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मोदी को क्यों आँख दिखा रहे हैं बीजेपी के सहयोगी दल?

अटल बिहारी वाजपेयी की कार्यशैली थी कि जितना ज़्यादा से ज़्यादा संभव हो उतना सलाह-मशविरा कर लो। प्रधानमंत्री मोदी का मामला इसके उलट है। चाहे पार्टी हो या कैबिनेट या फिर सहयोगी दल, मोदी किसी की परवाह नहीं करते। विचार-विमर्श में उनको ज़्यादा यक़ीन नहीं है। वह ‘वन मैन आर्मी’ की तरह सरकार भी चलाते हैं और राजनीति भी। ज़ाहिर है सहयोगियों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आता है।
आशुतोष

हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी की ‘कमज़ोर’ जीत का हर्ज़ाना अब उसे भुगतना पड़ रहा है। लोकसभा चुनावों में मोदी की प्रचंड जीत ने विपक्ष को इस क़दर हतोत्साहित कर दिया था कि उसने हरियाणा और महाराष्ट्र, दोनों जगह चुनाव में बीजेपी को वाकओवर दे दिया था। उसके नेता इस क़दर हैरान-परेशान थे कि उन्हें लगने लगा था कि अब मोदी को हटाना असंभव है और विपक्ष को लंबे समय तक राजनीति के बियाबान में रहना पड़ेगा। नतीजे आए तो सब हतप्रभ। बीजेपी दोनों राज्यों में बहुमत के आँकड़े से दूर। हरियाणा में जहाँ उसे उम्मीद थी कि वह 75 से अधिक सीटें लेकर आयेगी वहाँ वह 40 पर सिमट गयी और महाराष्ट्र में जहाँ वह अपने बल पर सरकार बनाने का सपना देख रही थी वहाँ वह 105 से आगे नहीं बढ़ पायी। हरियाणा में तो फिर भी वह सरकार बना पायी लेकिन महाराष्ट्र में सरकार भी खो बैठी और तीस साल पुराना साथी भी। और देवेंद्र फडणवीस जिसे सब भारतीय राजनीति का सबसे चमकता सितारा मान बैठे थे उसकी बोलती बंद हो गयी।

अभी महाराष्ट्र में सरकार किसी की नहीं बनी है, लेकिन संकेत बीजेपी के लिए बहुत साफ़ हैं। न केवल विपक्ष के पैरों में थिरकन दिखाई देने लगी है, बल्कि उसके अपने सहयोगी, उसे आँख दिखाने लगे हैं। 24 अक्टूबर के पहले यही सहयोगी भीगी बिल्ली बने बैठे थे। और इस इंतज़ार में रहते थे कि कब मोदी और अमित शाह की नज़र उन पर पड़ जाए और वे अपने को उपकृत मानें। शिवसेना ने पहला वार किया। उसने 24 अक्टूबर के बाद बीजेपी की चकरघिन्नी बना दी है। उसने न केवल असंभव-सी शर्त सामने रखी बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि बीजेपी की सरकार न बन पाए। आज की तारीख़ में शिवसेना कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने जा रही है। यानी वह रिश्ता जो कभी अटल-आडवाणी के युग में अटूट लगता था वह मोदी-शाह के समय क्षणभंगुर साबित हो गया है। यह शिवसेना की जीत भले ही न हो, पर बीजेपी की हार ज़रूर है। 

विचार से ख़ास

सिर्फ़ इतना ही नहीं, झारखंड में जहाँ अगले महीने चुनाव है, वहाँ भी एनडीए खंड-खंड हो गया। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ने का एलान किया है और वह 81 में से 50 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उसी तरह ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन ने कह दिया है कि वह बीजेपी से अलग चुनाव लड़ेगी। उसकी योजना 16 सीटों पर लड़ने की है। लोक जनशक्ति पार्टी की झारखंड में कोई ख़ास हैसियत नहीं है पर झारखंड स्टूडेंट यूनियन ने पिछली बार 5 सीटें जीती थीं और बीजेपी की रघुवर दास की सरकार में शामिल हुई थी। झारखंड में कोई भी पार्टी आज तक अपने बल पर बहुमत नहीं ला पायी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही गठबंधन में लड़ते और साथ सरकार बनाते हैं। अब सवाल यह है कि अगर बीजेपी को हरियाणा और महाराष्ट्र में बंपर जीत मिली होती तो क्या बीजेपी के सहयोगी दल यह जुर्रत करते?

शिवसेना के टूटने के साथ ही जनता दल युनाईटेड और अकाली दल ने भी अँगड़ाई लेनी शुरू कर दी है। दोनों दलों को यह शिकायत है कि पुराने सहयोगी होने के बाद भी उनको वह सम्मान नहीं मिलता जिसके वे अधिकारी हैं या जो अटल-आडवाणी के समय में मिलता था। अकाली नेता नरेश गुजराल और जनता दल युनाईटेड के के. सी. त्यागी, दोनों ने ही ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ से बातचीत में कहा है कि एनडीए में कोई परस्पर बातचीत या सलाह-मशविरा नहीं होता। बीजेपी वही करती है जो उसे करना होता है। अकाली दल तब से बीजेपी के साथ है जब बहुत कम दल बीजेपी के साथ जुड़ना चाहते थे। जनता दल युनाईटेड का भी बीजेपी के साथ कम से कम ढाई दशक का रिश्ता है। 

आज बीजेपी के इन सहयोगी दलों को लगता है कि बहुमत में आने के बाद बीजेपी की रणनीति में वे हाशिये पर हैं और उनका इस्तेमाल सिर्फ़ चुनाव जीतने में है।

लोकसभा चुनाव के फ़ौरन बाद मोदी सरकार में जनता दल युनाईटेड के सिर्फ़ एक नेता को मंत्री बनाने का प्रस्ताव था जिसे नीतीश कुमार ने मना कर दिया। उन्होंने इतना अपमानित महसूस किया कि बिहार में मंत्रिमंडल गठन किया और बीजेपी को अतिरिक्त मंत्री पद देने से इनकार कर दिया। आगे चल कर अनुच्छेद 370 और तीन तलाक़ पर मोदी सरकार को समर्थन नहीं दिया। नीतीश कुमार के अटल-आडवाणी से बहुत अच्छे रिश्ते थे। नीतीश अटल की कैबिनेट में भी थे। 2005 में नीतीश का चेहरा आगे रख कर बीजेपी ने चुनाव भी लड़ा और लालू यादव के ‘जंगल राज’ का ख़ात्मा करने में मदद की। मोदी से उनकी कभी नहीं पटी। मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की संभावना मात्र से वह एनडीए से अलग हो गये और आगे चल कर लालू यादव से गले मिल गये। हालाँकि, बाद में वह फिर बीजेपी के साथ हो लिये। नीतीश की चिंता और उद्धव ठाकरे की चिंता एक ही है। दोनों को लगता है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी दोनों को प्रदेश की राजनीति में पूरी तरह से ख़त्म कर देना चाहती है।

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मोदी से नाराज़गी क्यों?

मोदी और अटल बिहारी की राजनीतिक शैली में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। अटल ने राजनीति के उतार-चढ़ाव देखे थे। वह जानते थे कि राजनीति में कब कौन आगे निकल जाये और कब कौन पीछे, यह कोई नहीं जानता। लिहाज़ा, उनका यक़ीन इसमें था कि सत्ता के संघर्ष में लिप्त होने के साथ भी सबका सम्मान करते चलो, सबको साथ लेते चलो, किसी का विश्वास मत तोड़ो। जितना ज़्यादा से ज़्यादा संभव हो उतना सलाह-मशविरा कर लो। मोदी इसके बिलकुल उलट हैं। वह एकनिष्ठ व्यक्ति हैं। आत्ममुग्ध। सारी सत्ता ख़ुद में समाहित करके चलते हैं। चाहे पार्टी हो या कैबिनेट या फिर सहयोगी दल, वह किसी की परवाह नहीं करते। विचार-विमर्श में उनको ज़्यादा यक़ीन नहीं है। वह ‘वन मैन आर्मी’ की तरह सरकार भी चलाते हैं और राजनीति भी। 

कहने को तो केंद्र में सरकार एनडीए की है पर किसी सहयोगी दल से कोई सलाह नहीं ली जाती। न ही किसी को विश्वास में लेकर वे फ़ैसले लिए जाते हैं। 2014 के बाद घटक दलों के बीच कोआर्डिनेशन के लिए शायद ही कभी बैठक हुई हो।

राज्यों में कमज़ोर होती जा रही है बीजेपी

ज़ाहिर है सहयोगियों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आता पर वे तब तक चुप रहते हैं जब तक उन्हें लगता है कि मोदी जी के बल पर ही वे जीत सकते हैं। अब विधानसभा के चुनावों से साफ़ है कि कम से कम राज्यों में बीजेपी कमज़ोर होती जा रही है। कर्नाटक में बीजेपी ख़ुद बहुमत नहीं ला पायी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के राज्य बीजेपी खो चुकी है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी उसकी हालत पतली रही। लिहाज़ा सहयोगी दलों में खलबली है। वे बीजेपी के इशारे पर तब तक नाचेंगे जब तक बीजेपी उन्हें जिताने में मददगार होगी, जब वह ऐसा करने में नाकाम होगी तो फिर सहयोगी दल भी विकल्प खोजने लगेंगे। झारखंड में यही हुआ। जनता दल युनाईटेड और अकाली भी जानते हैं कि यही वक़्त है जब बीजेपी को समझाया जा सकता है कि वे बीजेपी की दया पर राजनीति नहीं कर रहे हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। और अगर उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला तो मौक़ा मिलने पर नये रास्ते तलाश सकते हैं। बीजेपी को यह समझना होगा। पर क्या मोदी और शाह यह समझना चाहते हैं?

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