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26% का साथ+22% की विवशता=तीसरी बार ममता 

बंगाल की 70% आबादी जो हिंदू है और जिस पर किसी तरह का दबाव नहीं है, जिसके सामने जीवन-मरण का कोई प्रश्न नहीं है, जो 'निष्पक्ष' तौर पर सरकार के कामकाज पर अपनी राय दे सकती थी, उसमें से केवल 26-27% ने ममता को कामकाज को सराहा है। 
नीरेंद्र नागर

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत के पीछे विश्लेषक तरह-तरह के कारण गिना रहे हैं। कोई ममता की लोकप्रियता को वजह बता रहा है तो कोई उनके काम को। कोई बंगाली अस्मिता पर आधारित उनके अभियान को श्रेय दे रहा है तो कोई प्रतिपक्ष में सशक्त स्थानीय नेता के अभाव को इसका कारण बता रहा है। कुछ लोग ममता की जीत को इन सबका मिलाजुला परिणाम मान रहे हैं।

लेकिन एक बात को सब नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। वह यह कि क्या वाक़ई 48% वोट शेयर पर आधारित इस विशाल जीत का अर्थ यह है कि बंगाल की जनता ममता और उनकी पार्टी से बहुत ख़ुश है। मेरी राय है - नहीं। क्यों, यह मैं नीचे समझाने की कोशिश करता हूँ। 

किसी के प्रदर्शन का आकलन अगर आपको करना हो तो आप कैसे करेंगे? मसलन किसी बच्चे ने कविता लिखी। क्या उसके माता-पिता उस कविता का सही और निष्पक्ष आकलन कर सकते हैं? शायद नहीं। और अगर कर भी सकते हों तो क्या बाक़ी दुनिया में उस आकलन की वह स्वीकार्यता होगी? नहीं होगी।

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निष्पक्ष विश्लेषण ज़रूरी

कारण, दुनिया की नज़र में एक संदेह हमेशा बना रहेगा कि कहीं माता-पिता ने बच्चे से अपने भावनात्मक जुड़ाव के कारण तो उस कविता को अच्छा नहीं बताया। इसीलिए ज़रूरी है कि उस कविता का सही आकलन किसी तीसरे व्यक्ति से करवाया जाये। ऐसे व्यक्ति से जिसका उस बच्चे से किसी भी प्रकार का भावात्मक लगाव न हो और जो बिना राग-द्वेष के केवल गुण-अवगुण के आधार पर उस कविता को परख सके।

 मुसलमानों ने समर्थन किया पर क्यों? 

यही बात बंगाल के चुनाव परिणाम के साथ भी है। जिन 48% लोगों ने चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया है, क्या उन सभी ने पार्टी और सरकार के कामकाज के आधार पर वोट दिया था या मतदान करते समय उनके ज़ेहन में कोई और बातें भी थीं? बाक़ी लोगों के बारे में तो नहीं लेकिन मुसलमानों के बारे में हम दावे से कह सकते हैं कि तृणमूल कांग्रेस को वोट देने के पीछे की उनकी वजह केवल कामकाज नहीं रही होगी।

बीजेपी और उसके सहयोगी जिस तरह से देशभर में मुसलिम विरोधी नफ़रत फैला रहे हैं, यह स्वाभाविक था कि मुसलमान तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में थोकबंद वोट करें।

मैं नहीं कह रहा कि सभी मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस को केवल इसी आधार पर वोट दिया होगा। हो सकता है, कई मुसलमान परिवारों को ममता सरकार की योजनाओं से लाभ भी हुआ हो। लेकिन जैसा कि ऊपर मैंने माता-पिता का उदाहरण दिया, यहाँ भी मुसलमानों के थोकबंद समर्थन को हम ममता सरकार के अच्छे काम पर मुहर नहीं मान सकते। संदेह की गुंजाइश बनी रहेगी।

ममता के कामकाज के सटीक मूल्यांकन के लिए हमें ऐसे वोटरों की राय जाननी होगी जिनके सामने ऐसा कोई भय नहीं था, कोई दबाव नहीं था, कोई मजबूरी नहीं थी। ऐसे वोटर कौन हैं? निश्चित रूप से बाक़ी वोटर। ये बाक़ी वोटर कौन हैं और कितने हैं?

west bengal assembly election 2021 : equation behind TMC, mamata banerjee win - Satya Hindi

तृणमूल के शेष समर्थक कितने? 

पिछले 10 सालों से देश में कोई जनगणना नहीं हुई, इसलिए ताज़ा आँकड़े तो किसी के पास नहीं हैं लेकिन अनुमान लगाया जाता है कि बंगाल में मुसलमानों की आबादी 30% है और लोकनीति-CSDS सर्वे के अनुसार इस बार टीएससी को 75% मुसलमानों का समर्थन मिला है।  

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30% (मुसलिम) आबादी का 75% कितना होगा - क़रीब 22%। यानी तृणमूल को मिले कुल 48% जनसमर्थन में 22% हिस्सा तो केवल मुसलमानों का है। उसकी जीत में हिंदू वोटरों का हिस्सा है बाक़ी बचा 26%। कुल आबादी का 26% यानी हिंदू वोटरों का क़रीब 40%। लोकनीति-CSDS सर्वे में भी इससे मिलता-जुलता निष्कर्ष निकला है - 39% हिंदुओं ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया है।
दूसरे शब्दों में बंगाल की हिंदू आबादी जिस पर किसी तरह का दबाव नहीं है, जिसके सामने जीवन-मरण का कोई प्रश्न नहीं है, जो निष्पक्ष तौर पर सरकार के कामकाज पर अपनी राय दे सकती थी, उस 70% हिंदू आबादी में से ३९% हिस्से ने ही ममता को कामकाज को सराहा है।

इसी बात को उलटकर कहें तो जिन हिंदू वोटरों के सामने बीजेपी सरकार के सत्ता में आने पर कोई ख़तरा नहीं था, जिनके मन में कोई डर नहीं था, जिनके सामने तृणमूल को वोट देने की विवशता नहीं थी, जो कामकाज के आधार पर अपनी राय बना सकते थे तो उनमें बहुमत तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ है। 

यानी बहुमत ने ममता को नकारा?

निष्कर्ष यह कि जनता जूरी के ‘निष्पक्ष’ और ‘दबावमुक्त’ सदस्यों ने बहुत बड़े - 61:39 के अंतर - से ममता बनर्जी के प्रदर्शन को नकार दिया है, उन्हें दुबारा सत्ता सौंपने के प्रति अपनी घोर असहमति दिखाई है। 

फिर कैसे कहें कि ममता बनर्जी अपने नाम और काम की वजह से तीसरी बार सत्ता में आई हैं? 

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रुकिए, रुकिए। इतनी जल्दी कोई राय बनाने से पहले ग़ौर कीजिए कि ऊपर मैंने जनता जूरी के जिन 70% हिंदू वोटरों को ‘निष्पक्ष’ बताया है, वे भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं है। इनमें से बड़ा हिस्सा पिछले कई सालों से तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ वोट देता आया है चाहे तब उनके अधिकांश वोट वाम मोर्चा और कांग्रेस के खाते में गए हों और कुछ वोट बीजेपी के खाते में।

जो हमेशा से ममता-विरोधी रहे

याद करें, 2016 में वाम मोर्चा-कांग्रेस को मिले 38% और बीजेपी को मिले 10% यानी कुल 48% वोट मूलतः तृणमूल कांग्रेस के कामकाज के विरुद्ध ही थे। आज पाँच साल बाद तृणमूल के विरुद्ध पड़ने वाले वोटों का प्रतिशत क़रीब-करीब वही है - 38% (बीजेपी) और 8% (लेफ़्ट-कांग्रेस) यानी 46%। दोनों बार में अंतर यही है कि आज जो 46% वोटर ममता के ख़िलाफ़ राय दे रहे हैं, उनमें हिंदुओं का हिस्सा 2016 के मुक़ाबले निश्चित रूप से ज़्यादा है। कारण, इसमें बीजेपी का वह 10% कोर वोटर भी शामिल है जिसने 2016 में पार्टी को वोट देता आ रहा है।

यानी इस ग़ैर-मुसलिम 70% तथाकथित ‘निष्पक्ष’ जूरी में भी एक बड़ा हिस्सा विचारधारा या दूसरे कारणों से सालों से ममता के ख़िलाफ़ ही वोट देता आया है चाहे सरकार का काम अच्छा हो या बुरा। इसलिए उसके निर्णय को भी ममता के कामकाज के बारे में न्याययुक्त फ़ैसला नहीं कहा जा सकता। 

अब जब 70% की इस 'निष्पक्ष' जूरी में से भी इस बड़े हिस्से को भी विचारधारात्मक पक्षपात के कारण अलग कर देते हैं तो उसके बाद जो बचते हैं, वही तृणमूल कांग्रेस के बारे में न्यायपूर्ण फ़ैसला कर सकते थे।

25-26% हिंदू ही निष्पक्ष हैं

यानी बंगाल की पूरी आबादी में क़रीब 25-26% मतदाता ही हैं जो बिना किसी विचारधारात्मक लगाव, दबाव, भय या मजबूरी के फ़ैसला कर सकते थे कि उन्हें किसे वोट देना है। वे चाहते तो बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति में बह सकते थे, वे चाहते तो तृणमूल नेताओं की कथित कमीशनख़ोरी के ख़िलाफ़ वोट कर सकते थे, वे चाहते तो तृणमूल कांग्रेस की दादागिरी के ख़िलाफ़ मतदान कर सकते थे। वे चाहते तो लेफ़्ट और कांग्रेस को वोट दे सकते थे। 

लेकिन उनमें से अधिकांश ने ऐसा कुछ नहीं किया। 

इन 26% निष्पक्ष और दबावमुक्त मतदाताओं ने ममता के नेतृत्व में विश्वास जताया है। इनमें से कई शायद उनके कामकाज और कल्याणकारी योजनाओं से ख़ुश हैं। कुछ ने तृणमूल को इसलिए वोट दिया कि वे बंगाल की कमान गुजरात से आए नेताओं के हाथ में सौंपना नहीं चाहते थे।

हर वोटर का अलग-अलग कारण हो सकता है। लेकिन निष्कर्ष यही कि पूरी आबादी में से क़रीब 26% वोटरों ने ही (जो हिंदू हैं) अपने-अपने कारणों से ममता को जिताया है। हाँ, इसमें उन्हें 22% मुसलिम वोटरों का बिना शर्त सहयोग अवश्य मिला है जो नहीं मिलता तो ये 26% वोटर किसी भी तरह से ममता को उस मुक़ाम पर नहीं पहुँचा पाते जहाँ आज वे हैं। कारण, हिंदू वोटरों में बहुमत बीजेपी के ही पक्ष में गया है। लोकनीति-CSDS सर्वे के हिसाब से इस बार बीजेपी को 50% और तृणमूल को 39% हिंदुओं का समर्थन मिला है। यानी 11% का अंतर।

सोचिए, अगर १०% वोट के अंतर पर तृणमूल कांग्रेस 213 सीटें पा सकती है तो ११% वोट के अंतर पर बीजेपी उससे बेहतर स्थिति में होती।

मुसलिम विरोधी राजनीति

परंतु फिर रुकिए। क्योंकि ऐसी स्थिति कभी आती ही नहीं। कारण, अगर राज्य में मुसलमान ही नहीं होते तो बीजेपी की मुसलमान विरोधी राजनीति नहीं होती और जब ऐंटी-मुसलिम राजनीति नहीं होती तब बीजेपी को उस कारण से मिलने वाले उन 20% सांप्रदायिक हिंदुओं के वोट भी नहीं मिलते जो इसी सर्वे के हिसाब से उसे मिले हैं।

west bengal assembly election 2021 : equation behind TMC, mamata banerjee win - Satya Hindi

हो सकता है, बीजेपी इन सांप्रदायिक वोटों के बग़ैर भी सत्ता में आती। हो सकता है कि ममता ही फिर से सत्ता में आतीं जैसा कि हम ओडिशा में देख रहे हैं, जहाँ मुसलमानों की तादाद 2-3% है और नवीन पटनायक ही लगातार जीतते आ रहे हैं।

तब चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में आती, लेकिन हम पक्के तौर पर कह पाते कि जनता ने इस नेता या दल को उसके कामकाज के आधार पर ही चुना है। आज की तारीख़ में हम ऐसा कहने की स्थिति में नहीं हैं। कारण मैंने ऊपर बता ही दिए हैं।

 

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नीरेंद्र नागर

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