जगदीश शेट्टार
कांग्रेस - हुबली-धारवाड़-मध्य
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काँग्रेस पार्टी के नेता और सरपंच अजय पंडिता की निर्मम हत्या के बाद एक बार फिर से कश्मीरी पंडितों के नाम पर की जाने वाली सियासत तेज़ हो गई है। ज़ाहिर है कि ये हिंदू बनाम मुसलमान की सियासत है, भारत बनाम पाकिस्तान की सियासत है और इसमें नफ़रत तथा हिंसा कूट-कूटकर भरी जा रही है। और ये भी तब है जबकि केंद्र और राज्य दोनों जगह ऐसी सरकार का नियंत्रण है, जो खुद को हिंदुओं का अकेला ठेकेदार मानती है।
ज़ाहिर है कि गोदी मीडिया उसके सुर में सुर मिला रहा है। वह इंसाफ़ मांग रहा है मगर पता नहीं किससे। सरकार तो उसी की है। कायदे से उसे सवाल पूछना चाहिए कि सरकार कर क्या रही है, वह गाल ही बजाती रहेगी या कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ करेगी भी। लेकिन सवाल पूछने की उनकी आदत नहीं है और न ही हिम्मत है। वह तो सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की फैक्ट्री है और यही काम वह कर रहा है।
सच्चाई ये है कि अजय पंडिता जम्मू-कश्मीर के अट्ठारहवें सरपंच हैं जिनकी पिछले कुछ सालों में आतंकवादियों ने हत्या कर दी है। पिछले साल 26 नवंबर को सरपंच पीर मोहम्मद रफ़ीक़ को मार डाला गया था। जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्ज़ा छीने जाने के बाद ये दूसरे सरपंच की हत्या थी। रफ़ीक़ भी पंडिता की ही तरह काँग्रेस पार्टी के ही नेता थे।
कश्मीरी पंडितों का ज़िक्र आते ही बहुत से लोग हर घटना को तुरंत हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखने लगते हैं। अजय पंडिता की हत्या के बाद भी यही हुआ।
फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत ने तो इसे फौरन जिहादियों से जोड़कर सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश शुरू कर दी। बहुत से लोग जो कश्मीर की सियासत को नहीं समझते और हिंदुत्ववादी एजेंडे से प्रेरित होते हैं, वे इसी तरह से प्रतिक्रिया कर रहे हैं।
पंडिता की बेटियों ने कहा है कि उनके पिता पहले भारतीय थे। वे चाहते थे कि मरने के बाद भी उन्हें भारतीय के रूप में ही जाना जाए इसीलिए उन्होंने अपना नाम अजय भारती रख लिया था। मगर जिनके दिलो-दिमाग़ पर सांप्रदायिकता का ज़हर भरा हुआ है, वे यही कहे जा रहे हैं कि वे पंडित थे और उन्हें मुसलमानों ने मारा है।
तो, पहली बात तो ये समझ लेनी चाहिए कि ये मामला हिंदू-मुसलमान का कतई नहीं है। अलगाववादी संगठनों ने उन सभी को निशाना बना रखा है जो उनके साथ नहीं हैं, वे चाहे किसी भी धर्म के हों। वैसे भी आतंकवादियों की गोलियों से शिकार होने वालों में हिंदुओं की तुलना में मुसलमान ज़्यादा हैं।
दरअसल, अजय पंडिता की हत्या राजनीतिक हत्या है। अलगाववादी कतई नहीं चाहते कि सूबे में लोकतंत्र फले-फूले इसलिए वे सरपंचों की हत्याएं कर रहे हैं ताकि उनमें आतंक फैल जाए। ये सिलसिला पिछले कई सालों से चल रहा है। मगर 5 अगस्त को धारा 370 हटाए जाने के बाद ये तेज़ हो गया है।
दूसरी बात ये है कि अजय पंडिता ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन से सुरक्षा माँगी थी, मगर उन्हें नहीं दी गई। उन्होंने एक टीवी चैनल से कहा भी था, ‘उपराज्यपाल को तो ये भी पता नहीं होगा कि अजय भारती कौन है और उसे क्या ख़तरा है। हम लोगों को लूटा जाएगा, हम मर जाएंगे मगर वे यही कहेंगे कि कश्मीर में सब अच्छा है।’
सबको पता है कि कश्मीर में जिस तरह के हालात हैं उनमें हर सरपंच की जान ख़तरे में है। केंद्र सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए था, मगर उसने पंडिता को अलगाववादियों के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया था।
पंडिता को तो धमकियाँ मिल रही थीं इसलिए उन्होंने सुरक्षा की माँग की थी। अब यदि उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई तो उनकी हत्या के लिए सरकार भी उतनी ही ज़िम्मेदार है जितने कि दहशतगर्द।
यहां ये भी देखने की बात है कि बीजेपी के नेताओं और सरपंचों को पूरी सुरक्षा दी जा रही है जबकि काँग्रेस और दूसरी पार्टी के नेताओं को न तो सुरक्षा दी जा रही है बल्कि जिन्हें दी गई थी, उनसे वापस भी ले ली जा रही है। यानी साफ़ तौर पर दूसरी पार्टी के नेताओं को मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है।
नाना जी वत्तल कश्मीरी पंडित हैं और वे भी सरपंच हैं। पिछले दस बरस से उनके पास एक गार्ड था मगर बीजेपी सरकार ने उसे वापस ले लिया। ज़ाहिर है कि वत्तल काँग्रेस पार्टी से ताल्लुक रखते है इसलिए उनका कहना है कि पंडिता को इसलिए नहीं मारा गया कि वे पंडित थे, बल्कि हर उस सरपंच को मारा जा रहा है जो राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के लिए लड़ रहा है।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि पंडिता हिंदू-मुसलमान की राजनीति नहीं करते थे। वे कश्मीरी संस्कृति की उस धारा का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसमें दोनों कौम मिलकर रहती हैं। इसीलिए 1989 में जब कश्मीरियों का क़त्लेआम शुरू हुआ तो पलायन करने वाले कश्मीरियों के साथ पहले तो वे भी जम्मू आ गए थे, मगर 1996 में उनका परिवार वापस लौट गया और तब से वहीं रह रहा है।
1989 में कश्मीरियों को तब भागना पड़ा जब वहाँ के राज्यपाल जगमोहन थे। उस दौरान करीब दो सौ कश्मीरी पंडितों को मार डाला गया था। जगमोहन बाद में बीजेपी में शामिल हो गए और वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने। माना जाता है कि कश्मीरियों के पलायन में उनकी भी भूमिका थी। उन्होंने कश्मीरियों को सुरक्षा देने के बजाय उन्हें भाग जाने के लिए उकसाया था।
कश्मीरी पंडितों का दुख-दर्द राष्ट्रीय चिंता और शर्म का विषय है। मगर इससे भी ज़्यादा शर्मनाक है उनके नाम पर की जाने वाली सांप्रदायिक राजनीति। बीजेपी इसमें अव्वल रही है। उसने उनकी पीड़ा पर राजनीति की और हिंदुओं की भावनाएं भड़काने का काम भी किया मगर उनके लिए किया कुछ नहीं।
पंडितों के कश्मीर से पलायन के बाद से बीजेपी सबसे अधिक समय तक सत्ता में रहने वाली पार्टी है। वाजपेयी और मोदी कुल मिलाकर बारह साल राज कर चुके हैं, मगर उन्होंने पंडितों के पुनर्वास और सुरक्षा के लिए कुछ नहीं किया, हाँ उनके नाम पर भावनाएं भड़काने का कोई मौक़ा बीजेपी चूकी नहीं है।
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