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ज़हरीले चैनलों को बजाज के बाद पारले भी नहीं देगा विज्ञापन 

आर्थिक चोट में बहुत ताक़त होती है। आर्थिक नुकसान की आशंका कई चैनलों को संयमित और अनुशासित करने की दिशा में प्रेरित कर सकता है। इसीलिए कॉर्पोरेट जगत की इस पहल में दम है। अभी तक कॉर्पोरेट जगत अपने स्वार्थों, अपने एजेंडे के लिए विज्ञापनों के इस हथियार का इस्तेमाल करता रहा है। सरकार की आर्थिक नीतियों में अपेक्षित बदलाव लाने के मक़सद से वह मीडिया के ज़रिए दबाव बनाता रहा है। 
मुकेश कुमार
बजाज कंपनी के बाद पारले कंपनी की ओर से भी ज़हरीले न्यूज़ चैनलों के बहिष्कार की घोषणा को एक अप्रत्याशित और सुखद क़दम के तौर पर लिया जा रहा है। सोशल मीडिया पर व्यक्त की जा रही टिप्पणियों में इसे देखा जा सकता है। हर जगह मोटे तौर पर इसका स्वागत किया गया है और यह अस्वाभाविक भी नहीं है। पिछले 5-6 साल से न्यूज़ चैनलों ने जो रूप अख़्तियार किया है, उसे लेकर समाज में पहले से ही आक्रोश पनप रहा था, मगर पिछले डेढ़ साल में यह चरम पर पहुँच गया है। 

एकतरफा प्रसारण

इस दौरान चैनलों ने अति कर दी। वे पूरी तरह से एकतरफा हो गए हैं और ज़हर उगलना जैसे उनका एकमात्र लक्ष्य ही बन गया। हर मुद्दे को धर्म और राजनीति के चश्मे से देखकर उसे सांप्रदायिक रंग देने की इस प्रवृत्ति ने समाज में न केवल गहरी फाँक पैदा कर दी है, बल्कि एक बड़े आंतरिक विभाजन की वास्तविक आशंकाएं भी पैदा कर दी हैं। यही नहीं, अब ये आशंकाएँ अंतरराष्ट्रीय कलंक का रूप लेती जा रही हैं।
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आए दिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे भेदभाव और अन्याय पर रिपोर्ट जारी कर रही हैं, उन्हें रोकने की अपील कर रही हैं। अफ़सोस इस बात का है कि हमारे लोकतांत्रिक संस्थान इसे समुचित ढंग से संबोधित करने के लिए तैयार ही नहीं हैं। वे या तो इन्हें नकार रहे हैं या खामोश हैं। 
कुल मिलाकर स्थितियाँ बर्दाश्त से बाहर हो रही हैं, मगर न्यूज़ चैनल हर दिन अपनी करतूतों से जैसे देश के धैर्य का इम्तिहान लेने पर आमादा हैं। तमाम निंदा-भर्त्सना को दरकिनार करके वे बेशर्मी से ज़हर का कारोबार करने में जुटे हुए हैं।
ज़ाहिर है कि आम अवाम ऐसे में खुद को बेहद असहाय महसूस कर रहा है, उसे सूझ नहीं रहा कि ऐसे कब तक चलेगा और इसे कौन रोकेगा।

विज्ञापन बंद होने का डर

घनघोर निराशा के इस माहौल में जब दो बड़ी कंपनियों ने ज़हरीले न्यूज़ चैनलों को विज्ञापन न देने की घोषणा की तो लोगों को उम्मीद नज़र आयी है। हम सब जानते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया का पूरा धंधा विज्ञापनों पर टिका हुआ है। अगर विज्ञापन बंद हो जाएं तो उसे दम तोड़ने में देर नहीं लगेगी। तमाम चैनल विज्ञापनों के लिए ही आपस में गुत्थमगुत्था हैं। उनकी ये आपसी लड़ाई ही कंटेंट की गिरावट की बड़ी वज़ह है। 
लेकिन आर्थिक चोट में बहुत ताक़त होती है। आर्थिक नुकसान की आशंका कई चैनलों को संयमित और अनुशासित करने की दिशा में प्रेरित कर सकता है। इसीलिए कॉर्पोरेट जगत की इस पहल में दम है। अभी तक कॉर्पोरेट जगत अपने स्वार्थों, अपने एजेंडे के लिए विज्ञापनों के इस हथियार का इस्तेमाल करता रहा है। सरकार की आर्थिक नीतियों में अपेक्षित बदलाव लाने के मक़सद से वह मीडिया के ज़रिए दबाव बनाता रहा है। 

कॉर्पोरेट बहिष्कार

अब वह कह रहा है कि सामाजिक ज़िम्मेदारियों को समझते हुए ज़हरीले चैनलों के साथ वह नहीं खड़ा होगा। कम से कम बजाज के ऐलान में इसका साफ़-साफ़ उल्लेख है। लेकिन कार्पोरेट बहिष्कार के इस अभियान की सफलता-असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे इस सामाजिक ज़िम्मेदारी को किस हद तक महसूस करते हैं।
कार्पोरेट या कारोबारियों का आम चरित्र ये है कि वे जो भी सत्ता में हो उसके साथ रहना चाहते हैं, उसी में अपना फ़ायदा देखते हैं। शासन-प्रशासन पर काबिज़ लोगों से रिश्ते बनाकर रखना और उसका फ़ायदा उठाना उनकी व्यापारिक रणनीति का हिस्सा होता है।
अब इस नफ़ा-नुकसान वाली गणित के हिसाब से सोचें तो अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या मुमकिन है और क्या नहीं।  

कितना असर होगा?

फिर देश में जो राजनीतिक माहौल है उसके मद्देनज़र भी इसकी गुंजाइश बहुत कम दिखती है कि ये मुहिम रंग लाएगी। सबको पता है कि न्यूज़ चैनलों के ज़रिए फैलाया जा रहा ये ज़हर कहाँ से आ रहा है, क्यों आ रहा है और कौन इस सप्लाई के पीछे है। ज़ाहिर है कि जोखिम बड़ा है। नाराज़ सरकार इनकम टैक्स, ईडी, सीबीआई वग़ैरह पीछे लगाकर परेशान कर सकती है, उन्हें जेलों में ठूँस सकती है। ऐसे में क्या कंपनियाँ जोखिम उठाएँगीं?

अमेरिका में क्या हुआ?

कॉर्पोरेट की ओर से की गई यह पहल दरअसल अमेरिका में शुरू किए गए ‘स्टॉप हेट फॉर प्रॉफिट’ आंदोलन से प्रेरित है। ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ और सिविल राइट्स से जुड़े संगठनों ने इस आंदोलन के ज़रिए कॉर्पोरेट पर दबाव बनाया था कि वे फ़ेसबुक का बहिष्कार करें। हेट स्पीच को फैलाने में फ़ेसबुक कुख्यात हो चुका है। 
जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद उसका रवैया बहुत ही निंदनीय था। यब स्पष्ट दिख रहा था कि चूँकि ज़हरीले पोस्ट ज़्यादा वायरल होते हैं और उससे उसे फ़ायदा होता है, इसलिए मार्क ज़करबर्ग उन पर रोक लगाने के लिए तैयार नहीं था। उन पर दबाव बनाने के लिए इस आंदोलन की शुरुआत की गई। 
शुरू में यह काफ़ी सफल होता दिखा क्योंकि होंडा, यूनिलीवर, वेरिकॉन, डिएजिओ जैसे बड़े कॉर्पोरेट खुलकर आ गए और कोका कोला जैसी बहुत सी कंपनियाँ थीं, जिन्होंने बहिष्कार की घोषणा तो नहीं की, मगर विज्ञापनों में कटौती कर दी। अमेरिका के बाहर की कंपनियाँ भी इस मुहिम में शामिल हो गईँ और फ़ेसबुक को लाखों डॉलर का नुक़सान हुआ। मगर फ़ेसबुक की कुल कमाई पर इसका बहुत ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ा और न ही ऐसा लगा कि वह अपनी रणनीति बदलने के लिए बाध्य हो रहा है। 
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में सरकार भी एक बड़ी विज्ञापनदाता है, इसलिए न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस में उसकी एक बड़ी भूमिका है। अब मान लीजिए कि सरकार इन ज़हरीले चैनलों को विज्ञापन की भरपाई कर दे तो क्या होगा?

विज्ञापन की चिंता नहीं

एक तीसरी ग़ौरतलब बात यह है कि कई ज़हरीले चैनलों के पीछे बड़े धंधेबाज़ और कॉर्पोरेट हैं, इसलिए उन्हें विज्ञापनों से होने वाले नुक़सान की चिंता सताती ही नहीं है। वे इस कॉर्पोरेट मुहिम को बदनाम करने का अभियान छेड़ देंगे और उसे अपने धर्मयुद्ध की तरह पेश करके जन समर्थन तथा टीआरपी हासिल करने लगेंगे। हो सकता है कि जवाब में वे इन कंपनियों के बहिष्कार का ही अभियान छेड़ दें।
रिब्लिक टीवी के पूर्व मालिक राजीव चंद्रशेखर बीजेपी के नेता और सांसद हैं। ज़ी के मालिक सुभाष चंद्रा बीजेपी के सांसद हैं। न्यूज़ 18 समूह मुकेश अंबानी का है जो मोदी के दोस्त हैं। सुदर्शन टीवी का खेल तो पूरी तरह से खुला हुआ है। बहुत सारे चैनलों में जिन उद्योगपतियों का धन लगा है उनकी यारी बीजेपी सरकार से है। अब सोचा जा सकता है कि इन चैनलो का बहिष्कार से क्या बिगड़ने वाला है कि वे डरकर ज़हर उगलना बंद कर देंगे। 

विश्वसनीयता का सवाल

लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि इस मुहिम का कोई महत्व ही नहीं है। फ़ेसबुक के बहिष्कार ने उसे भले ही अपेक्षित ढंग से न बदला हो, मगर दुनिया भर में ब्रांड इमेज को, उसकी विश्वसनीयता को धक्का पहुँचाया है।
इस मुहिम से ज़हरीले चैनलों और उनके ज़हरीले ऐंकर भी कलंकित हो रहे हैं, होंगे। इसलिए अगर यह अभियान थोड़ा भी आगे बढ़ा तो उसे इतिहास में बड़ी उपलब्धि की तरह दर्ज़ किया जाएगा।
यहाँ दो चीज़ों का उल्लेख करना भी ज़रूरी है। एक तो पारले की वह दलील जिसमें उसने कहा है कि टीआरपी के घोटाले और संदिग्ध आँकड़े भी उसके फ़ैसले की एक वज़ह हैं। मुंबई पुलिस के भंडाफोड़ के बाद विज्ञापनदाताओं के अंदर संदेह बैठ गया है कि पता नहीं पीपल्स मीटर में छेड़छाड़ किस पैमाने पर की जा रही है और उनका पैसा कहीं गड्ढे में तो नहीं जा रहा है। 
दूसरी बात यह है कि कई बार कॉर्पोरेट अपने स्वार्थों से प्रेरित होकर भी ऐसा करते हैं। मसलन, सरकार के एजेंडे से असहमति और अपनी छवि को चमकाना भी इसका उद्देश्य हो सकता है। फ़ेसबुक के बहिष्कार अभियान में भी इन चीज़ों को देखा गया था। इसलिए अतिउत्साह में कॉर्पोरेट एजेंडा को आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहिए।
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