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भेदभाव के ख़िलाफ़ इंग्लैंड के सख़्त रुख से कुछ सीखेगा भारत?

इंग्लैंड की मीडिया ने भेदभाव की निंदा तो की ही, क्रिकेट प्रशासन ने जिस तरह इसे निपटाने की कोशिश की, उसकी भी भर्त्सना की। लेकिन इंग्लैंड और वेल्स क्रिकेट बोर्ड ने दखल दिया और यॉर्कशायर क्लब को अनुशासित किया। ऐसा इंग्लैंड में हो सकता है लेकिन भारत में इसकी कल्पना करना कठिन है। 

अपूर्वानंद

इतवार को टेलीग्राफ़ अख़बार में छपे मुकुल केसवन के लेख में इंग्लैंड या ग्रेट ब्रिटेन में नस्ल, धर्म, क्रिकेट और राजनीति के रिश्तों पर चर्चा की गई है। वे उस विवाद के सहारे बात करते हैं जिसने पिछले कुछ वक्त से इंग्लैंड के क्रिकेट संसार को झकझोर रखा है। यॉर्कशायर के खिलाड़ी अज़ीम रफ़ीक़ ने यॉर्कशायर काउंटी क्रिकेट क्लब पर नस्लवादी भेदभाव का आरोप लगाया था। उनका इलज़ाम था कि यह मामला किसी एक घटना या एक व्यक्ति से जुड़ा नहीं है बल्कि संस्थागत या संरचनागत है। इस आरोप से खलबली मच गई और जाँच के लिए एक समिति बनाई गई। 

तकरीबन एक साल बाद जब इंग्लैंड और वेल्स क्रिकेट बोर्ड ने पूछा कि रिपोर्ट कब जारी की जाएगी तो यॉर्कशायर क्लब ने बयान जारी किया। 

इस बयान में उसने साफ़ तौर पर नस्लवादी भेदभाव की बात कबूल नहीं की लेकिन स्वीकार किया कि अज़ीम  अनुचित बर्ताव के शिकार हुए हैं। 

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अज़ीम का एतराज 

100 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को लेकर दिए गए वक्तव्य में ऐसे बर्ताव को नाकाबिले बर्दाश्त कहा गया है। क्लब ने इसके लिए माफी भी माँगी है। लेकिन अज़ीम रफ़ीक ने इस वक्तव्य को निहायत ही अपर्याप्त बताते हुए कहा कि ज़बानी खेल से सच्चाई कहीं छिपने वाली नहीं है। उन्होंने पूछा कि आखिर यह साफ़ किया जाना चाहिए कि मेरे किन आरोपों को सही पाया गया है। नस्लवादी भेदभाव को सिर्फ अनुचित व्यवहार कहने से भी उन्हें एतराज है। 

जिम्मेवार कौन?

ध्यान रहे कि प्रायः श्वेत, ईसाई देश में अज़ीम एक पाकिस्तानी मूल के मुसलमान हैं और कोई सितारा खिलाड़ी नहीं हैं, हालाँकि उन्होंने जूनियर टीम का नेतृत्व किया है। केसवन ने ठीक लिखा है और यह इंग्लैंड में और लोग भी लिख रहे हैं कि क्लब के इस बयान का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है। 

अगर नस्लवादी भेदभाव हुआ है और अज़ीम को उस आधार पर प्रताड़ित किया गया है तो इसके लिए जिम्मेवार लोगों को सजा मिलनी चाहिए। उसके बिना इसे मात्र अनुचित व्यवहार कहकर इसकी गंभीरता को घटाने की कोशिश दयनीय है। 

पहले भी लगे हैं आरोप 

दूसरे क्रिकेटरों ने भी इसके पहले और बाद में, इंग्लैंड में नस्लवादी भेदभाव  का आरोप लगाया है। केसवन का कहना है कि इस तरह का भेदभाव कोई बहुत हैरानी की बात नहीं। कम से कम हम भारतीयों के लिए जो जातिगत और धर्म आधारित अपमान और भेदभाव के आदी रहे हैं। दूसरा यह कि दोनों देशों के क्रिकेट की संस्कृति में बहुत फर्क नहीं है। फर्क एक दूसरी जगह है। 

न सिर्फ इंग्लैंड के क्रिकेट खिलाड़ी, बल्कि सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले लोगों की तरफ से अज़ीम को समर्थन ही नहीं मिला, इस भेदभाव की भी काफी आलोचना की गई।

वहाँ की मीडिया ने भेदभाव की निंदा तो की ही, क्रिकेट प्रशासन ने जिस तरह इसे निपटाने की कोशिश की, उसकी भी भर्त्सना की। लेकिन इंग्लैंड और वेल्स क्रिकेट बोर्ड ने दखल दिया और यॉर्कशायर क्लब को अनुशासित किया। ऐसा इंग्लैंड में हो सकता है लेकिन भारत में इसकी कल्पना करना कठिन है। 

वसीम जाफर का मामला 

अगर आप कुछ वक्त पहले वसीम जाफर के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे याद कर लीजिए। भारत के क्रिकेटर अपने साथी खिलाड़ी के अपमान पर  खामोश रहे। उसके बाद मोहम्मद शमी को जो झेलना पड़ा, वह तो ताज़ा ही है। कप्तान विराट कोहली को उनके अपमान के खिलाफ बोलने के लिए एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में पत्रकार के सवाल का इंतज़ार करना पड़ा। उसके बाद कोहली पर भी अश्लील हमला हुआ और उनके पक्ष में अब तक कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं किया गया है। 

Yorkshire player Azeem Rafiq racism issue - Satya Hindi

शमी का मामला

भारत के बड़े और शक्तिशाली क्रिकेट खिलाड़ियों की चतुराई तुरंत पकड़ ली गई जब शुरुआती चुप्पी के बाद उन्होंने शमी की पीठ ठोकना शुरू किया लेकिन यह कहने से खुद को बचा ले गए कि शमी पर हुआ हमला इसलिए शर्मनाक था कि वह साम्प्रदायिक हमला था। खैर! भारत की बात अभी रहने दें। 

नस्लभेदवादी फ़ब्ती 

इंग्लैंड में इस घटना पर राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई। सरकार के एक मंत्री ने सख़्त रुख लेते हुए कहा कि यह कोई मामूली बात नहीं है और इसके लिए जिम्मेवार लोगों को पहचानकर दण्डित किया जाना चाहिए। क्रिकेट प्रशासन से कुछ लोगों की बर्खास्तगी होनी ही चाहिए। मंत्री साजिद जावीद ने लिखा कि 'पाकी' कोई मज़ाकिया लफ्ज़ नहीं है। यह एक नस्लभेदवादी फ़ब्ती है। इसके लिए यॉर्कशायर में लोगों को बर्खास्त होना ही चाहिए। और अगर ऐसा नहीं होता तो इंग्लैंड का क्रिकेट प्रशासन किसी काम का नहीं है। 

इंग्लैंड की सरकार में साजिद जावीद ताकतवर मंत्री हैं। वे पाकिस्तानी आप्रवासी माता-पिता की संतान हैं। अभी स्वास्थ्य मंत्री हैं। इसके पहले देश के एक्सचेकर के चांसलर थे। ध्यान रहे कि सरकार टोरी पार्टी की है। कोई प्रगतिशील पार्टी की नहीं। लेकिन उसमें भी एक गैर-गोरा, गैर ईसाई, विदेशी मूल का राजनेता, वह भी मुसलमान, मंत्री बन सकता है और मंत्री रहते हुए असरकारी दखल दे सकता है। 

केसवन ने इस पर ध्यान केंद्रित रखने को कहा है कि एक ऐसा देश, जो हाल हाल तक खुद को सभ्यता का अगुआ और शिक्षक कहता था और एशिया या अफ़्रीका को असभ्य मानता था, आज उन्हीं प्रदेशों के लोगों को अपनी सरकार में अगुआई दे रहा है।

गैर ईसाईयों को पूरा हक़ 

अगर स्वास्थ्य विभाग एक पाकिस्तानी मूल के साजिद जावीद के पास है तो उससे भी महत्वपूर्ण विभाग भारतीय मूल की प्रीति पटेल के पास है। इनके अलावा वित्त जैसा विभाग भारतीय मूल के ऋषि सुनाक के जिम्मे है। उप प्रधानमंत्री एक यहूदी डोमनिक राब हैं। इराक़ी कुर्द नदीम ज़हावी शिक्षा विभाग संभाल रहे हैं। 

ऋषि सुनाक के बारे में तो कयास लगाया जा रहा है कि वे टोरी पार्टी के भावी नेता भी हो सकते हैं। जिसका अर्थ यह है कि अगर टोरी पार्टी अगला चुनाव जीत गई तो वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। 

एक भारतीय मूल का हिंदू इंग्लैंड का प्रधानमंत्री! इस कल्पना से कुछ लोगों के मन में गुदगुदी होगी। कुछ का सीना चौड़ा हो जाएगा। क्या यह भारत की विशेषता है या हिंदू धर्म का प्रताप है कि वे यहाँ पहुँच सकते हैं?

भारत में इसे ऐसे ही प्रचारित किया जाएगा। लेकिन ईमानदारी से देखें तो यह इंग्लैंड की सामाजिक, सांस्कृतिक प्रगतिशीलता और उदारता का ही परिणाम है। 

राष्ट्रीय अस्मिता का विस्तार

ऐसा नहीं कि आखिर ब्रिटेन को भी भारत और हिंदू धर्म या इसलाम का लोहा मानना ही पड़ा। बल्कि यह कि ब्रिटेन के लोगों ने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का इतना विस्तार किया है कि उसमें पहली या दूसरी पीढ़ी के आप्रवासी और गैर ईसाई बराबर की जगह ही नहीं पा सकते बल्कि वे उसके प्रतिनिधि, प्रवक्ता और नेता तक हो सकते हैं। तो इसमें बड़ाई किसकी है?

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उदार राजनीतिक संस्कृति

अभी हम इन राजनेताओं की राजनीतिक विचारधारा की बात ही नहीं कर रहे। हम तो अभी एक देश की, जो हाल तक श्रेष्ठतावादी ग्रंथि से पीड़ित था, उसकी उदार राजनीतिक संस्कृति की बात कर रहे हैं। उसकी राष्ट्रीय आत्मा के विस्तार के साथ उसके इत्मीनान की तरफ ध्यान दिला रहे हैं। 

क्या उसके बिना एक नया खिलाड़ी अपने खेल प्रशासन को लगातार और सख्ती से कुछ उसूलों से पाबंद करने का साहस कर सकता था? और क्या उसके एतराज की प्रतिध्वनि वहाँ की संसद तक में हो सकती थी? 

अज़ीम को हाउस ऑफ़ कॉमन्स की समिति के सामने अपनी बात रखने को बुलाया जाएगा। क्या यह सब कुछ बहुत अजूबा है? कोई देश, कोई जनता आखिर आगे कैसे बढ़ती है? 

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