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फ़ैसला अगर ख़िलाफ़ है, कह दो, जज बेईमान है

जस्टिस सीकरी ने लंदन में सीएसएटी पोस्टिंग का प्रस्ताव ठुकराकर बहुत अच्छा किया। कोई भी व्यक्ति जो अपने चरित्र पर कीचड़ उछाला जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह ऐसा ही करता। उम्मीद है कि आलोक वर्मा मामले में उनपर जो आरोप लगा था कि चार साल की इस पोस्टिंग के लालच में उन्होंने मोदी यानी सरकारी पक्ष का साथ दिया था, वह समाप्त नहीं तो धुँधला अवश्य होगा। हालाँकि कहनेवाले तो अब भी कहेंगे कि चूँकि मामला प्रकाश में आ गया इसलिए जस्टिस सीकरी ने यह प्रस्ताव ठुकराया है वरना वे इसे लपक ही लेते।

मुझे लगता है, जस्टिस ए. के. सीकरी के साथ मीडिया के एक पक्ष ने घोर अन्याय किया है और इससे आज के दौर की पत्रकारिता और सोशल मीडिया का बहुत ही चिंताजनक पहलू सामने आता है जहाँ मीडिया का एक तबक़ा जिसे सोशल मीडिया का भी व्यापक सपोर्ट है, सरकार या अदालत के हर फ़ैसले को रंगीन चश्मे से देखता है, ख़ासकर तब जब वह उसके पक्ष में न आया हो। पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने एससी-एसटी ऐक्ट में मौजूद ‘शिकायत के साथ ही गिरफ़्तारी’ वाले प्रावधान को रद्द कर दिया था तो कहा गया था वे सवर्ण हैं, इसीलिए ऐसा फ़ैसला दिया है। हाल ही में अयोध्या मामले में बनी बेंच में मुस्लिम जज न होने की भी शिकायत कुछ लोगों ने की है जिनको लगता है कि इससे फ़ैसला मुसलमानों के विरुद्ध आएगा।

इस तबक़े (इसमें सभी विचारधारा के लोग हैं) ने ऐसा माहौल बना दिया है मानो सुप्रीम कोर्ट के जज क़ानून और संविधान के आधार पर फ़ैसला नहीं देते, अपने व्यक्तिगत और वर्ग या धर्महित के आधार पर फ़ैसला देते हैं।

जस्टिस सीकरी का मामला इसकी ताज़ा मिसाल है। उन्होंने एक फ़ैसला दिया जो संयोग से सरकारी पक्ष से मेल खाता था सो सरकार-विरोधी पक्ष यह पता लगाने में जुट गया कि सीकरी को सरकार से कुछ मिलनेवाला तो नहीं है। और जब मिला तो यह साबित करने में लग गया कि हो न हो, सीकरी ने सरकार के पक्ष में इसी कारण फ़ैसला दिया है कि उनको यह पद मिलनेवाला था। यह किसी ने नहीं सोचा कि सीकरी को यह ऑफ़र दिसंबर में मिला था जब न इस समिति के बनने की बात थी, न ही सीकरी इस समिति के सदस्य होंगे, इसका किसी को पता था। सीकरी को इस समिति में रखने का फ़ैसला भी सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस गोगोई ने किया है। किसी ने यह भी नहीं पता किया कि पिछले साल जब कर्नाटक के गवर्नर ने येदियुरप्पा सरकार को बहुमत साबित करने के लिए पंद्रह दिनों का प्रचुर समय दे दिया था ताकि वे इस बीच विपक्ष में तोड़फोड़ कर सकें तो यह जस्टिस सीकरी की ही बेंच थी जिसने उसे घटाकर 48 घंटे कर दिया था।

एक बार सोचिए, क्या होता अगर सीकरी ने सरकार के विरोध में मत दिया होता। गारंटी मानिए कि तब यही तबक़ा जस्टिस सीकरी की ईमानदारी की तारीफ़ में जुट जाता और दूसरा तबक़ा यह पता करने में लग जाता कि जस्टिस सीकरी के दादा का नेहरू से क्या कभी कोई रिश्ता था।

इस पक्षपात वाली पत्रकारिता से निकलकर एक बार सोचिए कि जस्टिस सीकरी के सामने क्या सवाल था। उनके सामने मामला यह था कि सीबीआई प्रमुख पर भ्रष्टाचार के जो गंभीर आरोप लगे थे, उनको देखते हुए उनको उनके पद पर बने रहने देना चाहिए या नहीं। इस मामले में सरकार और विपक्ष जिनका प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री मोदी और विपक्ष (कांग्रेस) के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कर रहे थे, दोनों के विचार अलग थे और इस कारण उनका रोल महत्वपूर्ण हो गया।

यह सही है कि वर्मा पर जो आरोप लगे थे, वे एक ऐसे व्यक्ति ने लगाए थे जिनसे आलोक वर्मा की पुरानी रंजिश थी और वे सारे-के-सारे आगे चलकर झूठे साबित हो सकते हैं। लेकिन हमें यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि तीन सदस्यों की इस समिति को यह तय नहीं करना था कि वर्मा के ख़िलाफ़ आरोप सही हैं या ग़लत। ऐसा अब तक किसी ने भी नहीं कहा कि समिति की जाँच में वर्मा इन आरोपों के लिए दोषी ठहराए गए। उनकी अलग से जाँच हो सकती है और होनी भी चाहिए और उसका फ़ैसला जब आएगा, तब आएगा। समिति को केवल यह तय करना था कि इन आरोपों के मद्देनज़र क्या उनको अपने पद पर बने रहने देना चाहिए।

समिति के सामने दो ऑप्शन थे

  • एक, आलोक वर्मा पद पर बने रहते और उनके ख़िलाफ़ जाँच चलती रहती जिसका नियंत्रण उनके हाथ में नहीं होता।
  • दूसरा, आलोक वर्मा को जाँच चलते रहने देने तक हटा दिया जाता (यानी वे छुट्टी पर रहते) और जाँच पूरी होने पर और उसमें बेदाग़ पाए जाने पर उनको फिर से ससम्मान बहाल कर दिया जाता।

लेकिन समिति इन दोनों में से कोई विकल्प तभी चुन सकती थी यदि वर्मा के कार्यकाल में काफ़ी समय बचा होता। चूँकि वर्मा का कार्यकाल इसी महीने समाप्त होना था, सो किसी भी विकल्प को अपनाने का यही अर्थ निकलता कि वर्मा जाँच पूरी होने से पहले ही सीबीआई से अलग हो जाते।

जस्टिस सीकरी का निष्पक्ष नज़रिया

समिति एकमत से फ़ैसला नहीं कर पा रही थी। मोदी और खड़गे का अलग-अलग मत था और यह माना जा सकता है कि दोनों अपने-अपने रंगीन चश्मों से मामले को देख रहे थे। लेकिन जस्टिस सीकरी ने निष्पक्ष नज़रिए से सोचा और फ़ैसला दिया। उनका इस मामले में कोई स्टेक नहीं था और जो फ़ैसला उन्होंने दिया, वह ऐसे मामलों में अपनाई जानेवाली नीति से भी मेल खाता है जिसके अनुसार जिस व्यक्ति पर आरोप लगा हो, वह अपने बेगुनाह साबित होने तक उस पद से हट जाए।

मेरी समझ से उन्होंने ठीक किया और उनका यह निर्णय मोदी सरकार के फ़ैसले से मेल खाता है, यह मात्र संयोग है। 

यदि आज वर्मा की जगह अस्थाना सीबीआई के चीफ़ होते (जो कि मोदी के आदमी माने जाते हैं) और उनके मामले को रिव्यू करने के लिए ऐसी ही समिति बनी होती तो क्या होता? तब संभवतः मोदी अस्थाना के पक्ष में रहे होते, खड़गे उनके विरुद्ध में और मेरे ख़्याल से सीकरी ने तब भी यही फ़ैसला दिया होता।

तब यही सरकार-विरोधी मीडिया और सोशल मीडिया उनकी वाहवाही कर रहा होता और सरकार-समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया कांग्रेस से उनके रिश्ते जोड़ रहा होता।

हाँ, एक बात में समिति ने बड़ी चूक की है और वह यह कि उसे कोई भी फ़ैसला लेने से पहले वर्मा का पक्ष जानना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस जे. एस. ठाकुर समेत कई ऐसे लोगों ने भी इसपर आपत्ति की है जिनका कोई राजनीतिक कनेक्शन नहीं है। यदि ऐसा होता तो समिति, ख़ासकर जस्टिस सीकरी के फ़ैसले पर जो उँगली उठ रही है, वह नहीं उठती।

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नीरेंद्र नागर

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