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क्या भारतीय गणतंत्र पूरी तरह से असफल हो गया? 

देश के मौजूदा तनाव भरे माहौल के बीच अपने गणतंत्र के 71 वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यही हो सकती है कि क्या वाकई तंत्र और गण के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आज़ादी और फिर संविधान के पीछे मूल भावना तो यही थी। आज़ादी मिलने से पहले महात्मा गाँधी ने इस संदर्भ में कहा था -

 “मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उसका योगदान है और उसकी आवाज़ का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जो स्त्री-पुरुष के बीच समानता की बात करेगा और जिसमें नशे जैसी बुराइयों को ख़त्म करने की बात होगी।” 

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दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल्यांकन की यही सबसे बड़ी कसौटी हो सकती है। भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं, उनमें भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वह बिल्कुल महात्मा गाँधी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य नायकों के विचारों का दिग्दर्शन कराता है। लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर कल्पित तथा मौजूदा साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि राज्यों का आचरण कुछ नीति-निर्देशक तत्वों के विपरीत है। मसलन, प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह करना चाहिए था जिसमें स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहता और किसी का एकाधिकार न होता तथा गांवों को धीरे-धीरे स्वावलंबन की ओर अग्रसर किया जाता। 

लेकिन हम गणतंत्र की 70वीं सालगिरह मनाते हुए देख सकते हैं कि जल, जंगल, जमीन आदि तमाम प्राकृतिक संसाधनों से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे ख़त्म हो गया और सत्ता में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों से साठगांठ कर औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं...और यह सब राज्य यानी सरकारों की नीतियों के कारण हो रहा है। 
बेशक हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि आज़ाद भारत का पहला बजट 193 करोड़ रुपये का था और 2019-20 का बजट क़रीब 27,84,000 करोड़ रुपये का है। एक देश के तौर पर यह हमारी असाधारण उपलब्धि है।

1947 में देश की औसत आयु 32 वर्ष थी, अब यह 68 वर्ष हो गई है। उस समय पैदा होने वाले 1000 शिशुओं में से 137 तत्काल मर जाते थे। आज केवल 53 मरते हैं। उस समय साक्षरता दर करीब 18 फीसदी थी जो आज 68 फीसदी से ज्यादा है। परमाणु और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी कई कामयाबियां हमारे खाते में दर्ज हैं।

एक समय दुनिया के जो देश भारत को दीन-हीन मानते थे, अब वे ही इसे भविष्य की महाशक्ति मानकर इसके साथ बेहतर संबंध बनाने में गर्व महसूस करते हैं। यह सब फौरी तौर पर तो हमारे गणतंत्र की सफलता का प्रमाण है। लेकिन जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गणतांत्रिक भारत का हमारा लक्ष्य क्या था तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे गहरा स्याह अंधेरा नजर आता है।  

भयावह भ्रष्टाचार, भूख से मरते लोग, पानी को तरसते खेत, काम की तलाश करते करोड़ों हाथ, देश के विभिन्न इलाक़ों में सामाजिक और जातीय टकराव के चलते गृहयुद्ध जैसे बनते हालात, बेकाबू क़ानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध की स्थिति हमारे गणतंत्र की सफलता को मुंह चिढ़ाती है।

फिर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि भारत में गणतंत्र पूरी तरह असफल हो गया। असल समस्या कहीं और है। 

पीछे छूट गए गांव 

दरअसल, भारत का गणतंत्र शहरों तक सिमट कर रह गया है और शहरी लोगों के पास कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है। इसीलिए उन्होंने गांवों से नाता तोड़ लिया है। सरकार को किसानों की चिंता हरित क्रांति तक ही थी, ताकि अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हो जाए। उसके बाद गांवों और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले कर दिया गया। यही वजह है कि पिछले दो दशक में पांच लाख से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या कर लेने पर भी हमारा गणतंत्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। इस लिहाज से कह सकते हैं कि हमारा गणतंत्र शहरों में तो अपेक्षाकृत सफल हुआ है पर गांवों को विकास की धारा में शामिल करने में पूरी तरह विफल रहा। 

इस कमी को दूर करने के लिए पंचायती राज प्रणाली लागू की गई, मगर ग्रामीण इलाक़ों में निवेश नहीं बढ़ने से पंचायतें भी गांवों को कितना खुशहाल बना सकती हैं? इन्हीं सब कारणों के चलते हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गांव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अति परावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए। 

गांव के लोगों को सामान्य जीवनयापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है। गांवों का क्षेत्रफल कितनी तेजी से सिकुड़ रहा है, इसका प्रमाण 2011 की जनगणना है। इसमें पहली बार गांवों की तुलना में शहरों की आबादी बढ़ने की गति अब तक हुई जनगणनाओं में सबसे ज्यादा है। 

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गण और तंत्र के बीच फ़ासला बढ़ा

शहरों की आबादी 2001 के 27.81 फीसदी से बढ़कर 2011 की जनगणना के मुताबिक़ 31.16 फीसदी हो गई जबकि गांवों की आबादी 72.19 फीसदी से घटकर 68.84 फीसदी हो गई। 2021 में जो जनगणना होगी उसमें तो यह अंतर और भी ज्यादा बढ़कर सामने आना तय है। इस प्रकार गांवों की कब्रगाह पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संविधान की मूल भावना के एकदम विपरीत है। हमारा संविधान कहीं भी देहाती आबादी को ख़त्म करने की बात नहीं करता, पर हमारी आर्थिक नीतियां वही भूमिका निभा रही हैं और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है। 

हाल ही केंद्र सरकार ने जो विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून संसद से पारित कराया है और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने का इरादा जताया है, उससे समाज के विभिन्न तबक़ों में आक्रोश है। पूरे देश में तनाव और डर का माहौल बना हुआ है।
भारतीय गणतंत्र की मुकम्मल कामयाबी की एकमात्र शर्त यही है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले तबक़े की अस्मिता और संवेदनाओं की कद्र की जाए। आख़िर जो तबक़े हर तरह से वंचित होने के बाद भी शेषनाग की तरह भारत को टिकाए हुए हैं, उनकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या कोई गणतंत्र मजबूत और सफल हो सकता है? जो समाज स्थायी तौर पर विभाजित, निराश और नाराज हो, वह कैसे एक सफल राष्ट्र बन सकता है?
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अनिल जैन

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