाता-सँवारता है बल्कि दूसरे प्राणियों को भी, उस किसान ने तय किया कि वह सत्ता को सभ्य बनाएगा। यह वह सिर्फ़ अपने लिए नहीं कर रहा। उसका संघर्ष आर्थिक नहीं साभ्यतिक है। जिससे पिछले साल के अंत में एक पुकार उठी थी, वह दुबारा लौट आई है। 

क्या 2021 में इस पुकार के आलोक में हम सब ख़ुद को दुबारा खोज पाएँगे?

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