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नोटबंदी की तरह लॉकडाउन! वही अचानक घोषणा, अफवाह और अफरा-तफरी

मानसून के दौरान भारी वर्षा से ऊँचे बाँधों के जलाशयों में पानी का स्तर पहले तो ख़तरे के निशान तक पहुँचने दिया जाता है और फिर बिना इस बात की चिंता किए कि उससे और कितनी तबाही होगी सारे गेट एक साथ खोल दिए जाते हैं। कल्पना ही की जा सकती है कि तीन मई के बाद अगर मानवीय कष्टों से लबालब बाँधों के जलाशयों के दरवाज़े एकसाथ खोलने पड़ गए तो क्या होगा! 
श्रवण गर्ग

मुंबई के बांद्रा इलाक़े में जमा हुई भीड़ का मामला हाल-फ़िलहाल के लिए सुलझा लिया गया लगता है। प्रवासी मज़दूरों को ढेर सारे आश्वासनों के साथ उनके ‘दड़बों’ में वापस भेज दिया गया है। कथित तौर पर अफ़वाहें फैलाकर भीड़ जमा करने के आरोप में एनसीपी के एक नेता के साथ एक टीवी पत्रकार को भी आरोपी बनाया गया है। एक हज़ार अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ भी एफ़आईआर दर्ज की गई है। मज़दूरों के लिए ट्रेन चलाने को लेकर पैदा की गई भ्रम की स्थिति से रेल मंत्रालय ने ख़ुद को बरी कर लिया है। क्या मान लिया जाए कि अब सबकुछ सामान्य हो गया है और फडणवीस को भी कोई शिकायत नहीं बची है?

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मुंबई या देश के दूसरे स्थानों पर जो कुछ भी हुआ वह क्या नोटबंदी को लेकर अचानक की गई घोषणा और उसके बाद चली अफ़वाहों के कारण मची अफ़रा-तफ़री से अलग है? क्या प्रवासी मज़दूरों के चेहरे उस भीड़ से अलग हैं जो रात से ही बैंकों के बाहर जमा हो जाती थी और उसे भी इसी तरह बलपूर्वक खदेड़ा जाता था? मुंबई में जिस नेता को उसके सोशल मीडिया पोस्ट ‘चलो, घर की ओर’ के ज़रिए भीड़ जमा करने का आरोपी बनाया गया है उसे यह कहते हुए बताया गया है कि मज़दूर अगर कोरोना से नहीं मरे तो भूख से मर जाएँगे। बीस अप्रैल के बाद कुछ क्षेत्रों में लॉकडाउन से आंशिक छूट देने के जो दिशा-निर्देश जारी हुए हैं उनमें प्रवासी मज़दूरों की ‘घर वापसी’ को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है।

सरकारें निश्चित ही अपने सारे फ़ैसले छोटे और बड़े नुक़सान के बीच का तुलनात्मक अध्ययन करके ही करती होंगी। एक प्रभावशाली परिवार को लॉकडाउन/कर्फ़्यू के दौरान खंडाला में किराए के आवास से महाबलेश्वर स्थित अपने पुश्तैनी घर की यात्रा करने की महाराष्ट्र सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से अनुमति प्रदान कर दी गई। सम्बंधित अधिकारी को अब सरकार ने घर बैठा दिया है और मामले की जाँच जारी है। प्रवासी मज़दूर भी तो किराए के दड़बों से पुश्तैनी घरों को लौटना माँग रहे हैं!

हमारे यहाँ भीड़ की ‘ज़रूरत’ को लेकर अलग-अलग और अलिखित प्रावधान हैं। मसलन, इस समय इस भीड़ का व्यवस्था की ज़रूरत में अलग रोल है। ज़रूरत के हिसाब से इसी भीड़ को धर्मों और सम्प्रदायों में भी बाँटा जा सकता है। ऐसी कोई तात्कालिक ज़रूरत नहीं है क्योंकि प्राथमिकताएँ अभी अलग हैं। कोरोना संकट के बाद ज़रूरत के मुताबिक़ प्राथमिकताएँ बदल भी सकती हैं।

भारत इस समय दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में है। इस लॉकडाउन में यह जो असंगठित मज़दूरों का सैलाब है वह एक अलग जनसंख्या बन गया है।

वे तमाम लोग जिन्होंने सरकार का अनुशासन मानते हुए अपने आपको घरों तक सीमित किया हुआ है, वह इस समय उनसे अलग जनसंख्या है। अगर लॉकडाउन की अवधि को और भी आगे बढ़ा दिया जाए तब भी यह जनसंख्या पूरी तरह से सहयोग करने को तैयार है। अपने आपको कोरोना से बचाने में जुटी यह जनसंख्या देश की ही अपने से भी बड़ी उस जनसंख्या से डरी हुई है जो मृत्यु को एक आशंका और भूख को निश्चितता मानकर उससे बचने के विकल्प तलाश कर रही है। इसी जनसंख्या की याददाश्त के बारे में माना जाता है कि उसे कमज़ोर भी किया जा सकता है।

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मानसून के दौरान भारी वर्षा से ऊँचे बाँधों के जलाशयों में पानी का स्तर पहले तो ख़तरे के निशान तक पहुँचने दिया जाता है और फिर बिना इस बात की चिंता किए कि उससे और कितनी तबाही होगी सारे गेट एक साथ खोल दिए जाते हैं। नर्मदा घाटी के लोग इस त्रासदी को और ज़्यादा अच्छे से बता सकते हैं। कल्पना ही की जा सकती है कि तीन मई के बाद अगर मानवीय कष्टों से लबालब बाँधों के जलाशयों के दरवाज़े एकसाथ खोलने पड़ गए तो क्या होगा! जून भी दूर नहीं है। कहा जा रहा है कि इस बार मानसून भी ठीक ही होने वाला है।
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