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कोरोना संकट ने खोल दी पीएम मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ की पोल!

कोरोना के बढ़ते प्रकोप ने गुजरात के विकास की पोल खोलकर रख दी है। गुजरात मॉडल का बहुत ढोल पीटा गया था, मगर इस महामारी ने बता दिया है कि दरअसल गुजरात का विकास काग़ज़ों पर हुआ होगा और अगर कुछ हुआ भी है तो उसका फ़ायदा वहाँ के आम लोगों को नहीं मिला।

गुजरात में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खस्ता होने के कारण ही कोरोना वायरस का संक्रमण बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। अब चार ज़िलों को छोड़कर सभी ज़िलों में कोरोना के मरीज़ मिल चुके हैं। संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में वह महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर पर पहुँच गया है। प्रदेश में जिस रफ़्तार से संक्रमण फैल रहा है और मौंतों की जो दर है, उससे कहा जा रहा है कि वह कोरोना का एपिसेंटर यानी मुख्य केंद्र बन सकता है। देश में कोरोना से क़रीब एक तिहाई मौतें गुजरात में हो रही हैं।

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ध्यान रहे कि महाराष्ट्र में कोरोना फैलने की रफ़्तार में पिछले दिनों कमी आई है, जबकि गुजरात में उल्टा हो रहा है। इसीलिए वह दिल्ली को पछाड़कर दूसरे नंबर पर पहुँच गया है। 

अभी तक के आँकड़े कहते हैं कि गुजरात में कोरोना से संक्रमित 2600 से ज़्यादा मरीज़ मिल चुके हैं। राज्य में अब तक 112 लोगों की कोरोना से मौत भी हो चुकी है। बता दें कि यह हालत तब है जब राज्य में टेस्टिंग बहुत कम हुई है और उसकी भी गति सुस्त है। इसलिए आशंका है कि आने वाले दिनों में हालात और तेज़ी से बिगड़ सकते हैं। 

दरअसल, अव्वल तो गुजरात सरकार ने बहुत देर से कोरोना के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाला। लॉकडाउन की घोषणा के बाद उसकी नींद खुली। तब तक अहमदाबाद और सूरत में संक्रमण फैलना शुरू हो चुका था। फिर इस तरह के संकट से निपटने की उसकी कोई तैयारी ही नहीं थी।

हालाँकि यदि केरल को छोड़ दें तो पूरे देश की हालत इस मामले में ख़राब थी, लेकिन गुजरात में सबसे बुरी बात यह थी कि पिछले बीस साल के बीजेपी शासन में स्वास्थ्य तंत्र पूरी तरह से चरमरा चुका है। बीजेपी सरकार ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि उसकी सरासर उपेक्षा की। 

दूसरे कई राज्य जहाँ स्वास्थ्य पर अपना ख़र्च बढ़ा रहे थे वह कटौती कर रहा था। और यह उस समय हुआ जब नरेंद्र मोदी प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। आइए, कुछ आँकड़ों पर ग़ौर करते हैं। 

आरबीआई के अनुसार सन् 1999 में गुजरात देश में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति ख़र्च करने वाले राज्यों की सूची में चौथे नंबर पर था, मगर 2009 आते-आते वह फिसलकर 11वें स्थान पर पहुँच गया। इस दौरान असम 12वें से तीसरे स्थान पर पहुँच गया और उत्तर प्रदेश जैसा बीमारू राज्य भी पंद्रहवें से नौंवे स्थान पर पहुँच गया। 

गुजरात पहले स्वास्थ्य पर क़रीब 4.39 फ़ीसदी ख़र्च कर रहा था जो कि घटकर केवल 0.77 फ़ीसदी रह गया। यानी पाँचवाँ हिस्सा ही रह गया।

इसी का नतीजा है कि गुजरात में 1000 मरीज़ों पर 0.33 बेड हैं। केवल बिहार ही ऐसा एकमात्र राज्य है जहाँ इससे भी ज़्यादा हालत ख़राब है। राष्ट्रीय औसत 1000 मरीज़ों पर 0.55 बेड का है। अब आप सोच सकते हैं कि जब महामारी से हज़ारों लोग संक्रमित होंगे तो उनका क्या हाल होगा। उनके लिए बेड कहाँ से आएँगे और उन्हें रखने की इमारतें कहाँ होंगी।

माननीय नरेंद्र मोदी ने 2001 में जब राज्य की बागडोर सँभाली थी तो राज्य में 1001 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे। इसके अलावा 240 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 7224 उप केंद्र भी थे। अब ज़रा यह देख लीजिए कि अगले दस सालों में उनकी उपलब्धियाँ क्या रहीं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 1058 हो गए यानी केवल 57 नए केंद्र बने। इसके अलावा 74 सामुदायिक केंद्र और बने जबकि एक भी उपकेंद्र नहीं बना। 

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यही नहीं, गुजरात के सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने पर भी वहाँ के मरीज़ों को ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है। इस मामले में तो बिहार भी उससे बेहतर है। प्रति व्यक्ति दवाओं पर ख़र्च करने के मामले में गुजरात 2009 में ही देश में पचीसवें स्थान पर पहुँच गया था। 

और भी बहुत से आँकड़े हैं जिनका ज़िक्र किया जा सकता है; मसलन, राज्य में वेंटिलेटर बहुत कम हैं, टेस्टिंग लेबोरेटरी कम हैं और हेल्थ स्टाफ की भी कमी है। पिछले बीस सालों में इन सभी मामलों में सुधार होने के बजाय स्थिति बिगड़ी ही है।

कहा जा सकता है कि राज्य सरकार की ख़राब नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी ने गुजरात की जनता को बहुत बड़े ख़तरे में डाल दिया है। उन्हें गुजरात मॉडल की ख़ामियों की सज़ा भुगतनी पड़ेगी।

दिक्कत यह है कि केंद्र में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर भी वही करना शुरू कर दिया है जो उन्होंने गुजरात में किया था। यानी एक नाकाम गुजरात मॉडल को वे देश पर थोप रहे हैं और इसका नतीजा देश की जनता को भुगतना ही पड़ेगा।

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मुकेश कुमार

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