Disha ravi arrested in toolkit case

राजा नहीं बदलते, प्रजा बदले तो बदले! 

पिछले कुछ सालों में डर और ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया गया है। एक टारगेट तय किया जाता है, फिर उसके इर्द-गिर्द एक कथानक गढ़ा जाता है और अचानक ये साबित कर दिया जाता है कि वो देशद्रोही है, राजद्रोही है। फिर उसके लिए अपनी रक्षा करना असंभव हो जाता है। रोहित वेमुला हो या कन्हैया कुमार या फिर उमर ख़ालिद। शाहीन बाग का आंदोलन हो या फिर शर्जील इमाम। तब्लीग़ी जमात हो या फिर किसान आंदोलन, सबको एक ही तराजू पर तोल दिया जाता है।
आशुतोष

भारतीय नीति शास्त्र में राजा को पिता का दर्जा दिया गया है। प्रजा संतान सरीखी है। प्रजा को दुख से मुक्ति दिलाना और सुख में समृद्ध करना, राजा के कर्तव्यों में अंतर्निहित है। लेकिन राजा की नज़र अगर फिर जाये तो पुराने जमाने में क़यामत आ जाती थी। प्रजा को ये नीतिगत सलाह भी दी जाती थी कि वो राजा के कोप से बचे। 

बग़ावत करना गुनाह था

इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब राजा के इशारे मात्र से सिर धड़ से अलग कर दिया जाता था और प्रजा चूँ भी नहीं कर पाती थी। राजा के ख़िलाफ़ बग़ावत और विद्रोह की एक ही सजा थी- मौत। राजा अपने प्रतिद्वंद्वियों को भी नहीं बख्शा करते थे। ऐसी मान्यता है कि बादशाह औरंगज़ेब ने अपने भाई दारा शिकोह का सिर कलम कर उसे पूरे शहर में घुमवाया था। 

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दारा शिकोह को मिली सजा

दारा शिकोह औरंगज़ेब से ज़्यादा पढ़ा-लिखा और क़ाबिल था। शाहजहाँ उसे दिल्ली की गद्दी सौंपना चाहता था। औरंगज़ेब की मंशा कुछ और थी। उसने न केवल जंग में दारा को परास्त किया, अपने पिता को बंदी बनाया बल्कि दारा का सिर कलम कर उसने ये भी सुनिश्चित किया कि फिर कोई उसके सामने सिर उठाने की जुर्रत न करे। 

बादशाह अकबर ने भी अपनी धाय माँ महम अंगा के बेटे आधम खां को महल में घुसकर बग़ावत करने पर क़िले के बुर्ज से नीचे फिकवा दिया था। जब कारिंदों ने खबर दी कि अभी भी उसकी साँसें ख़त्म नहीं हुई हैं तो उसे दुबारा ऊपर से नीचे फेंका गया। 

मंगोलिया का बादशाह बनने की होड़ में चंगेज़ ख़ान और जमूखा में जंग हुई। जमूखा ने चंगेज़ की सेना को हरा दिया था। बाद में क़ैदियों को जमूखा ने खौलते हुए कड़ाहों में उबाल दिया था। चंगेज़ ख़ान जिसने दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया था, उसने राजाओं को हराने के बाद प्रजा का मनोबल पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए ताकि कोई बग़ावत की न सोचे, शहर के शहर जला डाले थे। 

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ये इतिहास का वो काल था जब राजशाही थी। तलवार के बल पर सब कुछ तय होता था। राजा के शब्द ही अंतिम वाक्य हुआ करते थे और उसकी कोई अपील नहीं थी। राजा को ईश्वर का अंश कहा जाता था। 

गिलोटीन का इस्तेमाल 

यहाँ तक कि फ़्रांसीसी क्रांति के समय भी गिलोटीन का इजाद किया गया। इसमें बग़ावत करने वालों या बग़ावत के संदेह में लोगों के सिर को धड़ से अलग कर दिया जाता था। 1789 की क्रांति के बाद सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाये क्रांतिकारियों ने अपने ही कई साथियों को गिलोटीन पर चढ़ाया था। यहाँ तक कि क्रांति के नेता मैक्समिलियन रोब्सपियरे तक को गिलोटीन से मौत के घाट उतारा गया था। लेकिन जैसे-जैसे संविधानवाद की नींव पड़ी, राजशाही ख़त्म हुई तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए सिर धड़ से अलग करना आसान नहीं रहा। गिलोटीन का इस्तेमाल करना ख़त्म हो गया। 

सभ्य समाज में ये तय हो गया कि क़ानून के मुताबिक़ ही किसी की जान ली जा सकती है और सजा दी जा सकती है। राज़ा हो या प्रजा दोनों के हाथ संविधान से बांध दिये गये। ऐसा माना गया कि दोनों ही मनमानी नहीं कर सकते।

विद्रोह बर्दाश्त नहीं 

वक्त बदला है लेकिन सत्ता में बैठे लोगों का मिज़ाज नहीं बदला है। वो आज भी किसी भी तरह की बग़ावत या विद्रोह को बर्दाश्त नहीं करते और उससे निपटने के नये-नये रास्ते निकाल लेते हैं। साम्यवादी मुल्कों में संविधान को ही इस तरह तोड़-मरोड़ दिया गया कि सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का नतीजा फ़ायरिंग स्क्वाड का सामना करना था। 

स्टालिन और माओ ने क्रांति के नाम पर हज़ारों-लाखों लोगों की जान ली है और जिनकी जान नहीं ली, उन्हें सड़ने के लिए कंस्ट्रेशन कैम्प में भेज दिया जाता था जहां उनकी ज़िंदगी मौत से भी बदतर होती थी। हिटलर और मुसोलिनी के देश में जो हुआ उसकी मिसालें आज भी दी जाती हैं। 

सत्ता का निरंकुश होना 

कंबोडिया में तो एक तिहाई जनता को ही मौत की सूली पर चढ़ा दिया गया। अर्जेंटीना में आज भी मदर्स डे के दिन माएँ राजधानी ब्यूनर्स आयर्स के एक प्रमुख चौराहे पर इकठ्टा होती हैं और सत्ता के द्वारा ग़ायब कर दिये गये सैकड़ों बच्चों को वापस लाने की माँग प्रशासन से करती हैं। ये माएँ सैनिक शासन के दौरान विद्रोही युवाओं को समुद्र में फेंक दिये जाने की याद पूरे समाज को दिलाती हैं और ये एहसास कराती हैं कि सत्ता जब निरंकुश हो जाती है तो वो प्रजा से कैसा व्यवहार करती है। 

भारत में आज़ादी के बाद ऐसे उदाहरण कम हैं। 

संविधान निर्माताओं ने जिस संविधान की नींव रखी, उसमें सत्ता के निरंकुश होने की गुंजाइश कम छोड़ी। फिर भी एक ख़तरा हमेशा बना रहता है कि प्रचंड बहुमत की सरकारें या बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री बहुमत के तिलिस्म में निरंकुश हो सकते हैं।

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चाणक्य के नाम से बहुत पहले एक लेख लिखा था। इसमें उन्होंने ये आशंका जताई थी कि जिस कदर उनकी लोकप्रियता थी, उससे उन में डिक्टेटर बनने की इच्छा हो सकती थी। नेहरू तमाम मतभेदों के बाद भी सब को साथ लेकर चलने की नीति पर चलते रहे पर उनकी बेटी इंदिरा गांधी इतनी लोकतांत्रिक साबित नहीं हुईं। 

इंदिरा ने लगाया आपातकाल

जब इंदिरा की कुर्सी को ख़तरा हुआ तो देश पर ‘विदेशी हाथ’ के ख़तरे का भौकाल खड़ा कर आपातकाल लगा दिया। वयोवृद्ध नेता जय प्रकाश नारायण तक पर लाठी चार्ज करवाया और उन्हें जेल में डाल दिया। तमाम विपक्षी नेताओं को भी हवालात की सैर करायी गयी। नसबंदी जैसे कार्यक्रम को अंजाम दिया गया। प्रेस को बधिया बना दिया गया। अदालतें डर से ख़ामोश हो गयीं और बड़े-बड़े न्यायाधीश सत्ता की चरण वंदना में जुट गये थे। अंत में लोकतंत्र जीता। उन्हें बुरी हार का सामना करना पड़ा। 

दिशा रवि की गिरफ़्तारी पर देखिए वीडियो- 

आज फिर देश में वैसी ही निरंकुशता के बीज दिखायी पड़ रहे हैं। उसके पल्लव फूट कर पेड़ हो जाने को बेताब हैं। सत्ता संस्थानों ने काफी हद तक सरेंडर कर दिया है। बीसवीं शताब्दी में मध्य काल का न्याय संभव नहीं है और न ही उस तरह का विरोध। दुनिया पहले से कहीं ज़्यादा बदल गयी है। 

संचार माध्यमों से आयी क्रांति ने राजा हो या प्रजा सबके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी हैं। पर इन बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास ख़त्म हो गया हो ये नहीं कहा जा सकता। इंदिरा गांधी के लिए विरोध की आवाज़ को दबाना आसान था। कुछ अख़बार थे। टीवी और सोशल मीडिया तो थे भी नहीं। नाम का दूरदर्शन था। रेडियो था पर सरकार के नियंत्रण में।

सूचना क्रांति का युग 

आज हर शहर से अख़बारों के एडिशन निकाले जा रहे हैं। गली-मोहल्ले में टीवी माइक घूमते दिख जाते हैं, फ़ेसबुक और यू ट्यूब ने मुख्यधारा के टीवी और अख़बार को छोटा साबित कर दिया है। व्हाट्सएप ग्रुप एक नई सूचना क्रांति को जन्म दे रहा है। आकाश इतना खुल गया है और दुनिया इतनी एक-दूसरे में सिमट और गुथ गयी है कि आज आपातकाल घोषित करना बहुत मुश्किल लगता है। लेकिन सरकार इन चुनौतियों के बीच कहीं अधिक प्रयोगशील हो गयी है। 

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विरोधियों पर हमला

सरकार ने एक ऐसी फ़ौज खड़ी कर दी है जो सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर विरोधियों पर टिड्डी दल की तरह धावा बोलती है और सामने वाले की छवि को पलक झपकते ही तार-तार कर देती है और विरोधी हक्का-बक्का खड़ा रह जाता है। सत्ता के तंत्र का इस्तेमाल विपक्षियों के हौसले पस्त करने के लिए ऐसे किया जाता है जैसे कोई सिद्धहस्त कलाकार कैनवास पर पेंटिंग के लिए ब्रश चला रहा हो। फ़र्क़ इतना है कि ये रंग खूबसूरत नहीं लगते और ब्रश डरावनी तसवीर पैदा करते हैं। 

पिछले कुछ सालों में डर और ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया गया है। एक टारगेट तय किया जाता है, फिर उसके इर्द-गिर्द एक कथानक गढ़ा जाता है और अचानक ये साबित कर दिया जाता है कि वो देशद्रोही है, राजद्रोही है। फिर उसके लिए अपनी रक्षा करना असंभव हो जाता है। 

रोहित वेमुला हो या कन्हैया कुमार या फिर उमर ख़ालिद। शाहीन बाग का आंदोलन हो या फिर शर्जील इमाम। तब्लीग़ी जमात हो या फिर किसान आंदोलन, सबको एक ही तराजू पर तोल दिया जाता है।

अदालतों का आत्मसमर्पण

सरकार का विरोध करने का अर्थ है भारत विरोध, देश से ग़द्दारी और देश से ग़द्दारी की सजा है राजद्रोह का मुक़दमा। पुलिस हो या फिर सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय हो या फिर एनआईए या आयकर विभाग, सब राजा की तलवार की तरह विरोधियों के सिर कलम करने को तैयार बैठे हैं। एक से बचें तो दूसरा, दूसरे से उबरे तो तीसरा और तीसरे से बचें तो चौथा। यहाँ तक कि अदालतें भी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मसमर्पण की मुद्रा में है। 

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दिशा रवि की गिरफ़्तारी 

ऐसे में एक 22 साल की लड़की दिशा रवि को दिन दहाड़े घर से उठा लिया जाये, उसे अदालत पाँच दिन की रिमांड में भेज दे और पुलिस ये आरोप लगाये कि वो तो खालिस्तानियों के संपर्क में थी और अंतरराष्ट्रीय ताक़तों के साथ मिलकर देश की सत्ता को अस्थिर करने की साज़िश में शामिल है तो फिर असहाय प्रजा क्या करे, कहाँ जाये, किस दरवाज़े इंसाफ़ की पुकार लगाये। 

वाकई में इतिहास ने लंबी छलांग लगायी है, सभ्यतायें बदली हैं, साइंस ने भारी तरक्की की है पर नहीं बदला है राजा का मिजाज। वो आज भी विरोध और असहमति को सहने को तैयार नहीं है। 

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