आगरा के अरुण कुमार वाल्मीकि को मैं पिछले कई बरसों से देखता आ रहा था। लोहामंडी के पल छिंगा मोदी नाले के किनारे बसी वाल्मीकि बस्ती उसकी कई-कई पीढ़ियों का वास रही है। चोरी या किसी अन्य छोटी-बड़ी अपराध की किसी वारदात में कभी उसका नाम नहीं आया। उसके रिश्ते के भाई वीरू और संजय वाल्मीकि के बच्चे हमारे 'बस्ती के रंगमंच' में कला और संस्कृति का नियमित प्रशिक्षण लेने वालों में शामिल हैं। वह प्रायः वीरू वाल्मीकि के साथ मेरे यहाँ आता-जाता रहता था।
सामान्य बातचीत में वह काफी सुलझा और समझदार लगता था। मैंने उसे कभी उटपटांग बातें करते नहीं देखा-सुना। वह कई सालों से पुलिस थाना जगदीशपुरा में सफाईकर्मी के रूप में काम करता था लिहाज़ा अन्य वाल्मीकि युवकों की तुलना में उसकी नियमित आय थी।
यही वजह है कि गाहे-बगाहे भाइयों, मित्रों और रिश्तेदारों के साथ उसका बर्ताव हमेशा मददगारी का रहता था। उनके बीच वह बड़ा लोकप्रिय था लिहाज़ा, वे सब उसके प्रशंसक थे।
पुलिस थाने में काम करते हुए वह पुलिस वालों का मुंहलगा भी था। उसका यही गुण उसे 'सत्ता की निकटस्थता' के उच्च, श्रेष्ठ और उत्कृष्ट होने के भाव से ओतप्रोत रखता था और उसका यही भाव उसकी दुखदायी 'हत्या' का सबब बना।
मुझे कभी नहीं महसूस हुआ कि वह पेशेवर चोर है या चोर हो सकता है। चोर भी कोई हज़ार-पांच सौ रुपये चुराने वाला नहीं, 25 लाख कैश पर हाथ साफ़ करने वाला और वह भी किसी बंद मकान से नहीं बल्कि पुलिस थाने के कड़ी सुरक्षा वाले तालाबंद मालखाने से। हो सकता है कि अरुण के बारे में मेरा आकलन ठीक नहीं हो।
कहाँ थे पुलिसकर्मी?
यह भी हो सकता है कि वह इस कदर शातिर चोर था कि मेरी निगाहें उसकी पेशेवरी को भांप पाने में सर्वथा असफल रही हों। लेकिन उन पुलिस वालों की निगाहों को क्या हुआ जो दिन और रात मालखाने के बंद ताले की पहरेदारी को तैनात किये जाते थे। उस मालखाने में जहाँ हर 'एंट्री' और 'एग्ज़िट' के वक्त नाम, काम और टाइम आदि दर्ज किये जाने का कठोर चलन है, और हर ग़ैर पुलिसवाले की जामातलाशी का सख़्त 'क़ानून', वहां अरुण कैसे आराम से घुस गया, कैसे वहां से 25 लाख रुपये चुराकर निकला और फुर्सत से अपने घर पहुँच गया?
इससे भी अहम सवाल यह है कि जब उसकी चोरी इतने 'क्रिस्टल क्लियर' तरीके से उजागर हो ही गयी थी और चोरी किए गए रुपयों में से 15 लाख बरामद भी कर लिए गए थे, तब क्यों अरुण को 24 घंटे की पुलिस हिरासत में मरना पड़ा?
बिलख-बिलख कर रोती अरुण की मां के इस बयान को कोई भला कैसे नकार सकेगा कि "थाने में पुलिस थी तो वो अकेला कैसे चोरी कर सकता है? वह पुलिसवालों के नाम बताने वाला था, इसलिए उसकी जान ले ली गयी।"
स्टोर्स-मालखाने असुरक्षित
थाने में रखे इतने बड़े कैश की चोरी आज़ादी के बाद के प्रदेश के पुलिस थानों के इतिहास की पहली वारदात है जो प्रकाश में आयी। यह न सिर्फ़ ये तथ्य उजागर करती है कि इलाक़े में सबको सुरक्षा देने का 'एलान' करने वाली पुलिस (के मुख्यालय-थानों) के सबसे महत्वपूर्ण स्टोर्स-मालखानों की सुरक्षा कितनी असुरक्षित है बल्कि इस बात का संदेह भी पैदा करती है कि इन थानों में न जाने कब से छोटी-मोटी चोरियों का सिलसिला गुपचुप रूप से चल रहा होगा।
पुलिस ने बीते रविवार की रात को अरुण के घर पर छापा मारा और घर से चोरी के 4 लाख रुपये बरामद करने की बात कही। अरुण की विधवा भाभी सुनीता ने इसका खंडन करते हुए कहा कि पुलिस उसकी अलमारी में रखे 4 लाख रुपये और ज़ेवर उठा कर ले गयी। उसका कहना है कि ये रुपये उसने अपनी बेटी शिवानी के नवंबर में होने वाले विवाह के लिए जोड़-बचाकर रखे थे।
अरुण तो हाथ नहीं लगा लेकिन पुलिस ने रविवार की रात से लेकर अगले सारे दिन उसके परिजनों- वयोवृद्ध मां, पत्नी, 3 भाइयों, भाभियों, साले-सलहज व अन्य रिश्तेदारों सहित एक दर्जन से अधिक लोगों को हिरासत में लेकर उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया।
मंगलवार की सुबह छिपता-छिपाता अरुण जब अपनी ससुराल पहुंचा तो उसके दूसरे साले ने (जिसका एक भाई 2 दिन से पुलिस की हिरासत में था) उसे दबोचकर पुलिस के हवाले कर दिया। पुलिस उसे पुलिस लाइन के अपने टॉर्चर हाउस में ले गयी। उसके पास से चोरी के 11 लाख रुपये बरामद होने का दावा किया गया। बुधवार की सुबह अरुण की मौत हो गयी।
पुलिस का कहना है कि वह पहले उसे उसके घर की तलाशी करवाने की नीयत से ले गयी। उसकी तबियत बिगड़ने की हालत में उसके परिजनों की मौजूदगी में उसे 'ज्योति नर्सिंग होम' ले जाया गया जहाँ इलाज के दौरान उसकी मृत्यु हो गयी।
पुलिस की कहानी पर सवाल
अरुण की मां कमला देवी ने पुलिस की कहानी को आपत्तिजनक बताते हुए मीडिया से कहा कि अरुण को पुलिस घर नहीं लायी थी। उन्हें केवल उसके मरने की खबर मिली। मां के बयान पर जब हंगामा मचा तो आगरा रेंज के एडीजी पुलिस राजीव कृष्ण ने बयान जारी करते हुए कहा कि अरुण को नर्सिंग होम ले जाया गया था, जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया।
पुलिस ने अरुण के भाइयों को डरा-धमका कर अपनी कहानी की सत्यता साबित करने की कोशिश की लेकिन मां और पत्नी खुलकर सामने आये तो कहानी के सभी तार बिखर गए।
पुलिसकर्मियों की मिलीभगत?
पुलिस-प्रशासन का कोई छोटा-बड़ा अधिकारी यह बताने को तैयार नहीं है कि आगरा में इतना बड़ा मेडिकल कॉलेज अस्पताल होने के बावजूद पुलिस उसे एक छोटे से नर्सिंग होम में लेकर क्यों पहुंची? सवाल यह भी बड़ा मौजूं है कि किसी प्रशासनिक अधिकारी के संज्ञान में अभी तक यह बात क्यों नहीं आई कि बिना पुलिसकर्मियों की मिलीभगत के मालखाने के भीतर एक ढेले की भी चोरी मुमकिन नहीं।
फिर क्या कारण है कि वारदात के 4 दिन गुज़र जाने के बावजूद एक भी पुलिस वाला गिरफ़्तार नहीं किया जा सका। कमला देवी ने आरोप लगाया है कि पुलिस सभी सबूतों को मिटाने में जुटी है।
हत्यारों को सजा की मांग
पुलिस हिरासत में हुई मौत और चोरी के इस मामले में हुई लापरवाही को लेकर कुल मिलाकर 9 पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जा चुका है। शासन ने अरुण की पत्नी को 10 लाख रुपये का मुआवज़ा और नगर निगम में सफ़ाई कर्मचारी की नौकरी देने की घोषणा की है। उसकी पत्नी मुआवज़ा नहीं, पति के हत्यारों को सजा दिलाए जाने की मांग कर रही है।
आगरा में हुई अरुण की मृत्यु प्रदेश की कोई अकेली और एकांगी घटना नहीं है। पिछले चार सालों में उप्र में पुलिस और न्यायिक हिरासत में जिस तरह से मौतों का सिलसिला सामने आया है, वह चौंकाने वाला है।
27 जुलाई, 2021 को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में लोकसभा को बताया कि विगत वर्षों में देश में पुलिस और न्यायिक हिरासत में हुई कुल मौतों की संख्या 1840 है जिसमें उत्तर प्रदेश टॉप पर है। यद्यपि 'नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो' द्वारा प्रसारित अंतिम आंकड़ों में 2019 में उत्तर प्रदेश में हिरासत में हुई मौतों का कोई उल्लेख नहीं है लेकिन गृहराज्य मंत्री ने अपने जवाब में इसे 403 बताया है।
मंत्री द्वारा पेश आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 2018-2019 में न्यायिक हिरासत में 452, पुलिस हिरासत में 12, 2019-20 में न्यायिक हिरासत में 400, पुलिस हिरासत में 3 तथा 2021 में क्रमशः 443 और 8 लोगों की मृत्यु हुई है। यह पिछले 4 वर्षों में देश का सबसे बड़ा आंकड़ा है।
केजीएमसी मेडिकल यूनिवर्सिटी के फ़ॉरेंसिक साइंस के एक वरिष्ठ प्राध्यापक ने (अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर) बताया कि जितने आंकड़े पेश किये जाते हैं, वे वास्तविक संख्या का एक तिहाई भी नहीं है।
बेलगाम हो गई पुलिस
सवाल यह है कि अरुण वाल्मीकि की पत्नी को मिलने वाला मुआवज़ा या चंद पुलिस वालों का निलंबन इस समूची समस्या का निदान है? जिस तरह से सत्ता में आते ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपराध खत्म करने के नाम पर पुलिस को असीमित अधिकारों से क़ाबिज़ कर दिया और जिस तरह प्रदेश में फर्ज़ी एनकाउंटरों और हिरासत में मौतों का सिलसिला दौड़ पड़ा, जिस तरह कोरोना की आड़ में प्रशासन और पुलिस बेलौस और बेलगाम बन गई, क्या वह सिलसिला कभी थमेगा?
सपा के राष्ट्रीय महामंत्री रामजीलाल सुमन का कहना है कि "पुलिस का मिजाज़ शीर्ष नेतृत्व में बैठे व्यक्ति या सत्ता समूह के मिजाज़ के हिसाब से चलता है। यूपी पुलिस की हालत अब जैसी बेकाबू हो चुकी है, उसके चलते यदि सत्ता बदलती है और हम अगर सरकार बनाते हैं तो इसे नियंत्रित करने में हमें भी बड़ी दिक़्क़तें आने वाली हैं।"
अपनी राय बतायें