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बिरसा मुंडा से ‘धरती का भगवान’ बनने की संघर्ष भरी गाथा 

'धरती आबा' की कहानी शुरू होती है साल 1890 में। चाइबासा जर्मन मिशन स्कूल की एक कक्षा में पढ़ाते हुए मिशनरी डॉ. नोटरोट बार-बार मुंडा आदिवासी समुदाय के बारे में नीचा दिखाने वाली बातें कर रहे हैं। अचानक 15 साल का एक लड़का तमतमाता हुआ उठता है और उनसे सवाल पूछता है। इस पर लड़के को स्कूल से निकाल दिया जाता है। उस लड़के का नाम बिरसा डेविड था। 1896 में उस स्कूल में पढ़ने की बुनियादी शर्त मान कर बिरसा मुंडा से बना बिरसा डेविड। स्कूल से निकालने की बात स्वीकार करते हुए वह लड़का एक बहुत बड़ी बात कहता है- ‘साहेब-साहेब एक टोपी’। इसका मतलब यह कि ब्रिटिश राज के अधिकारियों और धर्मप्रचार और सेवा के लिए आये मिशनरियों में दरअसल कोई फ़र्क़ नहीं है, वे एक टोपी ही हैं। यह बिरसा के भगवान बनने की शुरुआत थी। 

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उस बिरसा की जो अचानक सोशल मीडिया पर छा गए हैं। सच को तोड़ने-मरोड़ने के लिए जाने जाने वाले सोशल मीडिया की बस यही एक बात अच्छी है। उसमें सरोकारी लोगों का सांख्यिक अल्पसंख्यक ही सही, इतना हिस्सा भी कई बार सच लेकर सामने आ जाता है। सो, वापस बिरसा पर लौटते हैं। 

बिरसा के भगवान बनने की कहानी भले ही 1890 में उस स्कूल से शुरू हुई हो लेकिन उसकी ज़मीन दशकों पहले से बन रही थी। सदियों से छोटे नागपुर की पहाड़ियों में रहते आये मुंडा और उरांव आदिवासियों के जीवन में पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर सीधे अंग्रेज राज के आ जाने के बाद उथल-पुथल मच गई थी।
मुंडा और उरांव समुदाय सदियों से आत्मनिर्भर और अन्य समुदायों से लगभग कटे हुए ही रहे। उनके इलाक़ों पर सम्प्रभुता किसी की भी रही हो, जैसे- मुगलों की, उसके पहले और साम्राज्यों की और बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर अंग्रेजों की, ज़्यादातर ने उनके जीवन, ज़मीन और जंगल में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। यहाँ तक कि मुगलों से इलाक़े की दीवानी पाने के बाद और ईस्ट इंडिया कंपनी के छोटा नागपुर के महाराजा से 1771 के समझौते के बाद भी नहीं। लेकिन फिर लार्ड कार्नवालिस के बंगाल परमानेंट सेटलमेंट एक्ट 1793 के बाद सब बदलने लगा।  

अब ज़मींदारी का मतलब ज़्यादा से ज़्यादा राजस्व वसूलना था। इसके लिए जंगलों को संसाधन बनाना था और उसके लिए आदिवासियों को बेदखल करना ज़रूरी था। यह बेहद आसान था, मुंडा समुदाय के जीवन यापन का प्रमुख आधार खूंटकट्टी था- मतलब जंगल के किसी एक हिस्से पर एक परिवार का अधिकार, खेती करने से लेकर लघु वनोपज इकठ्ठा करने तक का। इसके कोई ‘कागज़’ नहीं होते थे पर परंपरा के तहत यह सदियों से चला आ रहा था। फिर अचानक उस बिना ‘कागज़’ वाले इलाक़े में दिकू (बाहरी आ गए)। 

हिन्दू दिकू (मुख्यतः बंगाली), ईसाई मिशनरी और अंग्रेज राजस्व व्यवस्था। और इसके बाद मुंडा बेदखल होने लगे। आंकड़ों में देखें तो 1800 तक जंगलों में ज़मींदारों  (वहां 'ठीकेदार') की लगभग अनुपस्थिति वाले इलाक़े में 1856 आते-आते 600 ‘ठीकेदार’ हो गए थे पर फिर भी अपने पारम्परिक सरदारों के नेतृत्व में हजारों मुंडा बसावटें अभी भी बाकी थीं। लेकिन 1874 तक सारी मुंडा और ओरांव बसावटें बेदखल हो चुकी थीं और उनमें ‘ठीकेदारों’ के बसाये किसान आ गए थे और आदिवासी अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर बन गए थे। 

बिरसा मुंडा इसके ठीक एक साल बाद जन्मे। रांची जिले के उलिहातू गांव में। परिवार गरीब था तो शुरुआती बचपन मज़दूरी तलाशते माँ-बाप के साथ कई गांवों में बीता, कुछ हिस्सा मामा के गांव में भी। वहां स्कूल गए और एक अध्यापक जयपाल नाग ने (दिकू ही थे) उनकी प्रतिभा पहचान ली और उनके परिवार को उन्हें मिशनरी स्कूल में भेजने की सलाह दी। परिवार ने बात मान ली और उन्हें 1886 में लूथरन मिशन स्कूल चाइबासा में दाखिला दिलाया गया। चूँकि स्कूल में दाखिले की बुनियादी शर्त धर्म परिवर्तन थी तो वह बिरसा मुंडा से बिरसा डेविड और धीरे-धीरे बिरसा दाऊद हुए। पढ़ना-लिखना शुरू हुआ, तेज तो थे ही इसलिए दुनिया समझ में आने लगी और फिर आया 1890 जहाँ से यह कहानी शुरू हुई थी। 

आदिवासियों में बढ़ रही थी नाराज़गी

अब तक लगातार अपने हक़ खो रहे मुंडा आदिवासी और उनके सरदार, दोनों की सत्ता से नाराज़गी बढ़ती जा रही थी, सत्ता मतलब छोटा नागपुर के महाराजा और अंग्रेज राज दोनों। दरअसल, इस नाराज़गी का पहला प्रस्फुटन और पहला मुंडा आदिवासी विद्रोह 1831 में ही हो चुका था, जब रांची के पास के एक गांव सोनपुर में सरदारों ने राजा द्वारा उनकी जमीन दिकू लोगों को देने की कोशिश की थी। उन्होंने फिर हमला कर तमाम दिकुओं को मार भगाया था, काफी लोग डर कर भाग भी गए थे। उसके बाद छिटपुट विद्रोह चलते ही रहे, कुछ बड़े भी हुए। अंततः 1869 का छोटा नागपुर टेन्योर ऐक्ट भी असफल रहा। बताना ज़रूरी होगा कि 1874 तक कोई मुंडा गांव बचा ही नहीं था। 

बची-खुची कसर अंग्रेजों ने इंडियन फ़ॉरेस्ट एक्ट 1882 लाकर पूरी कर दी जिसके बाद मुंडा समुदाय के जंगल से अधिकार पूरी तरह ख़त्म हो गए। इसके बाद वही होना था जो हुआ, 1885 के आते-आते सरदारों ने बड़ा विद्रोह शुरू कर दिया और इस विद्रोह का तब 10 साल के बिरसा मुंडा पर बड़ा असर हुआ और यही वह असर था जो 1890 में निकला था।
सो, बिरसा ने स्कूल छोड़ा और सरदारों को संगठित करना शुरू किया। मुंडा समुदाय को बेगारी के खिलाफ काम करने को समझाया और 1895 आते-आते खुले विद्रोह का एलान कर दिया। गांव था तमार। वहां बिरसा मुंडा ने बाकायदा ईसाईयत छोड़ी और ख़ुद को ‘नया’ घोषित किया। बिरसा ने मुख्यतः जो शिक्षा दी वह यह थी कि जंगल-जमीन मुंडा लोगों की है, दिकू लोगों को बाहर करना है और अपना राज कायम करना है। उन्होंने मुंडा समुदाय से पुलिस, अदालतों और बेठ बेगारी का भी बहिष्कार करने का आह्वान किया। 

आदिवासियों ने बिरसा को माना नेता

अंग्रेजी राज और मिशनरियों, दोनों से पहले से नाराज़ मुंडा आदिवासियों ने बिरसा को हाथों हाथ लिया और बिरसा मुंडा 'धरती आबा' हुए और तमाम मुंडा बिरसाइत- जैसा उस धर्म का नाम जाना गया (अब भी मुंडा समुदाय में बिरसाइत लोगों की काफी संख्या है), यहीं से सच या मिथ, बिरसा मुंडा के चमत्कारों की कहानियाँ भी शुरू हुईं। जैसे-  उनसे मिलते ही रोग दूर हो जाते हैं, कठिनाइयाँ ख़त्म हो जाती हैं आदि। अब तो मुंडा ही नहीं, तमाम हिंदू और मुसलिम भी बिरसा के पास आने लगे। 

मिशनरियों को इससे दिक्कत होनी ही थी, सो हुई भी। और अफवाहें फैलनी शुरू हुईं कि बिरसाइत भगत सारे ग़ैर बिरसाइत लोगों को मार देंगे।  अफवाहों को बल इससे भी मिला कि बिरसाइत तब तक मिशनरियों से उलझने भी लगे थे। सो, बिरसाइत समाज की एक बैठक के वक़्त पुलिस ने उन्हें घेर लिया लेकिन वे बिरसा लोगों को पकड़ नहीं पाए और वे घने जंगलों में भाग निकले। भगवान बिरसा का मिथक इससे और मज़बूत होना ही था।  

विद्रोह का फूंका बिगुल

खैर, कुछ दिन बाद वे जंगल में सोते हुए पकड़ लिए गए और उन्हें 2 साल की सजा हुई। लेकिन बिरसा ने काम जेल से भी नहीं रोका। 1899 में रिहा हुए तो मिथक है कि सुनहरी मिट्टी लपेटे हुए निकले। ‘ठीकेदारी’ और अपनी बेदखली के खिलाफ बिरसाइत फिर से संगठित हुए और 24 दिसंबर 1899 को बिरसा के नेतृत्व में उन्होंने उलगुलान (क्रांति/विद्रोह) का एलान कर दिया। उन्होंने सबसे पहले हमले ईसाई मुंडा बन चुके लोगों पर किये, फिर मिशनरियों और फिर चर्च पर किये। उन्होंने रांची के डिप्टी कमिश्नर पर भी हमला किया। आखिर, 9 जनवरी 1900 को सैल रकाब पहाड़ी पर बिरसाइतों की अंग्रेजों से निर्णायक भिड़ंत हुई, बिरसा तो भाग निकले लेकिन तमाम बिरसाइत शहीद हुए, तमाम पर बहुत ज़ुल्म ढाये गए। 

ज़हर देकर मारा बिरसा को!

बिरसा के फिर से निकल जाने से तिलमिलाए अंग्रेजों ने इस बार उन पर 500 रुपये (अब के हिसाब से हज़ारों) का ईनाम रखा और आखिर में किसी की मुखबिरी की वजह से बिरसा पकड़े गए। जेल में मुकदमे के दौरान ही उनकी तबियत बिगड़ गई और अंग्रेजों के मुताबिक़ हैजे से 9 जून 1900 को उनकी मृत्यु हो गई। बेशक उनकी मौत पर तब भी सवाल उठाये गए थे और इवैंजलीकल मिशन ऑफ़ छोटा नागपुर ने खुद कहा था कि उन्हें ज़हर देकर मारा गया। 

लेकिन भगवान बिरसा अपनी मृत्यु में भी जीत कर ही आये। पकड़े गए 300 बिरसाइतों पर चले मुक़दमे ने देश की आत्मा को झिंझोड़ दिया। अब तक अपने जंगलों में गुम मुंडा समुदाय की आवाज़ देश भर में गूंजने लगी। सुरेंद्र नाथ बनर्जी अंग्रेजों पर लीपापोती का आरोप लगा रहे थे। उधर, ‘द स्टेट्समैन’ लगातार मुक़दमे पर नज़र रख रहा था और उसने 25 मार्च के संपादकीय में भी लिखा कि बिरसाइतों को अपने क़ानूनी बचाव का कोई मौक़ा नहीं दिया जा रहा है और यह मुक़दमा बस नाटक है। 

बिरसाइतों के बढ़ते गुस्से का असर पड़ना था और वह पड़ा भी। बिरसा की मौत के कुछ ही वक़्त में अंग्रेजों को छोटा नागपुर टेनेंसी ऐक्ट बनाना पड़ा - वह क़ानून जिसने दिकू लोगों के आदिवासियों की ज़मीन ख़रीदने/छीनने के हक़ को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया। लेकिन विडंबना यह है कि फिर भारत आज़ाद हो गया और विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण क़ानून लाये जाने लगे! अब तो झारखण्ड में बीजेपी की कृपा से पहला दिकू मुख्यमंत्री भी है और वह 'धरती आबा' बिरसा मुंडा की प्रतिमा को माला पहनाते दिखते हैं! 

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समर अनार्य

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