पाकिस्तान और चीन के बाद जो देश तालिबान के साथ खुल कर खड़ा है, वह रूस है। वही रूस जिसे काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े से कोई परेशानी नहीं हुई, जिसका दूतावास थोड़े समय के लिए भी बंद नहीं हुआ, जिसके राजदूत ने औपचारिक रूप से कहा कि तालिबान के साथ काम करने में कोई दिक्क़त नहीं है।
वही रूस, जिससे तालिबान ने समावेशी सरकार बनाने में मदद माँगी है।
यह वही रूस है, जो व्यावहारिक तौर पर सोवियत संघ था। वही सोवियत संघ जिसने 1979 में अपने टैंक अफ़ग़ानिस्तान भेजे, अपने आदमी बबरक करमाल को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति बनवाया।
पर्यवेक्षकों ने अफ़ग़ान नीति को कम्युनिज़म की हार और सोवियत संघ के विघटन के कई कारणों में एक माना था। आज वही मॉस्को उसी अफ़ग़ानिस्तान में उन्हीं ताक़तों के साथ खड़ा है, जिन्होंने उसे वहां से उखाड़ दिया था।
रूस का समर्थन
इसे समझने के लिए पहले तालिबान को रूस से मिल रहे समर्थन पर ध्यान देना ज़रूरी है।
अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल तक चले अमेरिका-तालिबान संघर्ष पर मॉस्को चुपचाप नज़र टिकाए रहा, लेकिन काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के 48 घंटे के अंदर रूसी राजदूत दिमित्री ज़िरनोव ने तालिबान के एक प्रतिनिधि से मुलाकात की।
इतना ही नहीं, रूसी राजदूत ने इस आतंकवादी गुट को सर्टिफिकेट देते हुए कहा कि उन्होंने बदले की कार्रवाई या हिंसा का कोई सबूत नहीं देखा, जबकि सच यह है कि लगभग उसी समय तालिबान के लड़ाके महिलाओं की तसवीर पर कालिख पोत रहे थे और उन्हें ऑफ़िस में घुस कर घर जाने को कह रहे थे।
संयुक्त राष्ट्र में रूस के प्रतिनिधि वेसिली नेबेंज़िया ने कहा कि उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में सुलह की नई उम्मीद दिखती है, जबकि दूसरी ओर उसी समय तालिबान से लड़ने के लिए अहमद मसूद और पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान का गठन कर लिया था।
नेबेंज़िया ने कहा कि क़ानून का राज लौट रहा है और जिससे "सालों तक चले रक्तपात का अंत" हो गया है।
रूस की प्राथमिकता और उसकी भविष्य की योजना का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्रपति पुतिन के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव ने कहा कि निर्वासित राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की पुरानी 'कठपुतली सरकार' की तुलना में तालिबान से बातचीत करना आसान है।
रूस की दिलचस्पी
इससे पहले रूस के राजनयिकों ने दावा किया था कि तालिबान के कब्ज़े के ठीक पहले अशरफ़ ग़नी चार गाड़ियों और एक हेलीकॉप्टर में नकदी भरकर देश छोड़कर भाग गए। अशरफ़ ग़नी ने इन आरोपों को 'झूठ' कह कर खारिज़ कर दिया था।
तालिबान में रूस की दिलचस्पी यकायक नहीं बढ़ गई है। बीबीसी के अनुसार, तालिबान के प्रतिनिधियों ने साल 2018 से ही कई बार मॉस्को का दौरा किया और सरकार के प्रतिनिधियों से कई स्तरों पर मुलाक़ात की।
इससे अशरफ़ ग़नी की सरकार और मॉस्को में रिशते बिगड़े और उसने रूसी राष्ट्रपति के दूत पर तालिबान समर्थक होने का आरोप लगाया। उसने यह भी कहा कि रूस और तालिबान के बीच तीन साल से जारी बातचीत से अफ़ग़ानिस्तान सरकार को बाहर रखा गया।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया और तल्ख़ी से कहा कि अशरफ़ ग़नी सरकार 'एहसान फरामोश' थी।
तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने अगस्त 2017 में कहा था कि रूस तालिबान को हथियारों की आपूर्ति कर रहा है, रूस ने इससे इनकार किया था।
क्या कहा है रूस ने?
रूसी विदेश मंत्रालय ने इस पर कहा था, "हमने अपने अमेरिकी सहयोगियों से इस बात का सबूत देने को कहा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हम तालिबान को कोई समर्थन नहीं देते हैं।"
इसी तरह बीबीसी का कहना है कि ज़मीर काबुलोव ने इस साल फरवरी में तालिबान की तारीफ की थी और कहा था कि तालिबान ने अपनी ओर से दोहा समझौतों का सही तरह से पालन किया है, जबकि अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने इसे तोड़ा है। इस पर अफ़ग़ान सरकार नाराज़ हो गई थी।
सैद्धांतिक नहीं, व्यावहारिक कूटनीति
रूस के तालिबान प्रेम को समझने के लिए सीरिया में उसकी दिलचस्पी से समझा जा सकता है। रूस ने 2016 में सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद की मदद इसलिए शुरू की थी कि वह मध्य पूर्व में अपनी जगह बना सके।
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इस हद तक गए कि असद ने अपने ही नागरिकों पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया और मॉस्को चुप ही नहीं रहा, वह सीरियाई सेना के साथ खड़ा रहा।
नतीजा यह हुआ कि गृहयुद्ध लगभग हार चुके असद ने रूस की मदद से पासा पलट दिया और लोकतंत्र की माँग कर रही आम सीरियाई जनता, राष्ट्रवादी पार्टियों और अलगाववादी कुर्द समेत सभी ताक़तों को बुरी तरह पराजित कर दिया।
रूस अफ़ग़ानिस्तान में इसी नीति पर चल रहा है कि वह किसी कीमत पर मध्य एशिया पर अपनी पकड़ बना ले, इसके लिए यदि उसे अपने पुराने दुश्मन से हाथ मिलाना पड़े तो कोई बात नहीं।
मध्य एशिया में रूसी दिलचस्पी
मध्य एशिया के देश-कज़ाख़स्तान, ताज़िकिस्तान, उज़बेकस्तान और किर्गीस्तान सोवियत संघ में शामिल थे। सोवियत संघ बिखरने के बाद ये सब अलग-अलग हो गए और अपने रास्ते चल पड़े।
लेकिन इन चारों देशों में रूस की दिलचस्पी बढ़ गई जब व्लादिमीर पुतिन राष्ट्रपति बने। इसके दो कारण हैं।
व्लादिमीर पुतिन एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता हैं जो रूस को उसका पुराना गौरव दिलाने की बात करते आए हैं। सोवियत संघ तो नहीं बन सकता, लेकिन उस समय के सारे देश आज रूस के साथ एकजुट होकर रहें, यह तो हो ही सकता है।
रूस ने जब 2015 में क्रीमिया संकट के दौरान यू्क्रेन की खुले आम मदद की तो उसके पीछे यही सोच थी। इसी सोच के तहत पुतिन मध्य एशिया के इन चारों देशों में गहरी दिलचस्पी रखते हैं।
इसके अलावा इन चारों देशों में प्राकृतिक गैस का अकूत भंडार है और बड़ी मात्रा में कच्चा तेल भी है। इसके अलावा यूरेनियम, तांबा, लोहा, टंग्सटन वगैरह का विशाल भंडार भी है।लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि ये चारों देश एशिया को यूरोप से जोड़ते हैं।
जिस तरह राजनीतिक भौगोलिक रणनीति और विश्व सत्ता समीकरण बदला है और चीन सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरा है, मध्य एशिया की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
रूसी कूटनीति
इसकी बड़ी वजह यह है कि चारों देश अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से सटे हुए हैं और अफ़ग़ानिस्तान, चीन, रूस और ईरान से सटा हुआ है।
रूस ने जिस तरह अमेरिका के बदले चीन की ओर रुख किया है और भारत के साथ रिश्ते रखने के साथ ही पाकिस्तान से भी रिश्ते सुधार रहा है, उससे यह साफ है कि उसे अफ़ग़ानिस्तान में भी अपनी पैठ बनानी चाहिए।
मध्य एशिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए ही चीन और रूस ने 2001 में क्षेत्र के चार देशों के साथ मिल कर शंघाई सहयोग संगठन (शंघाई कोऑपरेश ऑर्गनाइजेशन) बनाया। भारत इसका विरोध नहीं करे, इसलिए भारत को बहुत बाद में शामिल किया गया और चीन ने इसे संतुलित करने के लिए उसके बाद पाकिस्तान को इसमें जोड़ लिया।
चीन और रूस भले ही कहते रहें कि यह आर्थिक सहयोग के लिए है और इसका कोई सैनिक स्वरूप कभी नहीं होगा, सच तो यह है कि ज़रूरत पड़ने पर इसे सैन्य संगठन किसी भी समय बनाया जा सकता है।
क्षेत्रीय सहयोग और सुनामी जैसी स्थिति से निपटने के लिए बनाया गया क्वाडिलैटरल डायलॉग यानी क्वैड आज 'एशियन नेटो' कहा जा रहा है। इसी तरह शंघाई सहयोग संगठन का स्वरूप भी बदल सकता है।
सोवियत सेना के टैंक जब 1979 में रूस से चल कर कज़ाख़स्तान, उज़बेकिस्तान और ताज़िकिस्तान होते हुए अफ़ग़ानिस्तान में दाखिल हुए थे तो सोवियत राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव की नज़र अफ़ग़ानिस्तान की भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति पर थी और वे रूस से चीन तक के एकक्षत्र राज का सपना देख रहे थे।
पुतिन की नज़र
सोवियत संघ नहीं रहा, सोवियत मार्का साम्यवाद भी नहीं रहा, लेकिन रूस है, रूसी राष्ट्रवाद है। लियोनिद ब्रेझनेव नहीं रहे, लेकिन व्लादिमीर पुतिन हैं। पुतिन का राष्ट्रवाद भी है और सोवियत संघ के गौरव को पुनर्जीवित करने का सपना भी। ऐसे में मध्य एशिया की ज़रूरत और अफ़ग़ानिस्तान में पैर जमाने की रणनीति एकदम साफ है।
बेहतर रहेगा कि भारत के नीति निर्धारक जल्द ही समझ लें कि मुसलिम विरोध की अपनी विचारधारा से वे देश की विदेश नीति तय न करें। वे दिन हवा हुए जब विचारधारा के नाम पर रूस ने चेकोस्लोवाकिया में सेना भेजी थी या पूरे मुसलिम जगत ने इज़रायल का हुक्का पानी बंद कर दिया था या पूरी दुनिया ने रंगभेदी दक्षिण अफ़्रीका को क्रिकेट जैसे खेल में भी घुसने पर रोक लगा दी थी।
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