बसवराज बोम्मई
भाजपा - शिगगांव
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पाकिस्तान के साथ टी-20 वर्ल्ड कप के पहले मैच में उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन न कर पाने पर मोहम्मद शमी के ख़िलाफ़ धार्मिक वैमनस्य से भरे जो हमले शुरू हो गए, उनका माकूल जवाब भारतीय क्रिकेटर दे रहे हैं। वीरेंद्र सहवाग, हरभजन सिंह से लेकर विराट कोहली तक ने सोशल मीडिया पर सक्रिय ऐसे तत्वों की सख़्त आलोचना की है, इन्हें घटिया आदमी बताया है। यह सोच कर तसल्ली मिलती है कि धार्मिक नफ़रत की बहुत आक्रामक राजनीति के बावजूद बहुत सारे लोगों में भारतीयता का विवेक अभी बचा हुआ है।
लेकिन काश कि जो काम भारतीय क्रिकेटर कर रहे हैं, वह इस देश की सरकार भी करती। जो विराट कोहली ने कहा, वह इस देश के प्रधानमंत्री भी कहते।
लेकिन जब एक राष्ट्रीय खिलाड़ी पर कुछ सांप्रदायिक तत्व हमला कर रहे हैं, जब वह मानसिक पीड़ा से गुज़र रहा है, तब क्या प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे भी शमी की पीठ थपथपाएं और उन लोगों को डपटें जो शमी में पाकिस्तान समर्थक मुसलमान की अपनी धारणा का अक़्स देखने में लगे हुए हैं?
लेकिन ये कौन लोग हैं? इनकी मानसिकता ऐसी क्यों है? इसका एक स्थूल अध्ययन भी इस बात की पोल खोल देगा कि दरअसल ये वही लोग हैं जो मोदी को देवता मानते हैं, राम मंदिर को राष्ट्रीय लक्ष्य, हिंदुत्व को भारतीयता, सवर्णों में जन्म लेने को योग्यता, आरक्षण को अभिशाप, कश्मीरियों को आतंकवादी, आंदोलनकारियों को नक्सली और बाज़ार विरोधियों को देशद्रोही।
ये वे लोग हैं जिन्हें राजनीतिक तौर पर बीजेपी और संघ परिवार ने गढ़ा है, जिन्हें बचपन से नफ़रत की घुट्टी पिलाई है, जिन्हें यह भरोसा दिलाया है कि उनका देश तो विश्वविजेता है, लेकिन कुछ लोगों और समुदायों की वजह से पीछे छूट गया है।
सोशल मीडिया पर इनकी आक्रामक उपस्थिति दरअसल किसी भी तर्क या विवेक के विरुद्ध होती है। वे एक उन्माद पैदा करते हैं, क्योंकि उनको मालूम है कि इस उन्माद से ही उनकी पसंदीदा राजनीति चलती है। दिलचस्प यह है कि मीडिया में अब इन लोगों के बचाव में सरकार समर्थक वरिष्ठ पत्रकारों के लेख आने शुरू हो गए हैं। देश में सबसे ज़्यादा बिकने वाले एक हिंदी अख़बार में एक स्टार पत्रकार की टिप्पणी छपी है जिसके मुताबिक शमी के ख़िलाफ़ जो ट्रोलिंग हुई, वह पाकिस्तान की साज़िश थी और उसमें पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी भी मिले हुए थे। लेख में बहुत मासूमियत से बस यह दर्ज किया गया है कि भारत में भी कुछ लोग अनजाने में या जान-बूझ कर उनके बहकावे में आ गए।
यह दरअसल एक तरह से ऐसे ट्रोल्स को हौसला देना है, उनकी हिम्मत बढ़ाना है- उनको यह बताना है कि वे जो चाहें, लिखते और बोलते रहें, उनके बचाव में सरकार खड़ी है, उनके बचाव में सरकारी पत्रकार खड़े हैं।
क्रिकेट पर लौटें। जिस मैच में मोहम्मद शमी पर ये हमला हुआ, उसी मैच में नतीजे के बाद विराट कोहली रिज़वान ख़ान और बाबर आज़म से बिल्कुल आत्मीय दोस्तों की तरह गले मिलते, उनकी पीठ थपथपाते नज़र आए। शुक्र है कि कोहली मुसलमान नहीं हैं। वरना अब तक उनके ख़िलाफ़ एक अलग तरह की मॉब लिंचिंग शुरू हो जाती। यह कल्पना दरअसल एक और डरावने नतीजे तक पहुंचाती है।
इस देश में अल्पसंख्यक होना कुछ लोगों द्वारा अपराध बना दिया जा रहा है। जो बात बहुसंख्यक आबादी खुल कर बोल सकती है, जो विचार वह धड़ल्ले से प्रकट कर सकती है, वह कहने-बोलने की इजाज़त अल्पसंख्यकों को नहीं है। उन्हें देशद्रोही करार दिया जा सकता है।
चाहें तो याद कर सकते हैं कि कुछ साल पहले आमिर ख़ान ने एक सम्मान समारोह में अब दिवंगत नेता अरुण जेटली की उपस्थिति में बहुत सामान्य ढंग से कहा कि उनकी पत्नी को कभी-कभी डर लगता है। यह बात किसी हिंदू ने कही होती तो इस पर कोई ध्यान नहीं देता। लेकिन यह चूंकि आमिर ख़ान के मुंह से निकली थी, इसलिए इस पर भी ट्रोलिंग शुरू हो गई।
हैरानी की बात यह थी कि अरुण जेटली ने यह बताना ज़रूरी नहीं समझा कि आमिर ख़ान का मंतव्य क्या था, उन्होंने बस यह कहा कि किसी को सार्वजनिक स्थलों पर बोलने से पहले सोचना चाहिए कि उसकी बात का क्या मतलब निकाला जा सकता है।
तो असली खेल यह है- बात का मतलब निकालना। और मतलब इस बात से तय होता है कि आपकी धार्मिक और जातिगत पहचान क्या है। अगर गोरखपुर के अस्पताल का डॉक्टर कफ़ील ख़ान कुछ कहता है तो उसे जेल हो सकती है, लेकिन वही बात कोई दूसरा कहता है तो उस पर ताली बजाई जा सकती है।
हम पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान की बहुत आलोचना करते हैं- वे बेशक आलोचना लायक भी हैं। लेकिन हमारे अपने मुल्क में क्या हो रहा है? क्या हम हिंदू पाकिस्तान बनने पर आमादा हैं?
अब खिलाड़ी से नेता बन चुके इमरान भारत विरोधी भाषा ख़ूब बोलते हैं, लेकिन कप्तान रहते हुए वे क्रिकेट और खेल की गरिमा दूसरों से ज़्यादा समझते थे और राष्ट्रों के बीच बेईमानी का खेल आने देने से बचते थे। साल 1989 में पाकिस्तान के दौरे पर गई भारतीय टीम लाहौर में वनडे खेल रही थी। पाकिस्तान पहले बल्लेबाज़ी करके 150 रन बना सका था। लेकिन रनों का पीछा करने उतरी भारतीय टीम की बल्लेबाज़ी भी लड़खड़ा गई थी। रमन लांबा, सिद्धू, संजय मंजरेकर सस्ते में पैवेलियन लौट चुके थे। अकेले श्रीकांत क्रीज़ पर थे और उनका साथ देने के लिए अजहरुद्दीन, मनोज प्रभाकर और रवि शास्त्री जैसे बल्लेबाज़ आने वाले थे।
लेकिन 31 रन पर खेल रहे श्रीकांत को अंपायर ने गलत एलबीडब्ल्यू दे दिया। उस समय डीआरएस का चलन नहीं था। श्रीकांत पैवेलियन लौटने को मजबूर थे। लेकिन तभी इमरान ख़ान ने उन्हें वापस बुला लिया। इमरान को मालूम था कि श्रीकांत आउट नहीं हैं। यह एक बहुत जोखिम भरा कदम था। यह अलग बात है कि अगले ही ओवर में बिना एक रन जोड़े श्रीकांत कैच आउट हो गए। लेकिन इमरान का यह फ़ैसला क्रिकेट की गरिमा को बहाल करने वाला फ़ैसला था, वरना भारत-पाक मुक़ाबले का उन्माद उन दिनों भी कम नहीं था।
दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्र-राज्य मानसिक तौर पर जैसे सिकुड़ रहा है। एक तरह की संकीर्णता हमारे ऊपर हावी होती जा रही है और इसका असर हर तरफ़ दिख रहा है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है।
बरसों पहले जब अज़हरुद्दीन ने लगातार तीन टेस्टों में तीन शतक बनाकर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपनी धमाकेदार एंट्री सुनिश्चित की थी, तब भी यह पूछने वाले थे कि अज़हर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ रन बनाएगा या नहीं। इत्तेफ़ाक से इसके तत्काल बाद बेंसन ऐंड हेजेज सीरीज़ में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ही पहले मैच में अज़हरुद्दीन और गावसकर ने भारत को जीत की दहलीज़ तक पहुंचाया।
बांग्ला के प्रसिद्ध खेल पत्रकार मति नंदी का एक उपन्यास है- स्ट्राइकर। इस उपन्यास में अहमद नाम के एक खिलाड़ी का ज़िक्र है जिसके क्लब युग यात्री की अंदरूनी राजनीति में कुछ खिलाड़ी उस पर मोहम्मडन स्पोर्टिंग से मैच के पहले फिक्सिंग का आरोप लगाते हैं। टीम का मैनेजर सलाह देता है कि फिलहाल इस टीम से अहमद को बाहर रखा जाए, क्योंकि वह मानसिक दबाव में होगा। लेकिन बाक़ी टीम उसका विरोध करती है। अहमद खेलता है और शानदार खेलता है।
शमी के साथ भी टीम आज उनकी टीम उसी तरह खड़ी है। शमी को कुछ साबित करने की ज़रूरत नहीं है। साबित करने की ज़रूरत इस देश के नेताओं, इस देश की सरकार, इस देश के प्रधानमंत्री को है- कि वे धार्मिक पहचान पर एक शख़्स की राष्ट्रीयता पर हो रहे हमले को चुपचाप देखते रहते हैं या इसका विरोध करते हैं।
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