डीके शिवकुमार
कांग्रेस - कनकपुरा
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हमने अपनी सुविधा के हिसाब से काल को दिन, महीनों और वर्षों में बाँट रखा है, लेकिन घटनाएं उनके दायरों में नहीं घटतीं या हम उन्हें वर्षों के अंदर नहीं बाँध सकते। बहुत सारे इतिहासकार मानते हैं कि बीसवीं सदी दरअसल, पहले विश्वयुद्ध के आगाज़ तथा सोवियत संघ की क्रांति से शुरू हुई थी और फिर समाजवादी देशों के पतन के साथ उसका अंत हुआ था। इसे उन्होंने छोटी सदी का नाम भी दिया था। इसी तरह कई इतिहासकार 21 सदी की शुरुआत भी 2001 के बजाय 1989 से मानते हैं।
दरअसल, अधिकांश घटनाओं के कुछ सिरे पीछे छूट गए सालों में होते हैं और कुछ आने वाले वर्षों में जाते हुए नज़र आते हैं। इसलिए उनका आकलन वर्षों के कुछ पीछे और आगे जाकर करना होता है।
मसलन, कोरोना महामारी हमारी स्मृति में 2020 की घटना के तौर पर दर्ज़ हो चुकी है, मगर चीन के वुहान में तो यह 2019 के नवंबर-दिसंबर में ही प्रकट हो चुकी थी और अब वह 2021 में भी मौजूद रहेगी यह तय है।
इसी तरह साल की एक और महत्वपूर्ण घटना को ले लीजिए। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनल्ड ट्रम्प की हार और जो बाइडेन की जीत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप साबित होने जा रही है। ट्रम्प ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नाम पर अपने देश को समेटना शुरू कर दिया था।
वे अंतरराष्ट्रीय समझौते से पीछे हट चुके थे और अमेरिका की हैसियत और प्रभाव को उन्होंने काफी कम कर दिया था। लेकिन बाइडेन अब अमेरिका को पुरानी भूमिका में वापस लाना चाहते हैं। ये एक तरह से अमेरिकी नीति का शीर्षासन होगा।
साल की शुरुआत में ट्रम्प की जीत लगभग तय लग रही थी। अमेरिका ट्रम्प के नस्लवाद, निरंकुश व्यवहार और झूठों की चपेट में था और अर्थव्यवस्था बेहतर दिख रही थी। बाइडेन कई वज़हों से उन्हें कड़ी टक्कर देने की स्थिति में नहीं दिख रहे थे, लेकिन कोरोना महामारी ने पाँसा पलट दिया।
कोरोना से निपटने के मामले में दिखाए रवैये ने ट्रम्प को पूरी तरह से बेनकाब कर दिया। रही सही कसर ‘ब्लैक लाइव्स मूवमेंट’ ने पूरी कर दी।
वर्ष 2020 की कई ऐसी घटनाएं हैं जो उसे परिभाषित-व्याख्यायित करने वाली हैं, लेकिन उनके ज़िक्र से पहले ज़रूरी है कि हम उस घटना का आकलन करें जिसने न केवल पूरी दुनिया में उथल-पुथल मचा दी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति और संबंधों को भी बदल डाला।
जी हाँ, कोरोना महामारी न केवल 2020 की बल्कि यह मानव इतिहास की भी एक बड़ी परिवर्तनकारी घटना मानी जाएगी। कोरोना की वज़ह से करीब 82 करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और करीब 18 लाख लोग मारे जा चुके हैं।
पिछले कुछ दशकों में जिन लोगों को ग़रीबी से उबारा गया था, वे तो फिर से ग़रीब हो गए लेकिन उनके साथ और भी लोग ग़रीबी के जाल में फँस गए हैं।
दूसरा, इस महामारी ने दिखाया कि ऐसे किसी संकट के वक़्त सामूहिक रूप से निपटने की कोई प्रणाली और समझदारी विश्व बिरादरी में नहीं है। ख़ास तौर पर सर्वाधिक शक्तिशाली देश अमेरिका का रवैया बहुत ही नकारात्मक रहा। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन से लड़ने और उन्हें नीचा दिखाने में ही लगा रहा।
यहाँ तक कि दूसरे देशों की स्वास्थ्य सामग्री को हड़पने की ओछी हरकतें भी उसने दिखाईँ। उससे नेतृत्व करने की अपेक्षा की जा रही थी, मगर वह पीछे हट गया, जिसकी वज़ह से विश्व-शक्तियों में वैसा समन्वय नहीं हो पाया जैसी कि ज़रूरत थी।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पैदा हुआ यह नेतृत्व का संकट एक अवसर भी था, जिसका चीन ने फ़ायदा उठाने की भरपूर कोशिश की। उसने डब्लूएचओ, यूरोपीय संघ और दूसरे देशों के साथ सहयोग का रवैया अपनाया और बहुत सारे देशों तक सहायता पहुँचाई। चीन में इस महामारी पर नियंत्रण पाने में देर नहीं लगाई और साथ ही तीन महीने के अंदर ही अपनी अर्थव्यवस्था को भी पटरी पर ले आया।
इससे आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका को पछाड़ने की दिशा में चीन और तेज़ी से बढ़ने लगा। नई रिपोर्ट के मुताबिक 2028 तक चीन अमेरिका से आगे निकल जाएगा।
एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 15 देशों के रीजनल कंप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप यानी आरसीईपी का गठन भी चीन की स्थिति को मज़बूत करने वाली घटना कही जा सकती है। आरसीईपी दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार वाला क्षेत्र बन गया है। ये यूरोपीय संघ और अमेरिका-मेक्सिको समझौते से भी बड़ा बाज़ार होगा।
आरसीईपी के तहत दुनिया की एक तिहाई आबादी आ जाती है। हालाँकि इसमें जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे चीन विरोधी देश भी शामिल हैं, मगर माना जा रहा है कि सबसे ज़्यादा लाभ चीन को ही होगा।
उधर चीन ने रूस के साथ संबंधों में सुधार और ईरान, पाकिस्तान, अफ्रीका आदि देशों में पैठ बढ़ाकर भी अपना अंतरराष्ट्रीय प्रभाव बढ़ा लिया है। लेकिन उसने एक बड़ी चूक भी की। भारतीय भूमि पर कब्ज़ा करके चीन ने उसे अमेरिकी पाले में और भी ज़्यादा ढकेल दिया। इससे चीन के ख़िलाफ़ घेरेबंदी का अमेरिका को मौक़ा मिल गया।
जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के गठबंधन वाला ‘क्वाड’ अचानक आक्रामक ढंग से सक्रिय हो गया और पूर्वी तथा दक्षिण एशिया का यह पूरा इलाका और भी अस्थिर हो गया। ट्रम्प द्वारा चलाए जा रहे ट्रेड वार को भी इससे गति मिल गई, क्योंकि चीनी उत्पादों के बहिष्कार या उन पर प्रतिबंध लगाने का सिलसिला चल पड़ा। बाइडेन के अमेरिका की बागडोर सँभालने के बाद चीन-अमेरिका की ये शत्रुता क्या रूप लेगी, यह देखना होगा।
वास्तव में बाइडेन न केवल चीन के साथ संबंधों को फिर से परिभाषित करेंगे या उसे ओबामा-काल में ले जाएंगे, बल्कि विश्व मंच पर अमेरिका की भूमिका को बदलने का संकेत भी वे दे चुके हैं।
ईरान के साथ परमाणु समझौते को बहाल करने से लेकर जलवायु समझौते और नाटो देशों के साथ संबंधों में वे बदलाव करेंगे ही। ये देखना भी दिलचस्प होगा कि वे ट्रम्प द्वारा इस्रायल और अरब देशों के बीच रिश्ते सुधारने की कोशिशों को किस तरह आगे बढ़ाते हैं, ख़ास तौर पर फ़लस्तीन के सवाल के मद्देनज़र।
ट्रम्पकालीन एक और विरासत से बाइडेन को निपटना होगा। ट्रम्प ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना को निकालने की जल्दबाज़ी में तालिबान के साथ समझौते को अंजाम दिया है।
हालाँकि इसमें रूस और ईरान सहित कई देशों की भूमिका रही है, मगर तालिबान के काबुल पर काबिज़ होने की आशंका के बढ़ने से कई ख़तरे भी खड़े हो सकते हैं। वैसे इस समझौते की कामयाबी को लेकर भी कई तरह की शंकाएं अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में देखी जा रही हैं।
साल के अंत में यूरोपीय संघ के साथ ब्रिटेन का समझौता यूरोप और ख़ास तौर पर ब्रिटेन के लिए राहत की बात है। इस समझौते के ज़रिए यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के निकलने का रास्ता साफ़ हो गया है।
समझौते ने ‘ब्रेक्जिट’ जनमत संग्रह में परिलक्षित हुई संप्रभुता की इच्छा को पूरा कर दिया है, ऐसा कहना है प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का, मगर इसके एवज़ में उनके देश को क्या आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ सकती है इसका आकलन अभी किया जा रहा है। ईयू के बाक़ी देश संयुक्त यूरोप के प्रति प्रतिबद्ध नज़र आ रहे हैं।
सन् 2020 मोटे तौर पर बताता है कि आने वाला वक़्त चीन और अमेरिका के आर्थिक एवं राजनीतिक टकराव का है। इन दोनों देशों के बीच चलने वाली होड़ की वजह से एक नई विश्व व्यवस्था पहले से ही आकार ले रही थी, मगर अब उसमे और तेज़ी आएगी।
यह व्यवस्था कई ध्रुवों वाली होगी और इसका नेतृत्व किसके हाथों में जाएगा, इसके पुख़्ता संकेत हमें 2021 में मिल सकते हैं। लेकिन यह तय है कि अमेरिका को चीन से आगे निकलने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। फिर रूस अपनी उपस्थिति को जताने के लिए बाजू फड़का रहा है, इसलिए मामला केवल चीन तक सीमित नहीं रहने वाला।
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