क्या यह तख्ता पलट की कोशिश थी, हथियारबंद विद्रोह था या सिर्फ़ हिंसक विरोध प्रदर्शन था? अमेरिका की सर्वोच्च विधायिका की इमारत कैपिटल हिल पर राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के समर्थकों के हमले के बाद अमेरिका में यह तकनीकी और क़ानूनी बहस शुरू हो गई है। जब सारे निर्वाचित सदस्य मिलकर हाल में संपन्न राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को स्वीकृति देनेवाले थे, उस वक़्त यह हमला किया गया। हमला करने वाले इमारत में घुस गए। पुलिस, नेशनल गार्ड उन्हें रोकना चाहते हों, ऐसा तस्वीरों से नहीं लगा। हमलावरों में एक घायल का उपचार करते हुए एक सुरक्षाकर्मी की तस्वीर तो है ही, इमारत में उन्हें घुस जाने से रोकने में उन्हें दिलचस्पी हो, ऐसा उनकी किसी मुद्रा से नहीं लगता। पुलिस और सुरक्षा गार्ड और हमलावर साथ-साथ सेल्फी लेते हुए देखे गए। लूटमार हुई। स्पीकर नैंसी पलोसी के कमरे में घुसकर उनकी कुर्सी पर बैठकर मेज पर पाँव चढ़ाए हमलावर दीख रहा है।
लोग हैरान हैं कि आख़िर यह हिंसक भीड़ कैपिटल तक चढ़ कैसे आई? उन्हें घुसने कैसे दिया गया? कुछ महीना पहले जब अश्वेत जनता का विरोध-प्रदर्शन शुरू हुआ तब तो पुलिस ने पूरी ताक़त से उसे कुचलने के लिए जो हो सकता था, किया था। और वह तब जब वह विरोध अहिंसक था जबकि इसमें हमलावर अस्त्र-शस्त्र से लैस थे। क्यों इस बार ढिलाई दिखलाई गई उसकी वजह जानना कोई मुश्किल नहीं। एक तो वह प्रदर्शन अश्वेत लोगों का था और यह श्वेत लोगों का। दूसरे, इस हमलावर भीड़ का अगुवा और इन्हें राजधानी में बुलानेवाला जब खुद राष्ट्रपति हो तो उसकी पुलिस क्या करे? वाशिंगटन डी. सी. की मेयर ने नेशनल गार्ड की माँग की, लेकिन राष्ट्रपति ने अनुमति नहीं दी।
हफ़्तों से इस हमले की तैयारी चल रही थी। इसमें शामिल होनेवालों ने अपना इरादा बार बार जाहिर किया था। हमलावरों को ख़ुद राष्ट्रपति ट्रम्प ने संबोधित किया और कहा कि यह भयंकर होने जा रहा है। पहले ट्रम्प ने कहा कि वह प्रदर्शन के साथ कैपिटल तक चलेंगे लेकिन फिर वह व्हाईट हाउस में बैठकर टेलीविज़न पर अपने समर्थकों की हिंसा देखते रहे।
ट्रम्प ने हिंसा आयोजित की, यह सब कह रहे रहे हैं। जब चुनाव नतीजे उनके ख़िलाफ़ जाने लगे तो उन्होंने शोर मचाना शुरू किया कि नतीजों में धांधली हुई है और वह इसे कबूल नहीं करेंगे। इन नतीजों को अवैध ठहराने की ट्रम्प की सारी कोशिश नाकामयाब रही।
अदालतों ने ट्रम्प के दावे को ठुकरा दिया। यहाँ तक कि ट्रम्प के दल के कई प्रमुख नेताओं ने ट्रम्प का साथ छोड़ दिया। तब ट्रम्प ने सीधे अपनी ‘जनता’ को उकसाकर वाशिंगटन में उसी दिन बुलाया जिस दिन कांग्रेस चुनाव के नतीजे पर मुहर लगानेवाली थी और कहा कि वे कांग्रेस को ऐसा करने से रोकें।
चार लोग मारे गए हैं। एक औरत भी। इन्हें एक महान उद्देश्य के रास्ते में शहीद बताया जा रहा है। इन्हें गौरवान्वित किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ उदारचेता अमेरिकी इस हमले के बारे में कह रहे हैं कि ‘यह अमेरिका नहीं है।’ लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जो कह रहे हैं कि इसे स्वीकार करना चाहिए कि यही अमेरिका है। ट्रम्प की बात सुननेवालों की तादाद नए राष्ट्रपति के समर्थकों से थोड़ी ही कम है। और वह हिंसक भी है। इसलिए इस यथार्थ को झुठलाने से कोई लाभ नहीं। ख़ुद नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि इस घटना से सबक़ लेना चाहिए कि जनतंत्र नाजुक होता है। हमेशा ही उसका ध्यान रखना पड़ता है।
एक समझ यह थी कि भले ही ट्रम्प की राजनीति उकसावेबाज़ी की है, नौबत हिंसा तक नहीं आएगी। लेकिन दुनिया का इतिहास गवाह है कि हिंसा और घृणा का प्रचार वास्तविक हिंसा में बदलता ही है। अमेरिका ट्रम्प से अगर बच निकला है तो इस कारण कि अमेरिका में यह समझनेवाले भी थे कि ट्रम्प का अर्थ है सभ्यता का विनाश। दूसरे, अमेरिका की संस्थाएँ अपनी भूमिका के प्रति सजग थीं। मीडिया ने भी ट्रम्प के झूठ और धोखाधड़ी की आलोचना मंद नहीं पड़ने दी। यह लिहाज नहीं किया गया कि ट्रम्प राष्ट्रपति हैं और उनपर उँगली नहीं उठनी चाहिए।
अमेरिका के समाज में ट्रम्प जैसे किसी तत्त्व के दुबारा उभर आने के सारे कारण मौजूद हैं। नस्लवाद ज़िंदा है और पहले से कहीं अधिक आक्रामक है। उसे सांस्थानिक संरक्षण भी प्राप्त है। जितने इत्मीनान से हिंसक भीड़ को कैपिटल में घुसने दिया गया, उससे आगे के वक़्त को लेकर आश्वस्ति नहीं होती। दूसरे, राजनीति में अब हिंसा का इस्तेमाल भी स्वीकार्य होता जा रहा है। तीसरे, जैसा अध्येताओं का कहना है ऑनलाइन दुष्प्रचार षड्यंत्रवादी सिद्धांतों का नतीजा वास्तविक, ऑफ़लाइन दुनिया में होता ही है।
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क्यू एनॉन जैसे विकेन्द्रित और हिंसक आन्दोलन अमरीका पर एक काल्पनिक षड्यंत्र का प्रचार कर रहे हैं और ट्रम्प को उद्धारक के रूप में पेश कर रहे हैं। ट्रम्प के सत्तासीन होने के बाद इसे माननेवालों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। अगर आपने कैपिटल पर हमला करनेवालों की तस्वीरें देखी हों तो उनमें विचित्र वेशभूषा धारी लोग दीखेंगे जिन्होंने जानवरों का बाना बना रखा है। हालाँकि अब सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म इनके प्रचार को रोक रहे हैं लेकिन अमेरिका के पहले संशोधन का लाभ उठाकर ये अपना प्रचार जारी रखे हुए हैं। इन सबने अमेरिकियों के एक बड़े तबक़े को किसी अज्ञात की आशंका में हिंसक जमात में बदल दिया है। उसी का एक हिस्सा परसों के कैपिटल के हमलावरों में शामिल था।
इस घटनाक्रम पर दुनिया के लगभग सारे देशों ने चिंता जाहिर की है। तकरीबन सारे धुर दक्षिणपंथी दलों और नेताओं ने भी इस हिंसा को ग़लत बताया है। यहाँ तक कि भारत के प्रधानमंत्री ने भी इसपर चिंता जाहिर की है। वही प्रधानमंत्री जिन्होंने सारी राजनयिक शालीनता को ताक पर रखकर ट्रम्प का अमेरिका और भारत में चुनाव-प्रचार किया था। यह भारत के लिए अपमानजनक था कि उसका प्रधानमंत्री किसी दूसरे देश के एक नेता का चुनाव प्रचारक हो।
कैपिटल पर हिंसक हमले से कुछ भारतीयों को बाबरी मसजिद पर भीड़ का हमला याद आ गया। वह तुलना ग़लत है, यह भी दूसरों ने बतलाया। कैपिटल पर हमला हो सकता है एक ही बार की घटना हो, लेकिन बाबरी मसजिद पर हमला एक प्रक्रिया थी जो 1949 में शुरू हुई थी और आजतक जारी है।
बाबरी मसजिद के हमले में शामिल लोग केंद्र सरकार के सबसे ऊँचे पदों तक पहुँचे। उस हमले को प्रकारांतर से सर्वोच्च न्यायालय ने वैधता दी।
बाबरी मसजिद ध्वंस के अपराधियों को न्यायिक और जनतांत्रिक पुरस्कार मिलने के बाद अब वह पूरे देश में एक मॉडल बन गया है। जगह जगह भीड़ इकट्ठा करके मसजिदों पर चढ़ जाना, उन्हें तोड़ना फोड़ना अब आम बात हो चुकी है। इसे अपराध नहीं, मनबहलाव मान लिया गया है।
अमेरिका और भारत में फ़र्क़ है। अमेरिका के सभ्य समाज ने ट्रम्प को स्वीकार नहीं किया। भारत के सभ्य समाज ने नरेंद्र मोदी को सर आँखों पर बिठाया। अमेरिका में लगातार सावधान किया गया कि हिंसक भीड़ और ट्रम्प में फ़र्क़ नहीं है, भारत में कहा गया कि बेचारे नेता की बात उसके अनुयायी नहीं सुन रहे। दूसरा फ़र्क़ शैली का था। अमेरिका की शैली मुँहफट लफ्फाजी की थी। भारत में ज़्यादा शातिराना तरीक़े से द्वियर्थक भाषा का प्रयोग किया गया जिसके असली मायने उसके शब्दों से अलग किए जा सकते थे। अमेरिका में ट्रम्प के झूठ को झूठ कहा गया, भारत में कहा गया कि नेता के इरादे तो नेक हैं। दूसरे शब्दों में अमेरिका के सारे संस्थानों ने, मीडिया ने ट्रम्प की राजनीति को अस्वीकार्य बनाने के लिए मेहनत में कसर नहीं छोड़ी लेकिन भारत में इसे स्वीकार्य मान लिया गया।
कैपिटल पर हमले जैसी एक नजीर भारत में है। 7 नवंबर, 1966 को भारतीय संसद पर एक हिंसक भीड़ ने हमला कर दिया था।
गो हत्या को अपराध ठहराने का क़ानून पारित करने के लिए संसद को बाध्य करने के लिए यह हमला किया गया था, कहने को यह भीड़ साधुओं की थी लेकिन यह पूरी तरह से दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा संगठित थी। करोड़ों की संपत्ति बर्बाद कर दी गई थी। मंत्रियों के घर तोड़ डाले गए और भारी हिंसा हुई। भीड़ ने एक पुलिसवाले को पीट पीटकर मार डाला था।
वाजपेयी जनसंघ के बड़े नेता थे, बाद में भारतीय जनता पार्टी के हुए। फिर वह प्रधानमंत्री बने। जिस भीड़ ने 55 साल पहले भारतीय संसद पर हमला किया था, उसके उत्तराधिकारियों ने बाबरी मसजिद तोड़ डाली। फिर वे सरकार में पहुँचे। अमेरिका में जबकि ट्रम्प पर महाभियोग की तैयारी शुरू हो गई है। यह फ़र्क़ है आज के भारत और अमेरिका में।
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