इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते देश में महानगर टेलीफ़ोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) की स्थापना हो चुकी थी क्या? जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे तब क्या दूरदर्शन डीडी नेशनल कहलाता था? क्या जनता पार्टी की सरकार जाने के फ़ौरन बाद कोकाकोला की भारत में वापसी हो गई थी?
ये सवाल ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की तैयारी कर रहे लोगों के अलावा सतर्क क़िस्म के सिनेमा दर्शकों के दिमाग़ में भी अक्षय कुमार की फ़िल्म बेलबाॅटम (हिंदी में शीर्षक बैल बॉटम लिखा दिखा) देखते समय उठ सकते हैं। इंदिरा गांधी के ज़माने में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी राॅ का एक सीक्रेट एजेंट अंशुल मल्होत्रा उर्फ़ बेलबाॅटम एक विमान अपहरण कांड में पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई को धूल चटाकर न सिर्फ़ सभी यात्रियों को सकुशल दुबई से भारत ले आता है बल्कि पाकिस्तानी विमान अपहर्ताओं और आतंकवादियों को भी सलाखों के पीछे पहुँचा देता है। फ़िल्म इसी कारनामे के बारे में है। बेलबाॅटम की भूमिका अक्षय कुमार ने निभाई है।
निर्माताओं ने फ़िल्म को सच्ची घटना से प्रेरित बताया है। फ़िल्म में दो प्रधानमंत्रियों का दौर दिखाया गया है- मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी। अक्षय की पत्नी राधिका (वानी कपूर) को एमटीएनएल की कर्मचारी बताया गया है। राॅ का प्रमुख (आदिल हुसैन) करोल बाग़ में रहने वाले चेस चैंपियन और यूपीएससी की तैयारी कर रहे अक्षय कुमार से पहली मुलाक़ात में कोका कोला पीते दिखाया गया है।
एमटीएनएल 1986 में शुरू हुई थी, इंदिरा गांधी की हत्या के दो साल बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में। मोरारजी की सरकार जाने के फ़ौरन बाद ही कोकाकोला फिर से बाज़ार में नहीं आ गया था।
इस तमाम नुक्ताचीनी का बुनियादी मक़सद यह बताना है कि बेल बाॅटम बहुत झोलझाल वाली औसत क़िस्म की एक्शन फ़िल्म है। अब अमेज़न प्राइम पर देखी जा सकती है। महीने भर पहले सिनेमाघरों में फ़िल्म की रिलीज़ को उम्मीद के मुताबिक़ व्यावसायिक सफलता नहीं मिली क्योंकि कोरोना संबंधी पाबंदियों की वजह से अभी कई सिनेमा हाॅल बंद हैं और दर्शक कम जा रहे हैं।
फ़िल्म की रिलीज़ के वक़्त इसकी बड़ी तारीफ़ की गई थी लेकिन आख़िरी के आधे घंटे को छोड़कर फ़िल्म में कुछ ख़ास नहीं है। अक्षय कुमार के बहुत तगड़े प्रशंसकों की बात अलग है, वे लक्ष्मी जैसी फ़िल्म पर भी ताली पीट सकते हैं।
लारा दत्ता सारी प्राॅस्थेटिक्स के बावजूद बहुत ख़राब इंदिरा गांधी लगी हैं। इंदिरा गांधी सुंदर महिला थीं। नवनी परिहार पर्दे पर उनसे बेहतर इंदिरा गांधी लग चुकी हैं।
वानी कपूर के किरदार को हीरो के साथ सिर्फ़ एक सुंदर महिला रखने के इरादे से ही पटकथा में जोड़ा गया होगा। उनके किरदार को 1980-82 का होते हुए भी आज की किसी महानगरीय माॅडल जैसा बिंदास दिखाया गया है। फ़िल्म के आख़िरी दृश्य में आदिल हुसैन और वानी की टेलीफ़ोन पर बातचीत से खुलासा होता है कि वह भी रॉ की एक सीक्रेट एजेंट हैं। खुर्राट बेलबॉटम आईएसआई की साज़िश तो सूंघ लेता है लेकिन अंत तक यह नहीं जान पाता कि उसकी फैशनेबल बीवी भी एक सीक्रेट एजेंट है। वानी के अभिनय की बात न ही की जाए। छोटी सी भूमिका में हुमा क़ुरैशी उनसे ज़्यादा सुंदर लगी हैं, हालाँकि उन्हें भी ज़ाया ही किया गया है।
वीकेंड पर समय बहुत फ़ालतू हो, करने को और कुछ भी नहीं हो तभी देखें।
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