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आख़िर क्या है ट्रंप का जादू, इतने लोकप्रिय क्यों?

अमेरिका के चुनाव पर कमोबेश पूरी दुनिया ने निगाहें टिका रखी हैं और चुनाव ख़त्म होने के 24 घंटों के बाद भी सस्पेन्स बना हुआ है। अमेरिका समेत पूरे विश्व की धड़कनें थमी हुई हैं। ट्रम्प और बाइडेन दोनों ही अपने-अपने जीत के दावे कर रहे हैं।

डोनाल्ड ट्रम्प का जो अप्रत्याशित अभियान 2016 में हिलरी क्लिंटन पर विजय से शुरू हुआ वो अब एक अलग रूप में अमेरिका पर अपनी साख जमा रहा है। आने वाले समय में इस सोच और विचारधारा को ‘ट्रूम्पवाद’ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

अगर शोधकर्ताओं की मानें तो पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से यह चिंगारी सुलग रही थी। भारत, चीन और मेक्सिको जैसे देशों से लोगों का बड़ी संख्या में आना, ख़ास तौर पर ‘आईटी बूम’ के साथ एच-1-बी (H1B) वीजा का धड़ल्ले से प्रयोग ने ट्रूम्पवाद के बीज को सींचना शुरू किया। 

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अमेरिकी कम्पनियाँ जब अपने ख़र्च को कम करने के लिए अपने उद्योग का बड़ा हिस्सा चीन, बांग्लादेश और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में स्थापित करने लगी तो इससे उन्हें अमेरिका के मुक़ाबले बहुत ही कम ख़र्च में अपने उत्पाद बढ़ाने में मदद मिली, और अमेरिका का आम नागरिक सिर्फ़ एक रीटेल बाज़ार का उपभोक्ता बनकर रह गया। जो लाखों नौकरियाँ और रोज़गार के अवसर अमेरिका में हो सकते थे वो बाहर चले गए। 

आईटी बूम के साथ भारत जैसे देश में हर जगह जो इंजीनियरिंग कॉलेज खुले उसने आईटी विशेषज्ञों और प्रोग्रामरों की एक फौज खड़ी कर दी। उस पर से भारतीयों के अंग्रेजी प्रेम ने अनजाने में उन्हें एक और हथियार दे दिया—इसने अमेरिका में नौकरी मिलना आसान कर दिया। आपको बात दूँ कि भारत में कॉलेजों की फ़ीस (अमेरिका के मुक़ाबले) बहुत कम है। इसके विपरीत अमेरिका में पढ़ाई करना बहुत ख़र्चीला है और आर्थिक रूप से सब के बस की बात नहीं। फिर क्या था, कैलिफोर्निया में रोज जन्म लेती कम्पनियों को भारत और चीन जैसे देशों से काफ़ी कम वेतन पर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले सेवक मिलने लगे। रही सही कसर बीपीओ और कॉल सेंटरों ने पूरी कर दी। छोटे-मोटे काम जैसे सब्जी, नाई, प्लमबर, सफ़ाई-कर्मी इत्यादि मेक्सिको और लैटिन अमेरिकी लोग उड़ा ले गए। गार्ड और वजन उठाने वाले अधिकतर काम मज़बूत कद-काठी होने की वजह से अश्वेत लोगों को मिल गया।

इन सब में उपेक्षित होने लगा एक आम श्वेत ‘अमेरिकन’ जो ना तो उच्चतर शिक्षा ले पा रहा था कि उसे व्हाइट-कॉलर नौकरी मिले, ना ही उसका अहं उसे वो काम करने की इजाजत देता था जो स्पैनिश और अश्वेत लोग करने लगे। विडंबना यह हुई कि इनकी संख्या सबसे ज़्यादा थी लेकिन ये उपेक्षित महसूस करने लगे।

उसपर से ये अपनी इस चिढ़ को कहीं व्यक्त भी नहीं कर सकते थे अन्यथा उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी क़रार दे दिए जाने का डर था। भीतर ही भीतर, ख़ास तौर पर ग़ैर शहरी क्षेत्रों में इनके अंदर ‘बाहरी’ और अश्वेत लोगों के लिए अवसाद बढ़ने लगा। श्वेत लोगों का अमेरिकन ड्रीम अब टूटता दिख रहा था। वैसे भी एक महत्वपूर्ण तबक़ा अभी भी अश्वेत लोगों को पसंद नहीं करता है, और अब जब कई मामलों में अश्वेत लोग बाज़ी मारने लगे हैं तो व्हाइट-सुप्रीमसिस्ट (श्वेत लोगों को उच्च समझने वालों का नस्सलवादी समूह) कई लोगों में अश्वेत-विरोधी भावनाओं को भड़काने में सफल होने लगे। 

how donald trump give tough fight to joe biden in us election - Satya Hindi
डोनाल्ड ट्रम्प और उनके सहयोगियों ने इस बदलते विचार और दबी हुई कुंठा को भुनाना शुरू कर दिया और ऐसे समय में ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (अमेरिका को फिर से महान बनाएँ) के नारे ने इस उपेक्षित वर्ग को फिर से एक आशा की किरण दिखा दी। यह एक नारा इतना शक्तिशाली निकला कि देखते ही देखते ट्रम्प 2016 में राष्ट्रपति बन गए और कितने ही विवाद, कोरोना-महामारी से हुए 2.35 लाख से ज़्यादा मौत और चरमराती अर्थव्यवस्था के बावजूद डेमोक्रैटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन को बराबरी की टक्कर दे रहे हैं।

बाइडेन की आसान जीत क्यों नहीं?

अगर कोरोना, तालाबंदी (लॉकडाउन), ब्लैक लाइव्स मैटर, और अर्थव्यवस्था के अजेन्डा भी बाइडेन को आसान जीत नहीं दिलवा सके तो इसका मतलब तो यह हुआ कि डेमोक्रेटिक पार्टी अमेरिका की आधी जनता से न तो सही संवाद स्थापित कर सकी ना ही उनके मुद्दों पर खरे उतरने का विश्वास दिला सकी। शायद ट्रम्प की टीम इसलिए भी इतने आत्मविश्वास से भरी हुई थी। यहाँ तक कि ट्रम्प जब कोरोना वायरस की चपेट में आए और उससे उबर गए तो आम धारणा के विपरीत उनके अनुयायियों में इस बीमारी से आसानी से उबरने का विश्वास जगा। वैसे भी आँकड़ों के अनुसार अश्वेत लोग कोरोना से ज़्यादा बीमार हुए और इसके शिकार हुए।

यानी कोरोना ट्रंप समर्थकों के लिये कोई मुद्दा ही नहीं रहा। फिर, टैक्स बचाने के मामले में जब ट्रम्प ने कहा कि जो नियम (या नियम में कमी) थे उसी की वजह से उनका टैक्स इतना कम आया तो ये भी उनके अनुयायियों को उनकी समझदारी का प्रतीक ज़्यादा दिखा।

अगर अभी तक आए रुझानों पर नज़र डालें तो मुख्य तौर पर बाइडेन का वोट बड़े शहरों और पूरब तथा पश्चिम के तटवर्ती राज्यों के ऐसे इलाक़े जहाँ कई नस्ल और मुल्क के लोग रहते हैं, से आया है। टेक्सस और जॉर्जिया जैसे राज्य, जो कि ट्रम्प के नाम हुए हैं, वहाँ भी अगर बड़े शहरों (डैलस, ऑस्टिन, अटलांटा) को देखें तो वो डेमोक्रैटिक उम्मीदवारों के नाम हुए हैं। लेकिन लगभग पूरा मध्य भाग रिपब्लिकन पार्टी का रहा। ये वो प्रदेश हैं जहाँ मुख्य रूप से श्वेत समुदाय हैं और इन्हें पूरा विश्वास है कि ट्रूंपवाद ही इनकी समस्याओं का समाधान करेगा।

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अक्टूबर के महीने में मैं विस्कॉन्सिन और मिशिगन गया था और काफ़ी अंदर तक ग्रामीण इलाक़ों में कार से घूमा था। इन क्षेत्रों में अधिकतर लोग अपनी ज़मीन के चारों तरफ़ चारदीवारी नहीं खींचते और वो जिस प्रत्याशी का समर्थन करते हैं उसके नाम की तख्ती अपने बागान में लगाकर रखते हैं। इन ग्रामीण इलाक़ों में हमलोगों को विरले ही कोई घर मिलता था जहाँ बाइडेन/हैरिस के नाम की तख्ती दिखती थी। ऐसे में अगर ट्रंप यहाँ 1-2 प्रतिशत के अंतर से ही हारे तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं, अचरज यह है कि ट्रम्प वहाँ से हारे। एक बात और-इन दो राज्यों में हमें मास्क में भी विरले ही कोई दिखता था और अब एक महीने बाद देखिए वहाँ कोरोना के रोज़ाना 4000-6000 केस आने लगे हैं।
वीडियो में देखिए चर्चा, ट्रंप सुप्रीम कोर्ट क्यों जा रहे हैं?
पूरे विश्व में, ख़ास तौर पर बुद्धिजीवी और लिबरल लोगों को यक़ीन था कि इस बार बहुत बड़े अंतर से ट्रंप की विदाई होगी। लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है। ट्रंप मामूली अंतर से हारेंगे लेकिन ट्रम्प की सोच और ट्रूंपवाद आने वाले समय में अपनी पकड़ और मज़बूत करेगा। सोचने वाली बात है कि जिस अमेरिका का गठन कई देशों और सोच के नागरिकों ने बाक़ी दुनिया की सोच से अलग एक नवीन राष्ट्र की नींव रखी थी, वो नींव आज चरमराती दिख रही है। ये देश नस्ल और पूंजी के आधार पर बँट गया है और ध्रुवीकृत होकर ‘डिवाइडेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका’ ज़्यादा प्रतीत हो रहा है। लगभग आधी जनता ट्रूंपवाद को अपना चुकी है और अगले दस वर्षों में ये अलग-अलग रूप में पूरे विश्व पर हावी होने वाला है।
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डॉ. पीयूष कुमार | न्यूयॉर्क

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