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दिल्ली के रिठाला में चुनावी सभा में गृह मंत्री अमित शाह।फ़ोटो साभार: ट्विटर/अमित शाह

दिल्ली चुनाव: क्या हार के डर से बीजेपी उठा रही है शाहीन बाग़ का मसला?

क़ायदे से दिल्ली चुनाव में बीजेपी को अपना एजेंडा बदलना चाहिए। और केजरीवाल को शाहीन बाग़ से जोड़ने की जगह विकास के मुद्दे पर घेरना चाहिए। पर बीजेपी ऐसा कर नहीं सकती क्योंकि उसने दिल्ली की एमसीडी में कोई काम नहीं किया है। न ही उसके सातों सांसदों का काम ऐसा है कि इसे जनता के बीच रख वोट माँगा जाए। मोदी सरकार भी आर्थिक मसलों पर बुरी तरह पिट रही है।
आशुतोष

यानी मेरी राय बिलकुल सही थी। दिल्ली चुनावों में बीजेपी के पास कोई मुद्दा नहीं है और वह बड़ी बेचैनी के साथ चाहती है कि चुनाव सांप्रदायिकता के एजेंडे पर लड़ा जाए। मैंने लिखा था कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी अपने पाँच सालों के कामकाज पर लड़ना चाहती है और बीजेपी की पूरी कोशिश है कि वह विकास के कामों पर चुनाव न होने दे। इसलिये वह पूरी शिद्दत से शाहीन बाग़ को आगे कर उसे बड़ा मुद्दा बनाना चाहती है। वह तीन स्तरों पर काम कर रही है।

एक, उसकी पूरी कोशिश है कि शाहीन बाग़ को वह केजरीवाल से जोड़ दे। इसलिए अमित शाह और दूसरे नेता केजरीवाल को चुनौती दे रहे हैं कि वह शाहीन बाग़ जाएँ। केजरीवाल के वहाँ जाते ही बीजेपी बहुसंख्यक जनता को यह संदेश देगी कि उसे सिर्फ़ मुसलमानों की ही चिंता है। उसे हिंदुओं की चिंता नहीं है।

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दो, शाहीन बाग़ अब अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसके पक्ष में लिखा जा रहा है। मोदी सरकार की लानत-मलानत की जा रही है। मोदी के बारे में यह कहा जा रहा है कि वह भारत को धर्म के आधार पर बाँट कर भारतीय लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहे हैं और हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। बीजेपी की कोशिश है कि वह दिल्ली जीत कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया को यह संदेश दे कि उनकी सरकार के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार किया जा रहा है; जानबूझकर उनकी छवि को ख़राब किया जा रहा है; हक़ीक़त यह है कि नागरिकता क़ानून के विरोध का केंद्र बना शाहीन बाग़ विपक्षी दलों का प्रायोजित कार्यक्रम है, जबकि मोदी सरकार को बहुतायत जनता का साथ मिला हुआ है।

तीन, शाहीन बाग़ के साथ ही दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में भी कई शाहीन बाग़ खड़े हो गये हैं। केरल से लेकर पंजाब तक लोग अपनी-अपनी तरह से नागरिकता क़ानून का विरोध कर रहे हैं। केरल में तो छह सौ किलोमीटर की मानव शृंखला बनायी गयी। 29 जनवरी को देश भर में नागरिकता क़ानून के विरोध का अखिल भारतीय प्रोग्राम है। अगर बीजेपी दिल्ली जीत जाती है तो उसे यह कहने में सहूलियत होगी कि संसद से बने क़ानून पर जनता ने मुहर लगा दी है और कांग्रेस व लेफ़्ट का आंदोलन राजनीति से प्रेरित है। इससे आंदोलन की हवा निकालने में मदद मिलेगी।

सवाल यह है कि क्या बीजेपी अपने मक़सद में कामयाब होगी? बीजेपी के साथ दिक़्क़त यह है कि उसने अतीत से कुछ नहीं सीखा।

इसी दिल्ली में बीजेपी ने 2015 में केजरीवाल को “अराजक” और “नक्सली” साबित करने की कोशिश की। ख़ुद मोदी ने केजरीवाल पर निजी हमले किये थे। यहाँ तक कहा कि इन्हें जंगल में भेज देना चाहिए। यहाँ तक कि अख़बार में विज्ञापन दे कर बीजेपी ने कहा था कि केजरीवाल का गोत्र उपद्रवी है। साध्वी निरंजन ज्योति जो, केंद्र में मंत्री थीं, ने कहा था कि चुनाव रामजादे बनाम हरामज़ादे के बीच है। इस सारी गाली-गलौज का नतीजा क्या निकला? बीजेपी सिर्फ़ तीन विधानसभा सीट जीत सकी। 

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बीजेपी को अपना एजेंडा बदलना चाहिए?

क़ायदे से इस चुनाव में बीजेपी को अपना एजेंडा बदलना चाहिए। और केजरीवाल को शाहीन बाग़ से जोड़ने की जगह विकास के मुद्दे पर घेरना चाहिए। पर बीजेपी ऐसा कर नहीं सकती क्योंकि उसने दिल्ली की एमसीडी में कोई काम नहीं किया है। न ही उसके सातों सांसदों का काम ऐसा है कि इसे जनता के बीच रख वोट माँगा जाए। मोदी सरकार भी आर्थिक मसलों पर बुरी तरह पिट रही है। सारे अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय विशेषज्ञ मोदी की आर्थिक प्रबंधन की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। लिहाज़ा लौट कर सांप्रदायिक एजेंडे पर आना उसकी मजबूरी है।

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यहाँ भी वह ग़लती कर बैठी। दिल्ली की जनता आमतौर पर देश के दूसरे मतदाताओं से अधिक पढ़ी-लिखी है और उसका एक्सपोज़र दूसरे शहरों और प्रदेशों से अधिक है। वह शांति और स्थिरता की हामी है। 2015 में भारी बहुमत पाने के बाद जब इसने देखा कि केजरीवाल कि दिलचस्पी सरकार चलाने में कम और धरना-प्रदर्शन और मोदी को गाली देने में अधिक है तो उसने एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी को बुरी तरह से धूल चटा दी। केजरीवाल सुधरे। लड़ना बंद किया। सरकार चलाने पर फ़ोकस किया। लिहाज़ा उनकी छवि में नये सिरे से निखार आने लगा।
मोदी के साथ उलटा हुआ। 2019 के बाद लोगों को भरोसे में लेकर काम करने की जगह एकतरफ़ा फ़ैसले करने लगे। नतीजा लोग सड़कों पर हैं।

उनके नेता जनता को हिंसा के लिए उकसाने में लगे हैं। अनुराग ठाकुर मंत्री हैं पर नारे लगवा रहे हैं- गोली मारो सालों को। प्रवेश वर्मा कह रहे हैं कि उनकी सरकार बनी तो एक महीने में सरकारी ज़मीन पर बनी मसजिदों को हटा देंगे। एक बीजेपी नेता कह रहा है कि ‘मोदी-योगी का विरोध किया तो ज़िंदा गाड़ दूँगा’। दूसरा कहता है कि ‘कुत्तों की तरह गोली मार देनी चाहिए और यूपी में मारी है’।

अब जनता बीजेपी को गोली मारने की इजाज़त तो नहीं दे सकती? दिल्ली के लोग इतने समझदार तो हैं। उन्होंने शीला दीक्षित को पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री के तौर पर बनाए रखा क्योंकि वह मार-काट की भाषा की जगह विकास की बात करती थीं। बीजेपी के नेता यह नहीं समझ रहे हैं। लिहाज़ा पुराना टेप रिकॉर्ड कुछ नये बदलाव के साथ बज रहा है। ऐसे में दिल्ली में 11 फ़रवरी को बीजेपी को फिर ज़ोर का झटका धीरे से लग जाए तो हैरान नहीं होना चाहिये!

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