अब तो यह साबित हो गया कि गाँधी जी के प्रति संघ परिवार और मोदी सरकार का प्रेम एक ‘मजबूरी’ का नाम है। लेकिन विनायक सावरकर के प्रति श्रद्धा ‘सहज और स्वाभाविक’ है। पिछले दिनों गाँधी का जाप संघ परिवार की तरफ़ से काफ़ी ज़ोर-ज़ोर से किया गया। दो अक्टूबर को सरकारी स्तर पर उनके जन्म दिन की 150वीं वर्षगाँठ मनायी गयी। प्रधानमंत्री मोदी ने गाँधी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मोदी ने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के अपने कॉलम में गाँधी को एक ऐसे महापुरुष के रूप में पेश किया जिसने दुनिया के तमाम बड़े राजनेताओं को प्रेरित किया। उन्होंने यह भी लिखा था कि गाँधी की नज़र में भारतीय राष्ट्रवाद भेदभाव नहीं करता। अब सवाल यह उठता है कि आख़िर बीजेपी क्यों ऐसे शख़्स को ‘भारत रत्न’ देने की बात अपने संकल्प पत्र में करती है जो हिंदू मुसलमान के बीच भेदभाव की विचारधारा के जनक हैं। उनका राष्ट्रवाद गाँधी के राष्ट्रवाद से बिल्कुल अलग है। वह सबको साथ लेकर चलने की बात नहीं करते। हक़ीक़त यह है कि सावरकर और गाँधी एक साथ नहीं चल सकते। भारत देश में एक ही विचारधारा चलेगी या तो गाँधी की या फिर सावरकर की।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी और संघ परिवार ने कभी भी सावरकर के प्रति अपने प्रेम को छुपाया नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संसद में उनकी तसवीर लगायी। संघ की तरफ़ से हमेशा से ही सावरकर को एक महान देशभक्त के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी। लेकिन संघ परिवार यह कभी नहीं बताता कि गाँधी जी की हत्या के आरोप में सावरकर को गिरफ़्तार किया गया था। नाथूराम गोडसे सावरकर का भक्त था। जब सावरकर को गिरफ़्तार किया गया था तब सरदार वल्लभ भाई पटेल गृह मंत्री थे। वही सरदार पटेल जिनकी आजकल मोदी सरकार ख़ूब पूजा कर रही है। हर मामले में यह कहने का प्रयास किया जाता है कि वह नेहरू से महान थे और उन्हें ही देश का पहला प्रधानमंत्री होना चाहिए था। लोकसभा चुनाव के पहले उनकी विशाल प्रतिमा गुजरात में लगाई गयी।
गाँधी हत्या में सावरकर के ख़िलाफ़ मुक़दमा चला। सरकारी गवाह ने गाँधी की हत्या का षडयंत्र रचने में उनकी भूमिका की तस्दीक़ भी की थी। चूँकि किसी और ने इस बात की पुष्टि नहीं की इसलिये सावरकर को तकनीकी आधार पर अदालत ने दोषी क़रार नहीं दिया था। सवाल यह उठता है कि अगर गाँधी की हत्या के आरोप से मुक्त हुए व्यक्ति को ‘भारत रत्न’ देने की वकालत की जा सकती है तो फिर इंदिरा गाँधी की हत्या में दोषमुक्त हुए बलबीर सिंह और संसद हमले में बरी किए गए एस ए आर गिलानी को भी पद्म सम्मानों से नवाजे जाने के बारे में सोचना चाहिए। अगर बीजेपी से अलग कोई पार्टी ऐसी जुर्रत करती है तो क्या बीजेपी उसे माफ़ करेगी? क्योंकि ये दोनों भी अदालत से क्लीन चिट पा चुके हैं।
सावरकर के बारे में यह सच है कि वह एक बहादुर स्वतंत्रता सेनानी थे। एक समय में उन्होंने हिंदू-मुसलिम एकता की बात भी की थी। 1857 के विद्रोह पर लिखी उनकी किताब इस बात की गवाही देती है। लेकिन 1910 में गिरफ़्तार होने के बाद जब उन्हें अंडमान निकोबार काला पानी के लिए भेजा गया तो फिर एक नए सावरकर का जन्म हुआ। यह सावरकर पहले के सावरकर से अलग थे।
काला पानी ने सावरकर के अंदर के देशभक्त को तोड़ दिया था। काला पानी की सज़ा से वह इस क़दर डर गये थे कि उन्होंने जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगी और पाँच माफ़ी पत्र लिखे।
इन पत्रों में उन्होंने अंग्रेज़ों से वादा किया कि अगर उनकी सज़ा माफ़ कर दी जाती है तो वह अंग्रेज़ों के काम आयेंगे, कभी भी उनके ख़िलाफ़ आंदोलन नहीं करेंगे। 1924 में छोड़े जाने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों को दिया अपना वादा निभाया। जब गाँधी जी के नेतृत्व में लोग क़ुर्बानियाँ दे रहे थे, जेलों में सड़ रहे थे, लाठी डंडे खा रहे थे, हाथ पैर तुड़वा रहे थे, अपनी जान दे रहे थे, घर परिवार और रिश्तेदारों को खो रहे थे, तब सावरकर महाराष्ट्र के अपने गृह ज़िले रत्नगिरी में चुपचाप आराम फ़रमा रहे थे।
भगत सिंह ने कभी माफ़ी नहीं माँगी
अंग्रेज़ों से माफ़ी माँग कर भगत सिंह भी अपनी जान बचा सकते थे। लेकिन 23 साल के इस अमर शहीद को अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगना गवारा नहीं था। जब अरुणा आसफ़ अली ने उनसे कहा कि अगर वह यह कह दें कि वह बाहर आकर हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे तो उनकी सज़ा वायसराय माफ़ कर सकते हैं। भगत सिंह ने उनके प्रस्ताव को ख़ारिज़ कर दिया। और जब उन्हें यह पता चला कि उनके पिता ने अंग्रेज़ों को सजा माफ़ी के लिए एक चिट्ठी लिखी है तो वह आग बबुला हो गये और पिता को पत्र लिख कर जम कर खरी-खोटी सुनाई। भगत सिंह हँसते-हँसते 23 मार्च 1931 को फाँसी के फंदे पर झूल गए। उनके चेहरे पर डर और ख़ौफ़ की एक लकीर भी नहीं थी। उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने झुकने से बेहतर मौत को गले लगाना बेहतर समझा। क्या ये काम सावरकर नहीं कर सकते थे? अगर वह ऐसा करते तो भगत सिंह की तरह देश उनकी पूजा करता।
सावरकर ने क्या किया?
मैं यह मान लेता कि सावरकर ने सज़ा माफ़ी एक रणनीति के तहत माँगी थी, जैसा कि संघ परिवार प्रचारित करता है। लेकिन काला पानी से छूटने के बाद उनकी सारी गतिविधि इस बात का खंडन करती है। सावरकर ने फिर कभी स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया। किसी धरना, प्रदर्शन और सत्याग्रह में हिस्सा नहीं लिया। अंग्रेज़ों से बचकर वह किसी भूमिगत आंदोलन में भी शरीक नहीं हुए। वह चुपचाप रहे। उलटे उन्होंने वह काम किया जिससे अंग्रेज़ों को मदद मिली। उनके ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ ने हिंदू-मुसलिम एकता को तोड़ने का काम किया। 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेज़ों को यह एहसास हो गया था कि हिंदू मुसलिम अगर साथ रह गए तो अंग्रेज़ों के लिए भारत पर लंबे समय तक शासन करना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनायी। हिंदू-मुसलिम एकता तोड़ने का सफल प्रयास किया। सावरकर की ‘हिंदुत्व’ की व्याख्या ने अंग्रेज़ों का काम आसान किया। जो बात सावरकर ने 1937 में कही, 1940 में जिन्ना ने हूबहू वही बात दोहरायी जो बाद में देश के विभाजन और पाकिस्तान निर्माण का कारण बना। यह अलग बात है कि गोडसे समर्थक गाँधी को भारत विभाजन का ज़िम्मेदार मानते हैं।
सावरकर की हिंदू महासभा और मुसलिम लीग
इतिहास का एक तथ्य यह भी है कि जिस जिन्रा का आज नाम लेने पर हिंदुत्ववादी लोगों को देशद्रोही क़रार देते हैं और पाकिस्तान भेजने की बात करते हैं, उन्हीं जिन्ना की पार्टी मुसलिम लीग के साथ सावरकर की हिंदू महासभा ने बंगाल और उत्तर पश्चिम प्रांत में सरकार बनायी थी। जब गाँधी जी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का आग़ाज़ किया था तो बंगाल में हिंदू महासभा के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उप मुख्यमंत्री के तौर उस वक़्त के बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर को चिट्ठी लिख कर भारत छोड़ो आंदोलन को ख़त्म करने की वकालत की थी। क्या ऐसा सावरकर की सहमति से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया? इस बात का प्रमाण नहीं है लेकिन इसी दौरान सावरकर ने हिंदू महासभा के अधिवेशन में अंग्रेज़ों की सेना में भर्ती के लिये जगह-जगह शिविर लगाने की बात कही और हज़ारों भारतीयों को अंग्रेज़ों की तरफ़ से लड़ने के लिए सेना में भर्ती करवाया गया। यह वही काल था जब सुभाष बोस भारत से भागकर यूरोप होते हुए जापान पहुँचे थे और युद्ध बंदियों की मदद से आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया था। सुभाष बोस की इस फ़ौज के गठन का एकमात्र मक़सद था अंग्रेज़ों से लड़ना और हराना।
सावरकर ने जिन भारतीयों को सेना में भर्ती कराया था वे सुभाष बोस की सेना से ही लड़ते। क्या इसे देशभक्ति कहना चाहिए? और क्या ऐसे शख़्स को भारत रत्न मिलना चाहिए?
इतिहास के आईने में सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दोषी हैं। मैं उनको देशद्रोही नहीं कहता और न ही उनकी देशभक्ति पर शक करता हूँ, जैसा कि आज के समय चलन है, लेकिन ‘भारत रत्न’ ऐसे शख़्स को मिलना चाहिए जिसका जीवन बेदाग़ हो, जिस पर उँगली न उठे। सावरकर के जीवन में कई ऐसे पहलू हैं जो उनकी देशभक्ति को शक के कठघरे में खड़ा कर देते हैं। और अगर इसके बावजूद मोदी सरकार और संघ परिवार इन्हें ‘भारत रत्न’ देने पर आमादा है तो फिर उसे सार्वजनिक स्तर पर घोषणा कर देनी चाहिए कि महात्मा गाँधी उनके आराध्य नहीं हैं। उनके आराध्य सावरकर हैं। सरकारी कार्यालयों में गाँधी की तसवीर हटाकर सावरकर की तसवीर लगा देनी चाहिए। और यह ढोंग ख़त्म कर देना चाहिए कि वे बापू को पूजते हैं और उन्हें राष्ट्रपिता मानते हैं। गाँधी और सावरकर दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। दोनों दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिल सकते। इसलिए दोनों को साथ लेकर चलने का स्वाँग बंद होना चाहिए।
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