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सिर्फ़ पचास करोड़ लोगों को ही मुफ़्त का अनाज नहीं चाहिए!

कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनता अपने प्रधानमंत्री के कहे के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होती जा रही है, उनके कहे का ठीक से पालन नहीं कर रही है और इनमें वे बाक़ी पचास करोड़ भी शामिल हैं जिन्हें मुफ़्त का अनाज नहीं चाहिए? प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल का अभी पहला ही साल ख़त्म हुआ है। चार साल अभी और बाक़ी हैं।
श्रवण गर्ग
एक सौ तीस करोड़ की देश की कुल आबादी में अगर अस्सी करोड़ लोगों को सरकार द्वारा दिए जाने वाले मुफ़्त के अनाज की ज़रूरत है वरना उन्हें या तो भूखे पेट रहना पड़ेगा या फिर आधे पेट सोना पड़ेगा तो क्या यह स्थिति अत्यंत भयावह नहीं है? क्या मुल्क के बाक़ी बचे कोई पचास करोड़ नागरिकों को देश की इस हक़ीक़त का पहले से पता था या फिर उन्हें भी पहली बार ही आधिकारिक रूप से जानकारी हुई है और वह भी प्रधानमंत्री के द्वारा। इसका खुलासा प्रधानमंत्री ने मंगलवार को अपने सोलह मिनट और नौ सौ साठ शब्दों के सम्बोधन में किया।
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कोरोना काल के अपने छठे सम्बोधन में नरेंद्र मोदी की राष्ट्र के नाम सबसे महत्वपूर्ण घोषणा यही मानी जा सकती है कि ‘प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना’ जो पूर्व में कोरोना संकट के पहले तीन महीनों के लिए ही प्रारम्भ की गयी थी उसे अब छठ पूजा के पर्व यानी नवम्बर अंत तक के लिए बढ़ाया जा रहा है। नवम्बर तक बिहार में चुनाव भी सम्पन्न होने हैं। इसी राज्य में लॉकडाउन के बाद कोई अठारह लाख प्रवासी मज़दूर बुरी हालत में अपने परिवारजनों के पास वापस भी लौटे हैं जो चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं। नवम्बर के बाद इन अस्सी करोड़ लोगों का क्या होनेवाला है अभी खुलासा होना बाक़ी है। पेट की भूख तो नवम्बर के बाद भी इसी तरह से जारी रहने वाली है।

देश में अगर अस्सी करोड़ लोगों के परिवार मुफ़्त के सरकारी अनाज (प्रति व्यक्ति पाँच किलो गेहूँ या चावल और एक किलो दाल प्रति माह) पर ही जीवन जीने को निर्भर हैं तो भारत में व्याप्त ग़रीबी और बेरोज़गारों की कुल संख्या का अनुमान भी लगाया जा सकता है। साथ ही यह भी कि आज़ादी के बाद के तिहत्तर वर्षों, जिनमें कि वर्तमान सरकार के पिछले छह वर्ष भी शामिल हैं, हमने कितनी तरक़्क़ी की है! इस नयी जानकारी के बाद विदेशों में बसने वाले लाखों-करोड़ों भारतीय हमारी उपलब्धियों पर अपना सिर कितना ऊँचा कर पाएँगे? 

प्रधानमंत्री ने गर्व के साथ बताया कि मुफ़्त अनाज सहायता प्राप्त करने वालों की संख्या अमेरिका की कुल आबादी से ढाई गुना, ब्रिटेन से बारह गुना और यूरोपियन यूनियन की जनसंख्या से दुगनी है।
प्रधानमंत्री की घोषणा का जवाब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने इस एलान से किया कि वह अगले साल जून तक मुफ़्त चावल-दाल बाटेंगी यानी कि विधानसभा चुनावों तक। उन्होंने यह भी दावा किया है कि उनका चावल दिल्ली से ज़्यादा साफ़ है। अन्य राज्य सरकारों की घोषणाएँ बाक़ी हैं।

कृषि विशेषज्ञ और आमतौर पर सरकार की कथित किसान-विरोधी नीतियों के कठोर आलोचक देविंदर शर्मा ने भी प्रधानमंत्री की घोषणा का यह कहते हुए स्वागत किया है कि ‘एक तरफ़ अनाज का भरपूर भंडार है और दूसरी तरफ़ करोड़ों लोग भूखे हैं अतः यह क़दम सराहनीय है।’

कोई भी इससे ज़्यादा कुछ कहने या पूछने की कोशिश नहीं करना चाहता। देश में जब दो तिहाई लोग अपना पेट भरने के लिए सरकार का मुँह ताक रहे हों और आधे या ख़ाली पेट रहकर ही कोरोना से लड़ने के लिए अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने में भी जुटे हों तो वे क्यों और कैसे जान पाएँगे कि लद्दाख़ कहाँ है और चीन के साथ वहाँ क्या झगड़ा चल रहा है। अतः उचित रहा होगा कि प्रधानमंत्री ने भी अपने संदेश में चीन के साथ चल रहे तनाव का कोई ज़िक्र ही नहीं किया। राहुल गाँधी बेवजह ही हाय-तौबा मचा रहे हैं कि प्रधानमंत्री इधर-उधर की बातें करके देश का ध्यान भटका रहे हैं।

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प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि लॉकडाउन के दौरान नागरिकों ने जिस सतर्कता का पालन किया था वह अब लापरवाही में परिवर्तित होता दिख रहा है जबकि उसकी इस समय और भी ज़्यादा ज़रूरत है। पूछा जा सकता है कि क्या पेट की भूख का थोड़ा बहुत सम्बंध इस बात से नहीं होता होगा कि लोग उसी अनुशासन की अब सविनय अवज्ञा कर रहे हैं जो उनपर बिना पर्याप्त सरकारी तैयारी किए और उन्हें भी करने का मौक़ा दिए बग़ैर अचानक से आरोपित कर दिया गया था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनता अपने प्रधानमंत्री के कहे के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होती जा रही है, उनके कहे का ठीक से पालन नहीं कर रही है और इनमें वे बाक़ी पचास करोड़ भी शामिल हैं जिन्हें मुफ़्त का अनाज नहीं चाहिए? प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल का अभी पहला ही साल ख़त्म हुआ है। चार साल अभी और बाक़ी हैं।
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श्रवण गर्ग

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