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'भारत छोड़ो' आन्दोलन कुचलने में अंग्रेज़ों का साथ देने वाले सावरकर को भारत रत्न?

विनायक दामोदर सावरकर पर आरोप लगता है कि उन्होंने 'भारत छोड़ो' आन्दोलन का विरोध किया था और अंग्रेज़ों की मदद की थी। उन्होंने अंग्रेजी सेना की मदद के लिए फ़ौज़ में हिन्दुओं की भर्ती का विशेष अभियान चलाया था। बाद में अंग्रेज़ों ने इन्ही सैनिकों को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के ख़िलाफ़ युद्ध में उतारा था। सावरकर के जन्म दिन पर पढ़ें यह लेख। 

शमसुल इसलाम
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने 7 अगस्त 1942 को बम्बई (मुंबई) में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अंग्रेज शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की माँग की गयी थी। कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और क़ानूनी अधिकार नहीं है।

'भारत छोड़ो' आन्दोलन

अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था, जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएँ भारत के पूर्वी तट तक पहुँच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई ‘क्रिप्स योजना’ को खारिज कर दिया था। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गाँधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ़ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएँ। अंग्रेज शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गाँधीजी ने ‘करो या मरो’ ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया। 
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'भारत छोड़ो' आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया, उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी क़ुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। 

आन्दोलन का दमन

अंग्रेज शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फ़ौजी छावनी में बदल दिया गया। गाँधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ़्तार किया ही गया, दूर-दराज के इलाक़ों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएँ दी गईं। 
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, पुलिस और सेना ने 700 से भी ज़्यादा जगह गोलाबारी की, जिसमें 1100 से भी अधिक लोग शहीद हो गए। पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया।
भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन हथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था। 

सरकार को मुँहतोड़ जवाब

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है। अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया। 
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ़्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता ने नष्ट कर दिया।
जनता की हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत अस्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था, परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा। 

हिन्दू महासभा ने की अंग्रेज़ों की मदद

भारत छोड़ो आंदोलन के ख़िलाफ़ सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने खुले-आम दमनकारी अंग्रेज़ शासकों की मदद की घोषणा की। पूरा देश देशभक्तों के खून से लहूलुहान था, समस्त देश को एक जेल में बदल दिया गया था, देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे। इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे। ऐसे दमन काल में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सावरकर ने अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए एक शर्मनाक पहल की।
कांग्रेस पर अंग्रेज सरकार द्वारा प्रतिबन्ध का जश्न मानते हुये हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा  सावरकर ने 1942 में हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन में गोरे शासकों के साथ ‘उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग' नीति की घोषणा करते हुए कहा :

सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है...हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ ‘उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग’ की नीति है। इसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग, जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।


विनायक दामोदर सावरकर, संस्थापक, हिन्दू महासभा

सावरकर किस हद तक अंग्रेज़ों के दमन का साथ देने की बात तय कर चुके थे, इसका अंदाज़ उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है : 

हिंदू महासभा का मानना है कि ‘उत्साहपूर्वक अनुकूल सहयोग’ की नीति ही हर तरह की व्यावहारिक राजनीति का प्रमुख सिद्धांत हो सकती है। और इस लिहाज़ से इसका मानना है कि पार्षद, मंत्री, विधायक, नगरपालिका या किसी सार्वजनिक संस्था के किसी भी पद पर काम करने वाले जो हिंदू संगठनवादी दूसरों के जायज़ हितों को चोट पहुँचाए बिना हिंदुओं के जायज़ हितों को आगे बढ़ाने के लिए या उनकी सुरक्षा के लिए सरकारी सत्ता के केंद्रों का उपयोग करते हैं, वे देश की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं।


विनायक दामोदर सावरकर, संस्थापक हिन्दू महासभा

सावरकर ने इसके आगे कहा, 'वे जिन सीमाओं में रहते हुए काम करते हैं उसे समझते हुए, महासभा यही उम्मीद करती है कि वे परिस्थितियों के मद्देनज़र जो कर सकते हैं, करें और अगर वे ऐसा करने में विफल नहीं होते हैं तो महासभा उन्हें धन्यवाद देगी कि उन्होंने अपने आप को दोषमुक्त ठहराया है।'
सावरकर ने इसके आगे कहा : 

सीमाएँ क़दम-दर-क़दम सिमटती जाएँगी जब तक कि वे पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जातीं। सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की नीति, जो बिना शर्त सहयोग से लेकर सशस्त्र प्रतिरोध तक तमाम तरह की देशभक्ति की गतिविधियों का रूप ले सकती है, हमारे पास उपलब्ध समय और साधन और राष्ट्रहित के तक़ाजों के अनुसार बदलती रह सकती है।


विनायक दामोदर सावरकर, संस्थापक, हिन्दू महासभा

सावरकर ने यह तक घोषणा कर डाली कि उन्हें 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ तथाकथित संयुक्त मोर्चे को तोड़ने' में भी परेशानी नहीं होगी। इससे उनका तात्पर्य यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ जो 'भारत छोड़ो' आंदोलन चलाया जा रहा था, उसे तहस-नहस करने से भी उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।

'भारत छोड़ो' आन्दोलन दबाने के उपाय सुझाए 

बीजेपी के दूसरे 'आइकॉन' और भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में 'भारत छोड़ो' आंदोलन को दबाने के लिए गोरे आक़ाओं को उपाए सुझाए। 

हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो और आरएसएस के प्यारे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में मुसलिम लीग के मंत्रिमंडल में गृह मंत्री और उप-मुख्यमंत्री रहते हुये कई चिट्ठियाँ लिख कर बंगाल के ज़ालिम अंग्रेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये, जिनसे बंगाल में 'भारत छोड़ो' आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था।
मुखर्जी ने अँग्रेज शासकों को भरोसा दिलाया कि कांग्रेस अँग्रेज शासन को देश के लिये अभिशाप मानती है, लेकिन उनकी मुसलिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।
अंग्रेज गवर्नर को एक पत्र में इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन को कुचलने के लिए ठोस तरीक़े सुझाते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह तक लिखा कि -

भारतवासियों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए, इंग्लैंड की खातिर नहीं, और ना ही ऐसे किसी लाभ की ख़ातिर जो अंग्रेज़ों को इस से होगा, बल्कि प्रान्त की सुरक्षा और स्वतंत्रता बरक़रार रखने के लिए।


श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संस्थापक, भारतीय जनसंघ

आरएसएस-बीजेपी के शासकों को देश को बताना चाहिए कि अगर किसी और पार्टी या संगठन के नेता ने इस तरह अंग्रेज़ों का साथ दिया होता, क्या तब भी उन्हे 'भारत रत्न 'देने की वकालत की जाती?
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