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‘आत्मनिर्भर’ मानवीय त्रासदी: शोक गीत के बजाए उपलब्धियों का गौरव गान!

इस बात का विश्लेषण होना अभी बाक़ी है कि केवल पंद्रह दिनों के बीच ही ऐसा क्या हो गया कि देश के चश्मे की फ़्रेम भी बदल गयी और फ़ोकस भी बदल गया। हम वैसे तो पहले से ही स्वदेशी थे पर इस बार ‘विदेशी’ से ‘स्वदेशी’ हो गए। ‘आडी’ से ‘खादी’ पर उतर आए।
श्रवण गर्ग

लाखों की संख्या में जो मज़दूर इस समय गर्मी की चिलचिलाती धूप में भूख-प्यास झेलते हुए अपने घरों को लौटने के लिए हज़ारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं उन्हें शायद बहुत पहले ही ईश्वरीय संदेश प्राप्त हो चुका होगा कि आगे चलकर समूचे देश को ही आत्म-निर्भर होने के लिए कह दिया जाएगा। शायद इसीलिए उन्होंने केवल अपने अंतःकरण की आवाज़ पर भरोसा किया और निकल पड़े। वे मज़दूर जान गए थे कि सरकारें तो उनकी कोई मदद नहीं ही करने वाली हैं, जो जनता उनकी सहायता के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाना चाहती है उसे भी घरों में तब तक बंद रखा जाएगा जब तक कि वे अपने ठिकानों पर नहीं पहुँच जाते। वरना तो और ज़्यादा दुख भरी कहानियाँ उजागर हो जाएँगी।

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अब ‘आत्म-निर्भरता’ देश का नया नारा है। ‘मेक इन इंडिया’ अंग्रेज़ी में था यह देसी भाषा में है। इंदिरा गाँधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा दिया था और देश ज़्यादा ग़रीब हो गया। नए नारे के अंत को लेकर भयभीत हुआ जा सकता है कि कहीं लोग अब छोटी-छोटी बात के लिए भी सरकार को ही भगवान नहीं मानने लगें। वैसे आत्म-निर्भरता की शुरुआत तो हो चुकी थी पर केवल ‘पॉज़िटिव’ लोग ही उसे भाँप पाए। समझाया जाने लगा था कि अधिकतर लोगों को अपना इलाज अब घरों में ही करना पड़ेगा। मरीज़ों की तुलना में अस्पताल धीरे-धीरे और छोटे पड़ते जा सकते हैं। 

गिनाने की ज़रूरत नहीं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्या हाल हैं! ढाई महीनों में डॉक्टर, पुलिस और स्वास्थ्यकर्मी कितना थक चुके हैं। बीमारी अगर साल-छह महीने और चली तो क्या हाल बनेंगे! अगर फिर भी कहा जा रहा है कि स्थिति नियंत्रण में है और लड़ाई हम शीघ्र ही जीत लेंगे तो उस पर भी यक़ीन किया जाना चाहिए।

सवाल यह है कि वे लोग जो हमसे कहीं ज़्यादा परेशान हैं, बेरोज़गारी और भूख से मरने के डर से अपने बच्चों को सीनों से चिपटाए हुए हैं, उन्हें कौन और कैसे समझाएगा कि बीस लाख करोड़ रुपए वास्तव में कितने होते हैं, दो के अंक के बाद कितने शून्य लगाने पड़ते हैं और कि क्या वे किसी मदद के लिए शून्य में ताकते हुए ही दम तोड़ देंगे या उनके पल्ले भी कुछ पड़ेगा? 

विडम्बना यह भी है कि इस भयानक मानवीय त्रासदी पर कोई शोक गीत लिखने के बजाय उपलब्धियों की गौरव गाथाओं का सार्वजनिक पारायण किया जा रहा है और तालियाँ बजाने वाले ‘जमाती’ दिलासा दे रहे हैं कि -धैर्य रखिए, बस थोड़े दिनों की ही बात है, सब कुछ ठीक हो जाएगा।

इस बात का विश्लेषण होना अभी बाक़ी है कि केवल पंद्रह दिनों के बीच ही ऐसा क्या हो गया कि देश के चश्मे की फ़्रेम भी बदल गयी और फ़ोकस भी बदल गया। हम वैसे तो पहले से ही स्वदेशी थे पर इस बार ‘विदेशी’ से ‘स्वदेशी’ हो गए। ‘आडी’ से ‘खादी’ पर उतर आए। सत्ताईस अप्रैल को मुख्यमंत्रियों के साथ हुई अपनी वीडियो बातचीत में प्रधानमंत्री ने कहा बताते हैं कि विदेशी कम्पनियाँ चीन से बाहर निकल रही हैं अतः राज्यों को अपनी विस्तृत योजनाएँ बनाकर उन्हें अपने यहाँ पूँजी निवेश के लिए प्रेरित करना चाहिए। क्या चीन से निकलने वाली कम्पनियों ने भारत को अपना ठिकाना बनाने से इनकार कर दिया और वे ताइवान, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया आदि देशों के लिए रवाना हो रही हैं? क्या देश की आर्थिक नीतियों में कोई बड़ा शिफ़्ट किया जा रहा है जिसकी जानकारी चुने हुए सांसदों तक पहुँचना अभी बाक़ी है?

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मुख्यमंत्रियों के साथ सोमवार को दिन में हुई प्रधानमंत्री की बातचीत में चीन से बाहर निकलनेवाली कम्पनियों का (सम्भवतः) कोई ज़िक्र नहीं किया गया और मंगलवार रात को जनता के नाम सम्बोधन में देश के लिए नए नारे की घोषणा कर दी गई। प्रधानमंत्री ने बताया कि जो दूसरों के वश में होता है वह दुःख और जो अपने वश में होता है वह सुख होता है। इसका यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि भारत ने अपने सुख के लिए विदेशों पर निर्भरता अब ख़त्म कर दी है। अब हमें ही सब कुछ करना है जिसमें कि वैक्सीन का विकास भी शामिल है। कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी दैनिक ‘द टेलीग्राफ़’ ने लिखा है कि प्रधानमंत्री के सम्बोधन की समाप्ति के साथ ही यह ख़बर भी आई कि उस इक्कीस वर्षीय प्रवासी मज़दूर की तीन सौ किलोमीटर चलने के बाद मौत हो गई जो रविवार को हैदराबाद से अपने गृह-स्थान मल्कानगिरि (ओडिशा) के लिए पैदल निकला था।
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