ऐसा लगता है कि अब देश को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि बाबरी मसजिद कभी गिरी ही नहीं। एक झूठ जो 6 दिसंबर 1992 से बोला जा रहा था, उस पर अब अदालत की भी मुहर लग गयी। अदालत का तर्क है कि उसके सामने बाबरी ध्वंस को लेकर जो साक्ष्य पेश किये गये वो अपर्याप्त हैं, ये साबित करने के लिये कि साज़िश करके बाबरी मसजिद को ध्वस्त नहीं किया गया था। सीबीआई सो रही थी या यों कहें कि सीबीआई जिसको सुप्रीम कोर्ट 2014 के पहले ही ‘पिंजरे का तोता’ बोल चुका है, और जो अब एक ज़रख़रीद ग़ुलाम बन चुकी है, वही करती है जो उसके आका कहते हैं, और उसने अपने आका का हुक्म बजा सबूत पेश ही नहीं किया। अदालत क्या करती। लेकिन इतिहास को कैसे झुठलाया जायेगा? इतिहास तो निष्ठुर है। वो संघ परिवार को कैसे माफ़ करेगा? वो तो बार-बार उसके माथे पर यही लिखेगा कि षड्यंत्र करके बाबरी मसजिद को तोड़ा गया और संविधान की धज्जियाँ उड़ाई गयीं।
बाबरी विध्वंस की साज़िश के सबूत बिखरे पड़े हैं। उनको सिर्फ़ चुनने की ज़रूरत है। 6 दिसंबर 1992 को हर वो पत्रकार जो मौक़े पर मौजूद था, वो जानता है कि बाबरी मसजिद को किन शक्तियों ने कैसे तोड़ा। अदालत के फ़ैसले के बाद भी मेरा मानना है कि संघ परिवार के शीर्ष पर बाबरी को ध्वस्त करने की साज़िश रची गयी। संघ परिवार को यह चिंता थी कि अगर एक बार फिर अयोध्या आकर कारसेवक बिना कारसेवा किये वापस चले गये तो फिर पूरा राममंदिर का आंदोलन फुस्स हो जायेगा, और अगर आगे कारसेवकों को अयोध्या आने को कहा जायेगा तो फिर वो नहीं आयेंगे। मशहूर पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय अपनी किताब ‘RSS: THE ICONS OF INDIAN RIGHT’ में लिखते हैं कि इस चिंता ने संघ को बाबरी ध्वंस की साज़िश रचने को मजबूर कर दिया था। इस साज़िश की पूरी रूपरेखा उस वक़्त के संघ के शीर्ष नेताओं में शामिल मोरोपत पिंगले ने बनायी थी। आरएसएस के प्रमुख बाला साहेब देवरस को इस बात की पूरी जानकारी थी।
नीलांजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, ‘पिगंले ने आरएसएस और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं में से निजी तौर पर पहले पचास लोगों को चुना था। ये वही पचास लोग थे जिन्होंने सबसे पहले 6 दिसंबर को बाबरी मसजिद के विवादास्पद क्षेत्र में प्रवेश किया और उनकी देखा-देखी भीड़ मसजिद पर कूद पड़ी।’ उनके मुताबिक़ पिंगले उस दिन बाबरी मसजिद के क़रीब एक आश्रम में मौजूद थे। हालाँकि वो एक पल के लिये भी बाहर नहीं निकले थे पर उनके कार्यकर्ता उन्हें पल-पल की ख़बर दे रहे थे। पिंगले पूरे ऑपरेशन के कमांडर इन चीफ़ थे। इन कार्यकर्ताओं को यह स्पष्ट आदेश था कि इस बात की जानकारी किसी को नहीं होनी चाहिये और ढाँचा ढहाने के बाद वो जैसे ‘अंधेरे में आये थे वैसे ही अंधेरे में ग़ायब’ हो जायेंगे और हमेशा गुमनामी में रहेंगे। यह त्याग उन लोगों को राममंदिर आंदोलन और राममंदिर निर्माण के लिये करना होगा। आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि ये कौन लोग थे और कहाँ से आये थे, ऐसा नीलांजन की किताब दावा करती है।
नीलांजन इस बात पर पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि पूरी योजना बहुत गोपनीय स्तर पर बनायी गयी थी और जिसको जितनी जानकारी मिलनी चाहिये थी उतनी ही जानकारी दी गयी थी।
नीलांजन की किताब के अनुसार, इस योजना में सबकी भूमिका स्पष्ट थी। सबको अपना अपना रोल अदा करना था। नीलांजन की इस बात की तस्दीक़ बाबरी ध्वंस की जाँच के लिये बनायी गयी लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट करती है। लिब्रहान आयोग लिखता है, ‘बाबरी ध्वंस स्वत:स्फूर्त नहीं था। वो सोची-समझी साज़िश थी।’ आयोग का मानना है कि ख़ुद उमा भारती ने आयोग के सामने पेशी में इस बात को क़बूला था। आयोग यह भी कहता है, ‘एक पल के लिये भी यह नहीं माना जा सकता है कि संघ परिवार के इस षड्यंत्र की जानकारी वाजपेयी, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को नहीं थी।’ लेकिन ये सभी बड़े नेता अदालत और मीडिया के सामने साज़िश की बात से मुकरते रहे।
कोबरापोस्ट स्टिंग ऑपरेशन
इस षड्यंत्र का सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन से होता है। कोबरापोस्ट की एक टीम ने महीनों लग कर बीजेपी, विश्व हिंदू परिषद और रामजन्म भूमि आंदोलन के बड़े नेताओं से बातचीत को गोपनीय तरीक़े से अपने कैमरे में क़ैद कर लिया था। कुल 23 लोगों के कैमरे पर बयान दर्ज हैं। इन लोगों ने कैमरे पर माना था कि कैसे साज़िश रची गयी और कैसे उसको अंजाम दिया गया। कैमरे पर विनय कटियार, उमा भारती और विश्व हिंदू परिषद के चंपत राय भी क़ैद हैं।
कोबरापोस्ट के मुताबिक़ दिसम्बर 1992 से तक़रीबन आठ-नौ महीने पहले पूरी योजना बना ली गयी थी। इस योजना के तहत सबसे पहले देशभर से आरएसएस के स्वयंसेवकों में 38 निहायत विश्वस्त और कर्मठ युवाओं को चुना गया।
कोबरापोस्ट के मुताबिक़, जून 1992 को गुजरात के ‘सरखेज’ इलाक़े में एक महीने तक कड़ी मिलिट्री ट्रेनिंग दी गयी। यह ट्रेनिंग दो तरह की थी। मिलिट्री ट्रेनिंग सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने दी। इस ट्रेनिंग में भवन तोड़ने के लिये प्रयोग में आने वाले हथियार, उपकरण और रणनीति से अभ्यस्त कराया गया। दूसरी ट्रेनिंग वैचारिक थी। यह ट्रेनिंग आचार्य धर्मेंद्र, प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल जैसे बड़े नेताओं ने दी थी। इस ट्रेनिंग का तात्पर्य था इन लोगों का ब्रेनवाश कर किसी बड़े ‘पुण्य’ कार्य के लिये मानसिक तौर पर ट्रेन करना और किसी भी तरह की क़ीमत चुकाने के लिये तैयार करना। यह बिल्कुल उसी तरह की तैयारी थी जैसे कि आतंकवादी संगठन आतंकी दस्ते को तैयार करते हैं।
यह दस्ता दरअसल लीडरशिप दस्ता था। जिसको आगे चलकर एक बड़ी सेना बनानी थी जिसका नाम ‘लक्ष्मण सेना’ रखा गया था। इन 38 लोगों की ट्रेनिंग और मानसिक मज़बूती के परीक्षण के लिये अयोध्या के ‘नीला टीला’ इलाक़े में मॉक ड्रिल करायी गयी। और जब पूरी तरह से यक़ीन हो गया तो अयोध्या के राम कथा कुंज के बेसमेंट में इनमें से सात लोगों को एक गुप्त मीटिंग के लिये बुलाया गया। इस मीटिंग में विश्व हिंदू परिषद और संघ के कई लोग शामिल हुये। इस मीटिंग में पहली बार ट्रेनिंग का मक़सद और लक्ष्य बताया गया। और इनसे कहा गया कि वो लक्ष्मण सेना बनाएँ। इस सेना में कुल 1200 कार्यकर्ता भर्ती कराये गये। विश्व हिंदू परिषद की तरफ़ से चंपत राय बंसल को इस दस्ते से कोऑर्डिनेट करने के लिये ज़िम्मेदारी सौंपी गयी जिन्हें अदालत ने दोषमुक्त कर दिया है।
सेना में दस-दस लोगों की टीमें बनायी गयीं। इनका एक नेता नियुक्त किया गया। और ये हिदायत दी गयी कि वो सिर्फ़ इस नेता की बात को ही सुनेंगे। किसी और की नहीं। 6 दिसंबर को सबसे आगे इन 38 लोगों को रहना था और यह कहा गया था कि जैसे ही ‘जय शेषावतार’ का जयघोष तीन बार लगे वैसे ही यह टीम योजनाबद्ध तरीक़े से बाबरी मसजिद में प्रवेश कर तोड़फोड़ शुरू कर दे। 6 दिसंबर को 12 बजे के आसपास जय शेषावतार का जयघोष होते ही ये दस्ता बाबरी ढाँचे पर कूद पड़ा। और पाँच बजते-बजते पूरा ढाँचा ढहा दिया गया। क़रीब 2.30 बाबरी मसजिद का पहला गुंबद टूटा और 4.40 पर मुख्य गुंबद भरभरा कर गिर गया। इस प्रकिया में कई कार्यकर्ता घायल भी हुए।
बारह बजे हमला शुरू होने के ठीक पहले पत्रकारों, केमरामैनों और विडियोग्राफ़रों पर जानलेवा हमला किया गया ताकि बाबरी ध्वंस की तसवीर और रिकॉर्डिंग न की जा सके और सबूत न बन पाये।
इस हमले के पहले अयोध्या की सारी टेलीफ़ोन लाइनें काट दी गयी थीं ताकि बाहरी दुनिया को इस कारगुज़ारी की कोई सूचना न मिल पाये। इस पूरे ऑपरेशन का नाम ‘ऑपरेशन जन्मभूमि’ रखा गया था। कोबरापोस्ट के सारे टेप अभी भी मौजूद हैं और देखे जा सकते हैं। पाँच घंटे के अंदर बाबरी मसजिद जैसी इमारत को ढहाना नौसिखिये के बस में नहीं था। यह काम सिर्फ़ वही कर सकते थे जिनको हफ़्तों इसकी ट्रेनिंग दी गयी हो और उन्हें उन उपकरणों के इस्तेमाल की आदत रही हो।
इस षड्यंत्र का सुराग गुप्तचर एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व ज्वाइंट डायरेक्टर एम के धर की किताब “OPEN SECRETS” में भी मिलता है। धर किताब में लिखते हैं कि वो संघ परिवार के बड़े समर्थक थे। उन्हें ब्यूरो से आदेश मिला फ़रवरी 1992 में संघ परिवार की एक मीटिंग की गुप्त रिकॉर्डिंग का। उन्होंने पूरी मीटिंग की गोपनीय तरीक़े से ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग की। इस मीटिंग के टेप उन्होंने अपने बॉस को सौंप दिये। उनकी जानकारी के मुताबिक़ ये टेप तब के प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव और गृह मंत्री एस बी चव्हाण को भी सुनाये गये थे। धर का कहना है कि टेप को सुनने के बाद उनका संघ परिवार से मोहभंग हो गया। उस मीटिंग से साफ़ था कि 6 दिसंबर की घटना पूर्व नियोजित थी। उन्होंने बाबरी ध्वंस को ‘प्रलय नृत्य’ की उपमा दी थी। उनके मुताबिक़ इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद से ही संघ परिवार ने उग्र रुख़ अपनाने का मन बना लिया था और देश की राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिये कोई भी क़दम उठाने को वह तैयार था।
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