जब देश में कोरोना दस्तक दे रहा था तो सरकार दिल्ली चुनाव लड़ने में व्यस्त थी, जब कोरोना ख़तरे की घंटी बजा रहा था तो मध्य प्रदेश में सरकार उलटने की कोशिश कर रही थी, डोनल्ड ट्रम्प के लिए लाखों की भीड़ जुटा रही थी, जब कोरोना फैलना शुरू हो गया तो बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन घोषित कर दिया गया।
देश जब कोरोना से लड़ रहा था तो महाराष्ट्र में ऑपरेशन लोटस शुरू कर दिया गया। और अब जबकि कोरोना का संक्रमण काबू से बाहर होता जा रहा है तो गृह मंत्री अमित शाह चुनावी मोड में आ गए हैं। वह करोड़ों रुपये ख़र्च पर डिजिटल रैलियाँ कर रहे हैं। राज्यसभा चुनाव के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त की तैयारी चल रही है।
सवाल उठता है कि इस सरकार की और बीजेपी की प्राथमिकता क्या है- देश या सत्ता? अगर उसकी प्राथमिकता में देश होता तो पूरी सरकार अपना ध्यान कोरोना संकट से निपटने में लगाती। वह देखती कि कैसे अस्पतालों का इंतज़ाम किया जाए, स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, मरीज़ों की जाँच और देखभाल के लिए साधन जुटाए जाएँ।
अगर उसकी प्राथमिकता में देशवासी होते तो वह करोड़ों लोगों की बदहाली के बारे में सोचती। उनकी रोटी-रोज़ी के बारे में सोचती, उनके कष्टों को कम करने के प्रयास करती। एक झूठे, अधकचरे आर्थिक पैकेज को वापस लेकर ज़्यादा कारगर पैकेज का एलान करती।
लेकिन लगता है उसकी प्राथमिकता चुनाव और सत्ता हैं इसलिए उसने अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है, उनसे आँखें मूँद ली हैं। उसे आर्थिक बदहाली के शिकार राज्यों के भरोसे छोड़ दिया है और आम लोगों से कह दिया है कि अपनी रक्षा ख़ुद करें।
करोड़ों के ख़र्च पर डिजिटल रैलियाँ करना इस ग़रीब देश में तो वैसे ही अश्लीलता कही जाती, मगर इस आर्थिक संकट में तो यह किसी बड़े अपराध से कम नहीं है। मज़दूरों की मदद के लिए आपके पास पैसे नहीं थे, आप ट्रेन का किराया तक वसूलने पर आमादा थे, मगर सत्ता के लिए बूथ स्तर तक एलईडी स्क्रीन लगवाई जा रही हैं, खर्चीले तमाशे किए जा रहे हैं।
उस पर अहंकार से भरी यह घोषणा कि बीजेपी चुनाव प्रचार की नई शैली ईजाद कर रही है। वह दिखा रही है कि कोरोना संकट के समय चुनाव प्रचार के क्या तरीक़े हो सकते हैं। इसे ही हद दर्ज़े की बेशर्मी कह सकते हैं।
आर्थिक संसाधनों का ऐसा दुरुपयोग और धनबल का ऐसा प्रदर्शन शर्मनाक है। वास्तव में यह लोकतंत्र विरोधी है, क्योंकि यह चुनाव को और भी खर्चीला और महँगा बना रहा है।
आप सत्ता में हैं, बहुत सारे उद्योगपतियों को ख़ुश करके चंदा लेने की ताक़त रखते हैं। आप इलेक्शन बांड जैसे नाज़ायज तरीक़ों से पार्टी फंड इकट्ठा कर सकते हैं। मगर सचाई यह है कि आप धनबल का इस्तेमाल करके लेवल प्लेइंग फ़ील्ड यानी सबके लिए समान अवसर की अवधारणा पर ही चोट कर रहे हैं। आप पैसे के बल पर चुनाव जीतने की रणनीति पर चल रहे हैं।
हालाँकि पिछले दो चुनावों में भी आपने पैसा पानी की तरह बहाया था और आपकी जीत में उसका भी महत्वपूर्ण योगदान था। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अगर सौ रुपए ख़र्च किए तो आपने दस हज़ार। इतना अंतर तो आप दोनों में था मगर बाक़ी पार्टियों से तुलना करेंगे तो वे तो कहीं गिनती में ही नहीं आएँगी।
वैसे, बिहार और बंगाल में की गईं चुनावी रैलियों की ही क्यों बात की जाए, बीजेपी ने तो अपनी राजनीति कभी बंद ही नहीं की। कोरोना संकट के दौरान भी शुरू से ही वह तरह-तरह से राजनीति करती रही है। गृह मंत्री तो राजनीति के अलावा कुछ कर ही नहीं रहे हैं। वे सीएए का विरोध करने वालों को ठिकाने लगाने में मसरूफ रहे। दिल्ली पुलिस के ज़रिए उन्होंने उन तमाम छात्र-छात्राओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल भिजवा दिया जो सीएए के ख़िलाफ़ मुहिम में सक्रिय थे।
यही नहीं, उन्हें दिल्ली दंगों की साज़िश में भी फँसा दिया और उन पर आतंकवाद विरोधी धाराएँ भी लगवा दीं। उधर रेलमंत्री पीयूष गोयल का ध्यान श्रमिकों के लिए रेल चलाने से ज़्यादा राज्यों को बदनाम करने, उन्हें परेशान करके राजनीति में नंबर बढ़ाने पर ज़्यादा था। इसीलिए रेलें भटकती रहीं, लेट होती रहीं।
कोरोना संकट के दौरान ही बीजेपी महामारी पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति भी करती रही है। तब्लीग़ी जमात के बहाने उसने इस मुहिम को शुरू किया था। इसके बाद जमात के लोगों को परेशान करने और पूरी मुसलमान कौम को बदनाम करने का अभियान चला। फिर तरह तरह से मुसलमानों के बहिष्कार में उनके नेता और कार्यकर्ता जुट गए। पालघर में साधुओं की हत्या हो या केरल में हथिनी का मारा जाना, सबको उन्होंने सांप्रदायिक रंग दे दिया।
दरअसल, सत्ता की भूख इस सरकार और मौजूदा बीजेपी की पहचान बन चुकी है। उसे न देश से मतलब है और न ही देशवासियों से। सरहद पर चीन ने भारतीय ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है और देश के गृह मंत्री को डिजिटल रैलियाँ सूझ रही हैं, इससे दुखद भला क्या हो सकता है।
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