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ममता बनर्जी अभी भी मोदी का विकल्प नहीं हैं!

तृणमूल कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टी के स्तर से निकाल कर राष्ट्रीय पार्टी बनाने की कोशिश में ममता बनर्जी हैं, पर क्या वे खुद नरेंद्र मोदी की जगह ले सकती हैं? इस संभावना को तलाशता यह लेख 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उसका अनुवाद। 
प्रभु चावला

कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक तमाम राष्ट्रीय दल हर चुनाव के पहले असंतुष्ट नेताओं और बड़े सपने देखने वाले छुटभैए नेताओं को अपनी ओर खींचते हैं। 

पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद ममता बनर्जी और हाल के उपचुनावों में प्रदर्शन के बाद कांग्रेस भगवा दल को चुनौती देने के लिए नेताओं और पार्टियों के गठबंधनों की तलाश में लग गई हैं। 

अखिलेश यादव जाति व समुदाय आधारित दलों को साथ लेकर समाजवादी पार्टी के पदचिह्न बढ़ाने में लगे हुए हैं। दीदी इस हमलावर झुंड की अगुआई कर रही हैं, स्थानीय नेताओं, अकादमिक जगत के लोगों और मनोरंजन करने वालों को झटकने का हाई वोल्टेज अभियान चला रही हैं ताकि अपने भौगोलिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व को स्वीकार्य बना सकें।

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टीएमसी मेघालय से लेकर महाराष्ट्र तक आसानी से पकड़े जाने वाले शिकारों की तलाश में निकल पड़ी है। ममता का मक़सद है- अपने आप को क्षेत्रीय छत्रप से राष्ट्रीय व्यक्तित्व में बदलना।

मायावती की कोशिश!

यह दूसरा मौका है जब एक क्षेत्रीय दल बीजेपी और कांग्रेस के बाद खुद तीसरा राष्ट्रीय दल बनने की गंभीर कोशिश कर रहा है। एक दशक पहले, एक और महिला मुख्यमंत्री मायावती ने दक्षिण समेत कई राज्यों में बीएसपी को चुनाव मैदान में उतार कर ऐसा ही करने की नाकाम कोशिश की थी। यह अभियान बुरी तरह नाकाम हुआ था। 

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मायावती, प्रमुख, बहुजन समाज पार्टी

अलग हैं दीदी!

एक बंगाली कहावत को मजाक में कहा जाए तो ममता बनर्जी के पास दूसरी तरह की मछलियों का भंडार है। उन्हें प्रोत्साहित करने वाले कहते हैं कि ममता मायावती की तरह दिल्ली और लखनऊ के महलनुमा आवासों में खुद को क़ैद कर नहीं रखती हैं। दीदी में राष्ट्रीय नेता बनने की सारी खूबियाँ हैं। तीन दशक तक जनादेश रहने और दो दशक से ज़्यादा के प्रसाशकीय अनुभव के बाद अब उन्हें लगता है कि वह समय आ गया है जब उन्हें पश्चिम बंगाल के आकाश के बाहर अपने डैने फैलाने चाहिए। 

ममता सड़क पर उतर कर लड़ने वाली योद्धा हैं, जिन्होंने बीजेपी और इसके अत्यधिक शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ संघर्ष कर खुद को स्थापित किया है।

ममता की छवि

वे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित लोगों और हस्तियों को अपने साथ लेने के अपने ही किताब के नियम को लागू कर रही हैं। वे कांग्रेस में उम्मीद खो चुके लोगों को अपने साथ कर रही हैं, जिन्हें लेकर उन्होंने 1998 में टीएमसी का गठन किया था। 

ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राष्ट्रीय स्तर पर नियुक्ति का अभियान छेड़ा था और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा को अपनी पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया था। मोदी की लगातार आलोचना करने वाले सिन्हा ने अकेले बलबूते हमला करने की हिम्मत रखने के लिए ममता की तारीफ की। उन्होंने कहा, "ममता हमेशा ही एक योद्धा रही हैं और आज भी हैं। जब इंडियन एअरलाइन्स की फ्लाइट का अपहरण कर लिया गया था और आतंकवादी जहाज को लेकर कंधार चले गए थे तो ममता ने खुद बंधक बनने की पेशकश की थी। वे जहाज़ में बंधक बना लिए गए लोगों की सुरक्षित वापसी के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने को तैयार थीं।" 

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यशवंत सिन्हा, पूर्व वित्त व विदेश मंत्री

दबंग प्रयास

बाद में बीजेपी के कई मझोले व छोटे स्तर के नेता टीएमसी में वापस लौट आए, जिनमें नव निर्वाचित विधायक भी थे। 

पिछले सप्ताह, मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा 17 में से 11 विधायकों को लेकर टीएमसी में शामिल हो गए और कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर यही सबसे विश्वसनीय दल है जो मेघालय, पूर्वोत्तर और शेष भारत के हितों की रक्षा कर सकता है। 

पार्टी बदलने का यह दूसरा दबंग प्रयास था। इसके पहले असम में युवा कांग्रेस की ताक़तवर नेता सुष्मिता देव टीएमसी में शामिल हुई थीं। उसके बाद गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री व बुजुर्ग कांग्रेस नेता लुज़ीनो फ़लीरो ने कांग्रेस छोड़ दी थी और टीएमसी में शामिल हो गए थे। तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा की सीट से पुरस्कृत किया था। फ़लीरो के बयान ने दीदी के विस्तारवादी रणनीति का असली मक़सद उजागर कर दिया था। उन्होंने कहा था, "मैंने कांग्रेस की विचारधारा और सिद्धांतों की रक्षा के लिए 40 साल तक काम किया। कांग्रेस अब शरद पवार की कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस में बिखर चुकी है।"

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पवन वर्मा, पूर्व राजनयिक

इसके अलावा अपना फ़ायदा देखने वाले कई लोग थे जिन्होंने कांग्रेस के इस उभरते हुए विकल्प से अपनी प्रतिबद्धता जताई, मसलन, पूर्व राजनयिक पवन वर्मा, टेनिस दिग्गज लिएंडर पेस और सिविल सेवा के कई लोग। इनमें से कुछ को महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ दी गईं। 

चाय की पत्तियाँ यह नहीं कहती हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर खुद को विश्वसनीय साबित करने की ममता की कोशिशें कम कामयाब होंगी। 

ऐसे में जब राष्ट्रीय राजनीति पहले से अधिक व्यक्तित्व आधारित हो गई है, भारत को एक ऐसे वैकल्पिक नेता की तलाश है जो बीजेपी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' बनाने के 'एक नेता, एक नारा, एक एजेंडा' से बेहतर राजनीति और शासन का मॉडल पेश कर सकता हो।

इंदिरा की तरह मोदी?

मोदी ने भारत के बड़े हिस्से में हर तरह के समुदाय व जाति से जुड़ी प्रतिबद्धताओं को छिन्न-भिन्न कर दिया है और खुद को हर जाति, हर समुदाय और हर तरह के लोगों के मसीहा के रूप में खुद को स्थापित कर लिया है। इंदिरा गांधी के अलावा किसी नेता को ऐसा राष्ट्रीय कद नहीं मिला। वे सिर्फ एक बार पराजित हुईं और वह भी अपनी हठवादिता, भ्रष्टाचार और आपातकाल की वजह से। 

यह इसलिए मुमकिन हुआ था कि विपक्ष को जय प्रकाश नारायण जैसा व्यक्ति मिला था जिसने धुर वामपंथी से लेकर आरएसएस जैसे कट्टर दक्षिणपंथी कांग्रेस विरोधियों को एकजुट कर दिया था। वे जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेताओं को भी कांग्रेस छोड़ने के लिए राजी कराने में कामयाब हुए थे। 

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इंदिरा गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री

जेपी के आन्दोलन ने इंदिरा गांधी का कोई विकल्प नहीं पेश किया था, बल्कि वे आम राय से सभी राजनीतिक दलों को लेकर चलने वाले व्यक्ति को लेकर आए थे। यह उन नेताओं के आंतरिक विरोधों, सनक और महात्वाकांक्षाओं की वजह से लंबे समय तक नहीं चल पाया था। 

राजीव गांधी

राजीव गांधी अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने और सबके चहेते बन कर उभरे, जिन्होंने लोकसभा की 400 से ज़्यादा सीटें जीत लीं। पर वे अपनी पार्टी को एकजुट रखने मे नाकाम रहे और उन पर भ्रष्टाचार का बड़ा बदनुमा दाग लगा। वे 1989 में नेहरू-गांधी परिवार के पहले ऐसे सदस्य बन गए जो दूसरी बार चुनाव नहीं जीत सके। 

इस बार भी यह इसलिए मुमकिन हुआ कि विपक्ष को वी. पी. सिंह जैसा नेता मिला जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी राजनीतिक दलों को मंजूर थे।

गठबंधन युग

चुनाव के पहले चेन्नई के मरीना बीच पर हुई बड़ी रैली में के. करुणानिधि, देवेगौड़ा, हर किशन सिंह सुरजीत, एन. टी. रामा राव, ज्योति बसु व लाल कृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गत नेता इसमें मौजूद थे और सबने उनका समर्थन किया था। इसके साथ ही गठबंधन का वास्तविक युग शुरू हुआ। 

पी. वी. नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार ने दलबदल और छोटी पार्टियों के विलय के बलबूते अपना कार्यकाल पूरा किया। कांग्रेस की जगह बीजेपी ने ली। अटल बिहारी वाजपेयी अपने करिश्माई व्यक्तित्व के कारण 20 छोटे दलों को एक साथ रख सके और अपन कार्यकाल पूरा कर लिया। इसके बावजूद उनकी पार्टी छोटे क्षेत्रीय दलों को उन्हें छोड़ कर जाने और भगवा दल के कुछ नेताओं के घमंड के कारण हार गई। 

ममता बनर्जी न तो जेपी हैं, न ही वीपी या अटल या सोनिया गांधी जो एक ऐसी राजनीतिक धुरी बन कर उभरीं, जिनके इर्दगिर्द 2004 में राष्ट्रीय विकल्प का नैरेटिव तैयार किया गया।

उनकी टीम अभी भी ऐसे नेताओं की तलाश में है जो मोदी को सत्ता से हटाने के लिए उनके पीछे चलने के तैयार हों न कि उनके साथ।  

उन्होंने आगे का रोडमैप बनाने के लिए सभी नेताओं से मुलाकात नहीं की है। ममता एक क्षेत्रीय सुप्रीमो हैं, जिन्हें अभी राष्ट्रीय स्तर पर सबको आकर्षित करने वाली ताक़त के रूप में उभरना बाकी है। सबसे बड़े राष्ट्रीय नेताओं में एक शरद पवार भी क्षेत्र होने का ठप्पा नहीं हटा सके हैं। दीदी के प्रचारक इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि अभी भी कांग्रेस ही वह ताक़त है जो लोकसभा चुनाव में 200 से ज़्यादा सीटों पर बीजेपी को सीधे टक्कर दे सकती है।

यदि बंगाल की यह शेरनी कुछ कांग्रेस नेताओं को अपनी ओर लाने में कामयाब भी होती हैं तो वह बीजेपी- विरोधी वोट ही बाँटेगी और इस तरह अपना ही नुक़सान कर बैठेंगी। बंगाल के बगैर ममता ज़्यादा से ज़्यादा देवेगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल की तरह ही हैं।

जब तक वह कांग्रेस को अपने साथ नहीं लाती हैं, अपनी क्षेत्रीय पार्टी को राष्ट्रीय ताक़त बनाने का उनकी बड़ी कोशिश फुस्स हो जाएगी। फ़िलहाल दीदी मोदी का न तो व्यक्तिगत न ही वैचारिक विकल्प हैं। अखिल भारतीय राजनीतिक परीक्षा में टॉप करने के लिए एमबीए (ममता बनर्जी अल्टरनेटिव) को अभी बहुत होमवर्क करना होगा।

सिर्फ 22 लोकसभी सीटों के सथ टीएमसी चौथी सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन टीएमसी और सबसे बड़ी पार्टी के बीच 270 से ज़्यादा सीटों का फासला है। लुटियन की दिल्ली के पास पहुँचने के लिए भी ममता को अभी मीलों चलना है। 

('द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' से साभार)
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