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आंबेडकर के सुझाए कृषि सुधारों को अपनाएं सरकारें

भारतीय संविधान के जनक, समाज सुधारक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, दलितों के मसीहा, महान राजनीतिज्ञ भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के नाम से पहले जितने भी अलंकार सम्मिलित किये जाते हैं शायद ही दुनिया में किसी अन्य व्यक्ति के नाम के साथ जोड़े जाते हों। इसी बात से उनके कद का अंदाजा लगाया जा सकता है। 

उनके महापरिनिर्वाण दिवस पर सभी ने उन्हें याद कर श्रद्धा सुमन अर्पित किये। लेकिन इस मौके पर यह सवाल पूछना चाहिये कि क्या वाकई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हम सभी नागरिकों को बराबर दृष्टि से देख पाए हैं और संविधान को सभी जाति, वर्ग, समुदाय, लिंग के हिसाब से पूर्ण रूप में लागू कर पाए हैं? शायद नहीं। 

दिल्ली में किसान आंदोलन

ऐसा अभी तक नहीं हो पाया क्योंकि अगर ऐसा होता तो समय-समय पर सरकारों के विरुद्ध जन आंदोलन न होते और सरकारों के प्रति सड़कों पर जन समूहों में रोष न दिखाई देता। ऐसा ही एक आंदोलन बीते 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर डटे लाखों किसान कर रहे हैं। 

Ambedkar suggests agriculture reforms in india  - Satya Hindi
यह आंदोलन यूँ तो पिछले कई महीनों से चल रहा है लेकिन जब से मोदी सरकार द्वारा आनन-फ़ानन में नया कृषि कानून लागू किया तब से इसके विरोध में प्रतिक्रियाएं जारी हैं और अब तो किसान केंद्र की सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई के लिए पूरी तरह से कमर कस चुके हैं, जिसमें अब तक हुई पाँच दौर की बैठकें बेनतीजा रहीं और कोई समाधान नहीं निकल सका। अब 9 दिसंबर को किसानों और केंद्र सरकार के बीच छठे दौर की बातचीत होगी। 
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रैयतवाड़ी व्यवस्था के विरुद्ध रहे आंबेडकर

यूँ तो किसान आंदोलन ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही होते रहे हैं। ब्रिटिश हुकूमत के समय में रैयतवाड़ी व्यवस्था का चलन था जिसमें भूमिदार द्वारा सरकार को लगान देने की प्रक्रिया थी, लगान न देने पर भूमि से बेदख़ल कर दिया जाता था। यह व्यवस्था सबसे पहले 1792 में मद्रास प्रेसीडेंसी के बारामहल जिले में लागू की गई थी। 

पूंजीवादी विचारधारा तथा उपयोगितावादी विचारधारा मुख्य तौर पर इस व्यवस्था के लिए जिम्मेदार थी। इसमें सीधे तौर पर भू-राजस्व का निर्धारण भूमि की उत्पादकता पर न करके भूमि पर किया जाता था, जो किसानों के लिए हितकारी नहीं था क्योंकि ये दर इतनी ज्यादा थी कि किसान के पास कुछ भी अधिशेष नहीं बचता था। नतीजतन किसान महाजनों के चंगुल से नहीं निकल पाते थे और इस तरह महाजन ही एक कृत्रिम ज़मींदार के रुप में उभर कर सामने आने लगे थे।  

सुनिए, किसानों के मुद्दों पर बातचीत-

इसी सन्दर्भ में जब सरकार द्वारा रैयतवाड़ी भूमि को बड़े भू-स्वामियों को देने के लिये संशोधन बिल पेश किया गया तो बाबा साहेब आंबेडकर इसका विरोध करने वालों में सबसे पहले थे। इस पर उन्होंने कहा था कि भू-स्वामित्व को अगर इसी तरह बढ़ाया जाता रहा तो एक दिन ये देश को तबाह कर देगा। 

बाबा साहेब के कृषि संबंधी विचार स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ नामक लेख में वर्ष 1918 में प्रकाशित किए गए थे। इसे ही आधार बनाते हुए बम्बई विधानमंडल में 10 अक्टूबर 1928 को छोटे किसान राहत विधेयक बहस के दौरान पेश किया और उन्होंने तब यह तर्क दिया था कि खेत की उत्पादकता और अनुत्पादकता उसके आकार पर निर्भर नहीं होती बल्कि किसान के आवश्यक श्रम और पूंजी पर होती है। 

आंबेडकर ने कहा था कि समस्या का निवारण खेत का आकार बढ़ाकर नहीं बल्कि सघन खेती से हो सकेगा। तब उन्होंने सामान्य क्षेत्रों में सहकारी कृषि को अपनाने की सलाह दी थी।

महाराष्ट्र की खोती प्रथा 

ऐसे ही एक खोती प्रथा महाराष्ट्र में भी थी जिसमें बिचौलिए रखे गये थे, जिन्हें खोत भी कहा जाता था। अमूमन जिन छोटे किसानों के पास ज़मीनें होती भी थीं वह उनके मालिक नहीं थे। किसानों से टैक्स वसूली करने के लिए खोत को हर तरह की छूट होती थी जिससे किसानों पर ज़ुल्म बढ़ता जाता था और उन्हें कभी-कभी अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल कर दिया जाता था। इसके उन्मूलन के लिए भी बाबा साहेब आंबेडकर ने 1937 में बम्बई विधानसभा में बिल प्रस्तुत किया और उन्हीं के प्रयासों से खोती प्रथा का खात्मा हुआ और किसानों को उनका हक़ मिला। 

आंबेडकर भूमि, शिक्षा, बीमा उद्योग, बैंक आदि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे ताकि न कोई जमींदार रहे, न पट्टेदार और न ही कोई भूमिहीन। 1954 में भी बाबा साहेब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण के लिए संसद में आवाज उठाई थी पर कांग्रेस ने उनकी बात नहीं सुनी।

खेती, किसान और कृषि अर्थ व्यवस्था पर आंबेडकर के विचार मुख्य रूप से भूमि सुधार पर ही केंद्रित हैं और निम्न दस्तावेज़ों में दर्ज हैं- 

  1. छोटे किसान राहत विधेयक पर बहस
  2. स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़
  3. स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज
Ambedkar suggests agriculture reforms in india  - Satya Hindi

बाबा साहेब का मानना था- 

  • कृषि संबंधित उद्योग सरकार के अधीन होने चाहिए।
  • मूल और आवश्यक उद्योग सरकार के नियंत्रण में होने चाहिए।
  • बीमा व्यवसाय पर सरकार का एकाधिकार होना चाहिए।
  • सरकार द्वारा अधिग्रहण की गई भूमि को मानक आकार में भाग कर खेती के लिए ग्रामवासियों को पट्टे के रूप में बाँटना चाहिये। पट्टाधारी गाँव, सरकार को खेत के किराए का भुगतान करना चाहिये और पैदावार को परिवार में निर्धारित तरीक़े से बाँटना चाहिये। 
  • कृषि भूमि को जाति-धर्म के आधार पर बिना भेदभाव के इस प्रकार बाँटा जाए कि न कोई ज़मीदार हो न पट्टेदार, न भूमिहीन किसान हो।  इस तरह की सामूहिक खेती के लिए वित्त, सिंचाई-जल, जोत-पशु, खेती के औज़ार, खाद-बीज आदि का प्रबंध करना सरकार की ज़िम्मेदारी हो। 
  • सरकार मूल और आवश्यक उद्योगों, बीमा व्यवसाय तथा कृषि भूमि के डिबेंचर के रूप में उचित मुआवज़ा दे और अधिग्रहण करे। 

पूंजीवाद को अहमियत

किसानों से जुड़ी जितनी भी समस्याओं से आज हम जूझ रहे हैं उन सभी का समाधान डॉ. आंबेडकर सौ साल पहले ही अपनी किताब स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ के ज़रिए हमें दे चुके हैं लेकिन कमोबेश इस किताब पर लोग ज्यादा ध्यान ही नहीं देते। क्योंकि देश का शासक देश को टुकड़ों में बंटा हुआ ही देखना चाहता है और इसीलिए पूंजीवाद के ज़रिए हर समस्या का समाधान अपने ही तौर पर खोजना चाहता है। 

देश के अन्नदाता की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है और इसके समाधान के लिए किसान को ही केंद्र में रखे बिना सरकार नए कृषि क़ानून यह कहते हुए लागू कर देती है कि यह उसके हित में है।

अन्नदाता की हालत बदहाल 

सच्चाई ये है कि आज हमारे अन्नदाता बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं और बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं। ऐसे में इन विवादित कृषि क़ानूनों का आना एक अलग बहस पैदा कर चुका है और हो भी क्यों न, मौजूदा सरकार पूंजीपतियों को ध्यान में रखते हुए सभी फैसले ले रही है और लगातार संस्थाओं का निजीकरण जारी है, न कोई बहस, न कोई चर्चा। 

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क़र्ज़ माफ़ी कारगर नहीं 

आंबेडकर ने अपनी किताब में यह सुझाव भी पेश किया था कि यदि सरकार अपनी योजनाओं में उनके द्वारा सुझाए विकल्पों को शामिल कर ले, तो किसानों की दशा में काफी सुधार आ सकता है। सरकार गाहे-बगाहे किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की रट लगाती रहती है मगर बाबा साहेब के मुताबिक़ यह बेहद छोटा सा घटक है, दूसरे पहलू कहीं ज्यादा ज़रूरी हैं। 

आंबेडकर कहते थे अगर हम वाकई किसानों के मुद्दों के प्रति गंभीर हों, तो स्मॉल होल्डिंग यानी छोटे रकबे को भी मुनाफे में तब्दील किया जा सकता है। उनके मुताबिक सिर्फ़ कर्ज ही एक उपाय नहीं था, बल्कि कृषि और किसानी को आधुनिक बनाने और किसानों को इसके लिए प्रशिक्षित करना भी ज़रूरी उपायों में शामिल हैं। 

आंबेडकर ने समय के साथ-साथ होने वाले तमाम बदलावों को किसानों से साझा करने की वकालत की थी लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा ध्यान उनके द्वारा सुझाए उपायों पर अमल करने में जाता ही नहीं।

किसान की क्षमता बढ़ाना ज़रूरी

आंबेडकर का मानना था कि किसान की क्षमता बढ़ाना ही हमारा अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। वह समझते थे कि किसान कभी भी पूँजीपति नहीं हो सकता। वह हर फसल के बाद दूसरी फसल उपजाने का इंतज़ार करता है और फिर तीसरी, यह सिलसिला वह जारी रखता है क्योंकि उसके पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती, इसलिए एक फसल को बेचकर दूसरी फसल को उपजाने की तैयारी करता है। 

मान लें कि एक साल उसको बढ़िया लाभ मिला तो कभी सूखा पड़ने की स्थिति में किसान की दशा फिर से वही हो जाएगी। इसलिए उन्होंने सुझाया कि सरकार अपनी उचित भूमिका निभाते हुए किसानों के लिए ऐसी योजना बनाए कि वह उचित दाम पर अपनी फसल बेच सकें। 

साथ ही बाबा साहेब ने किसानों को बिचौलिए से बचाने की बात भी कही थी मगर देश का दुर्भाग्य यह है कि सौ साल पहले भविष्य का खाका खींच दिए जाने के बाद भी हम इस दिशा में सक्रिय नहीं हो सके हैं और किसानों, दलितों, पिछड़ों का शोषण आज भी लगातार जारी है।

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सविता आनंद

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