पाँच राज्यों में से छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम की तसवीर तो साफ़ है। तेलंगाना और मिज़ोरम में कांग्रेस बुरी तरह हारी है तो छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की हार भी भारतीय जनता पार्टी के लिए चौंकाने वाली है। राजस्थान में कांग्रेस को जो बढ़त मिली है, उससे जोड़-तोड़ कर सरकार तो बन सकती है लेकिन वह उनकी उम्मीदों से कहीं कम है। इसीलिए शायद सचिन पायलट ने इसको “नैतिक जीत” करार दिया। लेकिन मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने यह सिद्ध कर दिया है कि भले ही केन्द्रीय नेतृत्व कमज़ोर पड़ा हो, उनकी लोकप्रियता अभी बरकरार है।
हार के दोष से केन्द्रीय नेताओं को बचाने के लिए केन्द्रीय गृह मंत्री ने एक बयान में कहा कि ये चुनाव राज्य सरकारों के कार्यों पर लड़े गए थे और नतीजों को केंद्र के ख़िलाफ़ नहीं कहा जा सकता है।
साम्प्रदायिकता से चुनाव जीतना मुश्किल
2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए इन परिणामों से कांग्रेस और बीजेपी दोनों को कुछ सबक लेने की ज़रूरत है। बीजेपी को समझना होगा कि हिंदुत्व और खोखले वादों से चुनाव जीतना मुश्किल होगा। योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने तीन राज्यों में 75 रैलियाँ कीं, भाजपा को तेलंगाना में 5 के बदले 2 सीटें न मिलतीं और न ही छत्तीसगढ़ पार्टी के हाथों से निकलता। मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी की स्थिति यदि ख़राब नहीं है तो उसका श्रेय शिवराज सिंह चौहान और वसुन्धरा राजे सिंधिया को जाना चाहिए न कि आदित्यनाथ या अमित शाह को। भाजपा को यह मानना होगा कि शिवराज चौहान ने किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं की और यही वजह है कि पार्टी का प्रदर्शन वहाँ इतना अच्छा रहा।
भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आदित्यनाथ से मोहभंग न हुआ हो, लेकिन बीजेपी के लिए अब साम्प्रदायिकता के सहारे चुनाव जीतना मुश्किल होगा। हालाँकि, बीजेपी के कुछ विश्लेषकों का कहना है कि अगर आदित्यनाथ ने इतनी रैलियाँ न संबोधित की होतीं तो हो सकता है मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी की सीटें कम हो सकती थीं।
कांग्रेस क्या करे
दूसरी तरफ कांग्रेस को यह सोचना होगा कि यदि वह महागठबंधन को लेकर गंभीर है तो उसके लिए क्षेत्रीय छत्रपों को साथ लेकर चलने में ही भलाई है। मध्य प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी 8 सीट लेकर किंगमेकर की भूमिका में आ गई है। यह बसपा का मध्य प्रदेश में अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। राजस्थान में भी कांग्रेस को बसपा की ज़रूरत पड़ सकती है।
समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भले ही उतना उत्साहवर्धक न हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में परिस्थितियाँ भिन्न होंगी।
सीटों के बँटवारे को लेकर जिस तरह कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, उसका कुछ फ़ायदा तो बीजेपी को मिला है। मायावती कह सकती हैं कि जिस तरह दलितों ने उनकी पार्टी/गठबंधन को तीन राज्यों में वोट दिया है, उसके बल पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस उनको अनदेखा नहीं कर सकती है।
बीजेपी क्या करे?
चुनाव परिणामों में बीजेपी के लिए एक बड़ा सबक यह है कि किसानों के हितों के विरुद्ध जाना नुक़सानदेह होगा। जिस तरह पूरे देश में किसानों ने केंद्र सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठाई, उसकी गूँज छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सुनाई दी, बावजूद इसके कि मध्य प्रदेश को दूसरी हरित क्रांति का श्रेय दिया जाता है।
इन परिणामों से एक बात साफ़ है - बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व को ‘सबका साथ, सबका’ विकास को अमली जामा पहनाना होगा और कांग्रेसमुक्त भारत बनाने का ख़्वाब देखना बंद करना होगा। यह कहना तो मुश्किल है कि 2019 में मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती आने वाली है। फिर भी पार्टी के शीर्ष नेताओं को विकास और धर्म की राजनीति में से एक को चुनना होगा।
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